Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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यह कदम हम नहीं तो और कौन उठायेगा?
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भारत की, विश्व की, समस्त मानव−जाति की अनेकानेक समस्याओं के भूल में एक ही कारण छिपा हुआ है—मानवी दुर्बुद्धि, पारस्परिक स्नेह, सद्भाव−सौजन्य एवं सहयोग में जितनी कमी पड़ती जाती है, उतनी ही नई−नई विपत्तियाँ उत्पन्न होती जाती हैं। जिस बुद्धि का उपयोग एक दूसरे का शोषण, उत्पीड़न करने के लिए किया जाता है, उसका उपयोग यदि स्नेहासिक्त सद्व्यवहार में किया जा सके तो सुविधाएँ इतनी बढ़ जायेंगी कि न तो कहीं किसी को कोई अभाव अनुभव होगा ओर न कष्टों का कारण शेष रहेगा। विनाश ओर सुरक्षा प्रयत्नों में नष्ट होने वाली सम्पत्ति एवं बुद्धि यदि विकास एवं सहायता के लिए जुटाई जा सके तो इस धरती के हर कोने में स्वर्ग बिखर पड़ेगा। एक दूसरों को परस्पर भरपूर सद्भाव सौजन्य मिलेगा तो हर घड़ी हर जीवन में हर्षोल्लास ही छलकता पाया जा सकेगा।
मनुष्य की बुद्धि और शक्ति असीम है—आवश्यकता स्वल्प। यदि अपने सोचने और करने का तरीका सुधार लिया जाय तो न कुछ अभाव अनुभव होगा और न किसी को शिकायत करनी पड़ेगी। ठीक यही बात सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के सम्बन्ध में है। उलझनें हैं नहीं—वे पैदा की गई हैं। न्याय और औचित्य को स्वीकार कर लिया जाय—अधिकार से अधिक कर्त्तव्य को मान्यता दी जाय तो जटिल से जटिल दीखने वाली समस्या का भी सरल समाधान मिल सकता है। इसके विपरीत शक्ति और छल से दूसरों को दबाने से तात्कालिक लाभ भले ही मिल जाय, पीछे जब विद्वेष और विद्रोह फूटेगा तो वह अनीति पूर्वक प्राप्त किये गये लाभ की अपेक्षा कहीं अधिक हानिकारक सिद्ध होगा।
यही बात सम्पदा वृद्धि के माध्यम से सुख−साधन बढ़ाने के सम्बन्ध में लागू होती है। सर्प को दूध पिलाने से उसका विष बढ़ता है, साथ ही उपद्रव भी। व्यक्ति दोष−दुर्गुणों से भरा हुआ हो तो जितनी सम्पदा मिलेगी, वह उतना ही अपने लिए ओर दूसरों के लिए सत्यानाशी दुरभिसन्धियाँ रचेगा। निर्धन ओर अशिक्षित रहने पर साधन हीन दुष्ट उतना भयंकर नहीं होता, जितना कि चतुरता और साधन सामग्री मिल जाने पर। विद्या अच्छी चीज है—धन भी उत्तम वस्तु है—बलिष्ठता, कुशलता, कलाकारिता सभी विभूतियाँ अभिनन्दनीय हैं, पर यदि वे दुरात्मा के साथ लगेंगी तो उनका भयंकर प्रतिफल रोमाँचकारी संकटों के रूप में सामने आवेगा।
हमें उथलेपन में नहीं भटकना चाहिए, गहराई में उतरना चाहिए। छुटपुट कठिनाइयाँ सामने देखकर उनका सामयिक समाधान ढूंढ़ने में ही व्यस्त नहीं हो जाना चाहिए, विष−वृक्ष की उस जड़ पर कुठाराघात करना चाहिए, जिसके फल और काँटे पग−पग पर वास देते हैं। संकट−ग्रस्त की तात्कालिक सहायता कर देना अच्छी बात है, उससे हमारी दयालुता और उदारता को पोषण मिलता है, पर उससे स्थायी समाधान कुछ नहीं मिलता। भिक्षुक को एक पैसा दे देना सस्ती दयालुता है, पर सच्चा सहायक तो वह है, जो उसे परिश्रम करने के लिए रजामन्द करे और उपार्जन के किसी उपयुक्त साधन में जुटा दे। सस्ती ओर उथली सेवा तो कितने ही भावुक लोभ करते रहते हैं। हमें दूरदर्शियों की भूमिका निभानी चाहिए और व्यक्ति एवं समाज को निरन्तर सन्त्रस्त करने वाली विपत्तियों की जड़ काटने की दूरदर्शिता अपनानी चाहिए। सुख−शान्ति की सुस्थिर आधार−शिला रखनी चाहिए।
स्पष्ट है कि मानवी दुर्बुद्धि को निरस्त किये बिना, भावनात्मक उत्कृष्टता का जन−मानस में बीजारोपण किये बिना—व्यक्ति और समाज की एक भी समस्या का हल नहीं निकलेगा। कोल्हू के बैल की तरह हम विविध प्रकार के हलके−फुलके प्रयासों में चक्कर भले ही काटते रहें। कार्य कठिन है। उसका प्रतिफल प्रत्यारोपण चर्म चक्षुओं से दीख नहीं पड़ता, इसलिए अदूरदर्शियों को उसका कुछ परिणाम प्रतीत न होने से उत्साह भी नहीं मिलता। इसलिए लोग ज्ञान−यज्ञ जैसे सर्वोत्कृष्ट परमार्थ की उपयोगिता समझ नहीं पाते, उसके लिए साहस जुटा नहीं पाते। यही कारण है कि सेवा परमार्थ की बात सोचने वाले लोग अन्न−दान, जल−दान, वस्त्र−दान, औषधि−दान आदि की बात सोचने तक सीमित रह जाते हैं। बहुत हुआ तो उन कार्यों को हाथ में लेते हैं, जिनसे ख्याति और प्रशंसा मिलती हो। धर्मशाला, मन्दिर आदि इमारतें विशुद्ध रूप से दाता की ख्याति के लिए ही बनती हैं। उपयोगिता की दृष्टि से उनका लाभ नगण्य है। कई बार तो उनसे मुफ्तखोरी की दुष्प्रवृत्ति का अभिवर्धन होने लगता है। ब्रह्मभोज जैसी दावतों के पीछे ऐसी ही उथली यश−कामना काम करती है। हमें उस बात−स्तर से अपने को आगे बढ़ाना चाहिए और दूरदर्शियों की तरह उन कार्यों को हाथ में लेना चाहिए, जिनसे मानवी तरह उन कार्यों को हाथ में लेना चाहिए, जिनसे मानवी समस्याओं का स्थिर एवं आत्यन्तिक समाधान सम्भव हो सके।
युग−निर्माण योजना के अंतर्गत भावनात्मक परिष्कार के लिए जिस विचार−क्रान्ति की—नैतिक−क्रान्ति की—सामाजिक−क्रान्ति की—त्रिवेणी बहाई जा रही है, उसे अग्रगामी बनाने के लिए हमें सर्वतोभावेन जुटाना चाहिए। ज्ञान−यज्ञ के उस आलोक को अधिकाधिक ज्योतिर्मय करना चाहिए, जिससे अज्ञानान्धकार की कोंतर में छिपकर बैठी हुई विकृतियों ओर विभीषिकाओं को मार भगाया ज सके। मानवी सेवा−साधना का यही श्रेष्ठतम आधार पहले भी था, पर आज तो वह युग की अनिवार्य आवश्यकता बनकर सामने आया है। आपत्ति−कालीन विशिष्ट कार्य की तरह हमें उसी की पूर्ति में सर्वतोभावेन जुटना चाहिए। ईश्वर−भक्ति से लेकर आत्म−कल्याण ओर परमार्थ−प्रयोजन डडडड डडडड डडडड डडडड सकते हैं।
प्राचीन काल में साधु−संस्था इसी एक प्रयोजन में संलग्न रही है। बिना इधर−उधर ताके−झाँके एक ही दिशा में गतिशील रही है। फलतः उसके द्वारा वे सत्परिणाम उत्पन्न किये गये हैं, जिनके लिए युग−युगान्तरों तक उसके कृतज्ञ बने रहेंगे। करोड़ों कुबेर मिलकर भी जो नहीं वे सकते, साधु−संस्था ने विश्व−मानव को वह अनुदान प्रदान किया है। आज उस परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए यदि हम कुछ कहने लायक साहस जुटा सके तो भावी इतिहास का स्वरूप कुछ और ही होगा। जो कठिन कार्य साधु−संस्था के माध्यम से पूरा किया जा सकता है, उसे संसार के समस्त बुद्धिमान् सत्ताधारी ओर संपत्तिवान मिलकर भी नहीं कर सकते। दुर्भाग्य यह है कि तथ्य की गहराई समझी नहीं जा रही है, अन्यथा हर विचारशील,हर छुटपुट कार्यों को छोड़कर ज्ञान−यज्ञ के अभियान में कन्धा लगाता और सोचना कि समस्त समस्याओं का समाधान बस एक ही धुरी के साथ लिपटा हैं। इसलिए इधर−उधर ध्यान बखेरने की अपेक्षा इस एक ही प्रयोजन में पूरी तत्परता के साथ जुट जाना ही दूरदर्शिता है।
साधु−संस्था को पुनर्जीवित करने के लिए ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ को इस वर्ष अधिक साहस के साथ आगे आना है। इसके लिए अपनी वानप्रस्थ योजना सर्वोत्तम हैं। उसमें साधु ओर ब्राह्मणों का उभय−पक्षीय समावेश है।
जिनके पास पूरा समय है, साथ ही स्वास्थ्य, योग्यता एवं भावना भी हैं, ऐसे लोग कम ही मिलेंगे। इतना विशाल क्षेत्र—इतना महान् कार्य थोड़े से लोग नहीं कर सकते। कार्य की विशालता के अनुरूप सृजन−सेना का संख्या–बल भी चाहिए। अस्तु आँशिक समय देने वाले क्लिष्ट वानप्रस्थों की एक नई शृंखला खड़ी करनी पड़ी। जुलाई 73 के अंक में क्लिष्ट वानप्रस्थ कहा गया है। पूरा समय सदा सर्वदा के लिए देने वालों को वरिष्ठ और स्वल्प सेवा देने वालों को ‘क्लिष्ट’ कहा जाय तो यह उपयुक्त ही है।
क्लिष्ट वानप्रस्थ का सामयिक व्रत धारण करना हम में से किसी को कुछ बहुत अधिक कठिन नहीं पड़ना चाहिए। प्रवेश−काल में प्रारंभिक−शिक्षा के लिए दो महीने और फिर पीछे हर वर्ष एक महीना अभीष्ट उद्देश्य के लिए देते रहना—यह व्रतधारी वानप्रस्थ का न्यूनतम समय दान होना चाहिए। इससे अधिक जितना समय मिल सके, उतना उत्तम हैं। लगनशील और भावनाशील व्यक्ति इतना समय तो अपने सामान्य कारोबार की मन्दी के दिनों में भी निकाल सकते हैं। खलिहान उठाने के बाद हर वर्ष किसान एक−दो महीने फुरसत में रहता हैं। कहीं−कहीं जाड़े के दिनों में भी थोड़ी फुरसत रहती हैं। सरकारी कर्मचारियों को भी संचित ओर सामयिक दुट्टियाँ काफी मिलती हैं। व्यापार का भी चलने−चमकने का खास सीजन होता है बाकी समय तो वे भी मन्दी में ऊँघते रहते हैं। बड़ी कक्षाओं के विद्यार्थी भी वार्षिक छुट्टियाँ पाते हैं। इस अवधि को परमार्थ−प्रयोजनों के लिए देकर आत्म−कल्याण ओर लोक−निर्माण की उभय−पक्षीय साधनाएं की जा सकती है।
फिर आवश्यकतानुसार घर के दूसरे लोग अथवा कर्मचारी भी उत्तरदायित्वों को अपने कन्धों पर लेकर अवकाश देते ही रहते हैं। इससे आगे−पीछे बड़े उत्तरदायित्व संभालने और व्यवस्था चलाने का अवसर एवं शिक्षण मिलता है। साथ ही अपने ऊपर लदी हुई जिम्मेदारियों के बोझ में कुछ हलकापन भी आता है। चिन्ताओं ओर नियत जिम्मेदारियों का बोझ जितने समय तक हलका रहता है, उतने समय आदमी अपने आप में बहुत हलकापन अनुभव करता है। इस थोड़े बदलाव की दृष्टि से भी उतना समय व्यस्त लोगों को भी निकालना चाहिए। सारा बोझ सदा सर्वदा अपने ही ऊपर लादे रहने वाले लोग अपने पीछे वालों को अपंग बना देते है और खुद बेतरह लदते−मरते हैं। ऐसे लोगों की आँखें जब कभी बन्द होती हैं, तभी अनभ्यस्त उत्तराधिकारी हड़बड़ा जाते हैं और अचानक कंधे पर आये बोझ को न संभाल सकने के कारण बना बनाया खेल बिगाड़ देते हैं। इन सब कारणों को ध्यान में रखते हुए पीछे वालों का प्रशिक्षण करने की दृष्टि से और अपना मन हलका करते हुए अधिक दिन जीने के लिए भी तो वैसा करना आवश्यक है।
प्रश्न समय का नहीं—भावना का है। यदि हम साँसारिक कर्त्तव्यों की तरह आध्यात्मिक कर्त्तव्यों की भी गरिमा समझें, लोक की तरह परलोक को भी महत्व दें, शरीर की तरह आत्मा के लिए भी आहार जुटाना आवश्यक समझें, पेट और परिवार की तरह संस्कृति और समाज के प्रति भी जिम्मेदारी अनुभव करें, वासना ओर तृष्णा की पूर्ति जैसी प्रसन्नता आत्म−गौरव बढ़ाने वाले कार्यों में भी अनुभव करें, संसार में प्रशंसा प्राप्त करने की तरह ईश्वर की प्रसन्नता की भी आवश्यकता अनुभव करें,मनुष्य के सुर दुर्लभ शरीर और उसके महान् जीवन−लक्ष्य का स्वरूप समझें, तो यह नितान्त आवश्यक प्रतीत होगा कि जीवन−सम्पदा का शत−प्रतिशत भाग पशु प्रयोजनों में ही नष्ट न करने रह जाय, उसका एक अंश इस प्रकार भी व्यय किया जाय, जिससे आत्म−सन्तोष और परमार्थ कर्त्तव्यों की पूर्ति का साधन जुटता चले।
इन विचारों को यदि मन में स्थान मिल सके तो फिर अवसर न मिलन, अवकाश न रहने कास बहाना बिलकुल थोथा और झूंठा प्रतीत होगा। अवकाश केवल उन्हीं काम के लिए नहीं मिलता, जिन्हें निरर्थक और निरुपयोगी माना जाता है। जो काम आवश्यक समझे जाते हैं, उन्हें भोजन विश्राम छोड़कर भी पूरा करना पड़ता है। स्वजनों व भयंकर बीमारी अथवा कोई विपत्ति आ जाने पर हफबिना खाये, सोये दौड़धूप करते बीत जाते हैं। तब अवकाश कहाँ से आ जाता है? इस तथ्य से कोई इन्कार न कर सकता कि जिस कार्य के लिए अवकाश न होने बात कही जाती हो, उसे निरर्थक माना गया है, यही निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए। उपयोगी समझे जाने वालों सदा प्राथमिकता मिलती रही है। यदि हम आध्यात्मिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को समझेंगे तो प्रत्येक होगा कि जिनके लिए अवकाश न मिलने की बात व जाती थी, वस्तुतः वे इतने अधिक महत्वपूर्ण थे कि वह घाटा सहकर भी उनकी पूर्ति की जानी चाहिए थी।
हमें इसी दृष्टिकोण से सोचना चाहिए और युग पुकार पुरी करने के लिए एक कदम साहस पूर्वक बढ़ना चाहिए। आरम्भिक प्रशिक्षण के लिए इसी निर्धारण करना चाहिए और भविष्य के लिए निर्धारण करना चाहिए कि एक महीना तो हर वर्ष किसी न किसी प्रकार निकाल ही लिया करेंगे। यह डडडड जहाँ होगा, वहाँ वे सब आधार बन जायेंगे, जिनके आधार पर अभीष्ट प्रयोजन के लिए अवकाश निकल आये घर−परिवार का सामान्य काम−काज भी सरलता चलता रहे। अन्य सब व्यवस्थाएँ बड़ी आसानी से सकती हैं। न बन सकने वाली कठिन बात एक ही अपना चोर मन लोभ ओर मोह की कीचड़ से एक कद आगे बढ़ने से इन्कार करता है, उसे समझ लिया डडडड डडडड डडडड डडडड डडडड और असम्भव दीखती हैं।