Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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महान् प्रयोजन के लिये महान् साहस भी चाहिये
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क्लिष्ट वानप्रस्थों को सेवा−काल में अपने स्थान से बाहर जाकर कार्य करना चाहिए। सक्रिय सदस्य और कर्मठ कार्यकर्ता अपने−अपने क्षेत्र में प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक शतसूत्री योजना चलाते ही हैं। घर−कार्यों से बचे हुये समय को विचार−क्रान्ति—नैतिक क्रान्ति और सामाजिक−क्रान्ति के पुनीत क्रियाकलाप में लगाते ही हैं। वानप्रस्थों की भूमिका इससे अगली और ऊँची है। उन्हें बड़े कदम उठाने पड़ते है। इनमें एक कदम यह है कि अपना वर्तमान स्थान छोड़कर कहीं अन्यत्र सेवा−कार्य करने के लिए चले जायँ। पुरानी परम्परा यही है। वानप्रस्थ का अर्थ—घर छोड़कर वन में निवास करने वाला होता है।
अब वन्य प्रदेश में जीवनोपयोगी साधन सुविधाएँ नहीं मिलतीं और न वहाँ रहकर वर्तमान परिस्थितियों में अभीष्ट सेवा−कार्य हो सकता है। इसलिए घर छोड़कर वन जाने की बात में आधा अंश ही उपयोगी रह गया है—घर छोड़ना। वन जाने की अपेक्षा हमें भावनात्मक नव−निर्माण के लिए जन संपर्क में उतरना चाहिए। आजकल लोक−मानस भी झाड़−झंखाड़ भरे वन्य−प्रदेश से कम जटिल नहीं है। उसके साफ करके सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों के रहने योग्य बनाना चाहिए।
यों घर में रहना कोई पाप नहीं है। स्त्री बच्चों ने कुछ जुर्म नहीं किया है कि उन्हें छोड़ा जाय। इसलिए घर को भव−बन्धन समझना और बाहर वन में जाकर पुण्य बटोरने से शान्ति समेटने की कल्पना करना निरर्थक है। घर छोड़ने के पीछे यह निषेधात्मक दृष्टिकोण सर्वथा अनुचित है। हाँ, एक दूसरा दृष्टिकोण है, जिसके अनुसार अन्यत्र जाकर काम करने की उपयोगिता का समर्थन होता है।
घर रहकर पारिवारिक, व्यावसायिक काम बने ही रहते हैं। मित्रों और संबंधियों का पुराने ढर्रे का मिलना−जुलना और वार्तालाप करना बना ही रहता है, इस क्षेत्र में वानप्रस्थ की बदली हुई रीति−नीति फिट नहीं बैठती, उन्हें अखरती है। क्योंकि पिछले सामान्य क्रम में उन्हें व्यवधान उपस्थित दीखता है। अस्तु स्वाभाविक ही है कि कुटुम्बी सम्बन्धी और मित्रगण उपहास उड़ायें—बेवकूफ बनायें, ढोंग बनायें और इस झंझट में न पड़ने की सलाह दें। अनेकों ऐसी बात कहें—दलीलें दें, जिनसे अपना मन कमजोर पड़ता हो। जिन लोगों से सदा काम काजी साँसारिक बातें कही जाती रही हैं, उन्हें उस वानप्रस्थ अवधि में पुराना ढर्रा बदल कर ज्ञान−ध्यान की नई बातें कहने लगें तो उन्हें भी अटपटा लगेगा और जो समझाया जा रहा है, उसे मानने−अपनाने की अपेक्षा उलटे असमञ्जस में पड़ने लगेंगे। अपना ध्यान भी आधा ही परमार्थ प्रयोजनों में लगेगा। जो काम या समस्याएँ सामने आयेंगी, उनसे इन्कार तो नहीं किया जा सकता। दोनों ओर ध्यान बना रहे तो एक भी काम पूरी तरह न हो सकेगा। अधूरेपन की मनःस्थिति में जो कुछ होता है, वह लँगड़ा−लूला और असफल ही रहता है। घर का भी हर्ज हुआ−अभीष्ट परिणाम भी न निकला तो ऐसे वानप्रस्थ की क्या उपयोगिता हुई? सक्रिय सदस्य और कर्मठ कार्यकर्ता भी घर रहकर तो कुछ न कुछ सेवा−कार्य करते ही रहते हैं। वे अपने आपको सामान्य सेवा−रत कहते हैं। साधु−संस्था की अभाव पूर्ति का दावा नहीं करते। वानप्रस्थ उस उच्चस्तरीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए दुस्साहस करता है, इसलिये उसके त्याग−बलिदान की मात्रा भी अपेक्षाकृत अधिक बढ़ी चढ़ी होनी चाहिए। इसका प्रथम प्रतीक यह है कि जित दिन वानप्रस्थ निबाहना हो, उतने दिन अन्य किसी का क्षेत्र में जाकर रहना चाहिए, ताकि पूरे मन से पूरा ध्यान लगाकर जो कुछ करना हो, उसे ठीक तरह किया जा सके।
व्यावहारिक क्षेत्र में यह उक्ति सोलह आने सही उतरती है कि “गाँव का जागी जोगना−अन्य गाँव का सिद्ध अपने समीपवर्ती क्षेत्र में जिन्होंने आरम्भ से सामान्य सा का जीवनयापन किया है वे कम से कम उस क्षेत्र में बदले हुए उच्चस्तरीय परिवर्तन की बात स्थानीय लोगों के गले नहीं उतार सकते। यदि प्रयत्न करें भी तो सफलता प्राप्त करने में मुद्दतें लग जाती हैं, तब कहीं लोग वस्तुस्थिति समझ पाते हैं। आरम्भ में तो इस परिवर्तन के साथ मखौल, मजाक, व्यंग और विरोध असहयोग का दौर चल पड़ता है। जिनसे कभी किसी बात में मतभेद रहा है,वे ऐसे मौके पर बदला चुकाने का प्रयत्न करते हैं। तरह−तरह के आक्षेप, आरोप गढ़ते है और लोगों की दृष्टि में उसके पुण्य−प्रयास को इस तरह तोड़−मरोड़ कर रखते हैं कि बात बनने की अपेक्षा और गिरने लगे। चरित्र−हत्या के रूप में अक्सर ऐसे ही अवसरों पर शत्रुओं के घात−प्रतिघात चलते हैं। मित्र लोग भी इसमें पीछे नहीं रहते। उनका उद्देश्य शत्रुओं जैसा तो नहीं होता, पर साथ सहयोग का जो लाभ मिलता था, उसमें कमी आने से खीजते वे भी हैं और प्रयत्न यह करते हैं कि उस मार्ग से लौटने के लिए विवश करदें। इसलिए वे जब समझाने−बुझाने में असफल रहते हैं तो तरह−तरह की कठिनाइयाँ खड़ी करने लगते हैं।
यह समस्या काल्पनिक नहीं —सर्वथा देखी−समझी हुई है। प्रायः सभी महामानवों के अनुभव में आई है। इसलिए उन्हें अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र ही कार्यक्षेत्र बनाना, अपनाना पड़ा है। भगवान बुद्ध कपिल वस्तु में जन्मे अवश्य थे, पर वहाँ उनने अपना कार्यक्षेत्र नहीं बनाया। गाँधीजी पोरबन्दर में जन्मे थे, पर उनका कार्यक्षेत्र साबरमती और बर्धा रहा। शंकराचार्य केरल में जन्मे, पर वहाँ टिके नहीं। उत्तर भारत में वे काम करते रहे। स्वामी दयानन्द टंकारा में नहीं रहे, उन्हें मथुरा, अजमेर आदि स्थानों में अपने पाँव जमाने पड़े। सन्तों और महापुरुषों में से कोई एकाध ही ऐसा हुआ होगा, जिसने अपनी जन्मभूमि में ही सेवा−क्षेत्र बनाया हो और आशाजनक सफलता पाई हो। इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद साहब को मक्का छोड़कर मदीना के लिए हिजरत करनी पड़ी। ईसामसीह को लोगों ने वहाँ नहीं टिकने दिया, जहाँ वे जन्मे थे। श्रीकृष्ण भगवान ब्रज में रहने की उपयोगिता संदिग्ध होने पर वहाँ से उखड़ दिये थे और महाभारत के लिए इन्द्रप्रस्थ रुकने के उपरान्त द्वारिका जाकर पैर जमाने में समर्थ हुए थे।
यह कड़ुई सच्चाइयां हैं, जिनके आधार पर वानप्रस्थों को भी भूतकाल के परिव्राजक संन्यासियों की तरह अपना वर्तमान स्थान छोड़कर अन्यत्र जाने की बात सोचनी चाहिए। वह अवधि स्वल्प−कालीन हो तो ठीक है, पर जितने भी दिन कार्य करना हो उसे समग्र और व्यवस्थित करने की दृष्टि से अपना कार्यक्षेत्र अन्यत्र बनाने की बात ही सोचनी चाहिए।
बाहर का व्यक्ति अचानक सामने प्रस्तुत होता है, इसलिए उसका वर्तमान स्वरूप ही लोग देख−समझ पाते हैं। स्पष्टतः वानप्रस्थ का वर्तमान वेष और स्वरूप सन्त−महात्मा जैसा होता है। अस्तु उसे उसी रूप में देखने−मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती। स्वभावतः ऐसे आगन्तुक का अधिक प्रभाव ग्रहण किया जाता है। मनुष्य की कमजोरी ही सही, पर यह बात उसकी प्रकृति का अंग है कि “दूर के ढोल सुहावने” वाली उक्ति के अनुसार अपनी मान्यता बनाये और अजनबी के बारे में लम्बी−चौड़ी बातें सोचे। यदि यथार्थ में कोई वानप्रस्थ अपने भूतकालीन जीवन में कुछ ऊँचे स्तर का रहा है तो उसमें नमक−मिर्च मिलाकर सोचने की आदत, बात को और भी अधिक बढ़ा देती है और नवागन्तुक धर्म−प्रचारक और भी अधिक प्रभावशाली बन जाता है।
कार्यकर्ता को अधिक तत्परता से, अधिक एकाग्रता से, संकोच त्याग कर अधिक उत्साह के साथ नई जगह में ही काम करने का अवसर मिलता है। संकोची प्रकृति से भी बाहर जाकर ही पीछा छूटता है। अपनी प्रतिभा के विकास का अवसर भी ऐसे ही वातावरण में बनता है। निस्वार्थता की—निष्पक्षता की स्थिति भी उन्हीं परिस्थितियों में रहती है। नये ढर्रे की जीवनयापन पद्धति का अभ्यास इस स्थान परिवर्तन की स्थिति में अधिक सुविधापूर्वक—अधिक खुले मन से हो सकता है। वनवास में जिन बदली हुई परिस्थिति के लिए प्राचीन तपस्वी लोग जाते थे, लगभग वैसी ही बात अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र काम करने पर चले जाने से भी बन जाती है। अपने आपको अपनी बदली हुई स्थिति का भान होता रहे— अंतर्मन को निरन्तर संकेत उद्बोधन मिलता रहे, इसलिए वस्त्रों का रंग बदल लेने की परम्परा बहुत ही सार−गर्भित एवं तथ्य पूर्ण है। वानप्रस्थ अवधि में पीतवस्त्र धारण करने की परम्परा भूतकाल में जितनी उपयोगी थी, अब भी वह उतनी ही आवश्यक है। इसलिए अपनी परम्परा भी वही है। वानप्रस्थ को शिक्षा−काल में तथा सेवा−काल में पीले रंग से रँगे हुए वस्त्र पहनने होते हैं। धोती, कुर्ता, दुपट्टा तो रहते ही हैं, आवश्यकतानुसार कोट, जाकेट आदि पहनने हों तो वह भी रँगे जा सकते हैं। पेन्ट, पाजामा नहीं चलेगा, उसका तालमेल भारत की धर्म−संस्कृति के साथ नहीं खाता। वानप्रस्थ उन्हें पहने तो अटपटा और अस्वाभाविक लगेगा। इसलिए सामान्य भारतीय वेष−भूषा को पीले रंग में रँग कर उस अवधि में पहने रहने की परम्परा यथा स्थान रखी गई है। नियत अवधि पूरी करके क्लिष्ट वानप्रस्थ जब घर लौटे तो फिर सामान्य पोशाक पहले की तरह पहनते रहने में कोई हर्ज नहीं है। जब तक वानप्रस्थ तब तक स्थानान्तरण और तभी तक पीत−वर्ण की पोशाक।
सामान्यतः प्रयत्न यह करना चाहिए कि शिक्षण−काल का भाजन आदि का खर्च अपने पास से ही उठाया जाय। आवश्यक वस्त्र तो घर से ही साथ लेकर चलना चाहिए। सेवा कार्य में प्रायः भोजन व्यवस्था शाखा संगठनों में हो जाती है। यदि अपने पास थोड़ी अर्थ−व्यवस्था है तो प्रयत्न यही करना चाहिए कि जनता पर अपना कोई भार न पड़े और समय दान के साथ साथ उतना अर्थ−भार भी स्वयं ही उठायें, जिसमें अपना निर्वाह−व्यय पूरा होता रहे। जिनकी निजी आमदनी नहीं रही, उनके कमाऊ बच्चों को पितृ−ऋण चुकाने की दृष्टि से वानप्रस्थ कला का व्यय भार उठाना चाहिए। हर दृष्टि से औचित्य इसी में है कि यदि अपने पास थोड़ी अर्थ−व्यवस्था मौजूद है तो दूसरों पर अपना भार क्यों डालें? सेवा करनी ही है, तो अपना व्यय−भार स्वयं ही उठाते हुए क्यों न करें? जिनकी आर्थिक−स्थिति इस लायक है, उनकी प्रतिष्ठा इसी में है कि तीर्थ−यात्रा के लिए जिस प्रकार अपने खर्च से जाते हैं, उसी प्रकार इस तप−साधना के लिए भी यदि अपने पास कुछ है तो उसी का उपयोग करें। पिछली कमाई बेटे−पोतों के लिए और संन्यास में भिक्षा लोगों से—वाली नीति ही चलती रहे तो पिछले पिछड़े हुए साधुओं की तुलना में अपना त्याग का आदर्श क्या रहेगा?
पर वस्तुतः जिनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि घर से वानप्रस्थ अवधि का निर्वाह−व्यय प्राप्त कर सकें, उनकी आवश्यकताऐं शान्ति−कुञ्ज से जुटाई जायेंगी। घर के लिए मनीआर्डर तो किसी के लिए भी नहीं भेजा जा सकता, पर अन्न−वस्त्र की कमी के कारण शिक्षा एवं सेवा के लिए आगे बढ़ने से किसी को भी मन मसोस कर नहीं बैठना पड़ेगा।
मात्र भजन, स्वाध्याय, सत्संग से आत्मिक−प्रगति का महान् प्रयोजन पूरा नहीं होता। विचारणा के साथ क्रिया−प्रक्रिया जुड़ी रहने पर ही संस्कार बनते हैं, आस्थाएँ सुदृढ़ होती हैं और स्तर परिपक्व बनते हैं। इसलिए उत्कृष्ट विचारणा के साथ आदर्श क्रिया−पद्धति को जोड़ने से ही श्रेय साधना की धारा गतिगामिनी होती है। वानप्रस्थ प्रयोजन में इन सभी सन्दर्भों का समावेश है, उसे अपना कर हम अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करने का, अन्तःचेतना में उच्चस्तरीय तत्वों के समावेश का उद्देश्य पूराकर सकते हैं।
वानप्रस्थ परम्परा भारतीय−संस्कृति का मूल आधार है—उसी परम्परा ने इस देश को सुयोग्य, अनुभवी, अवैतनिक, भाव भरे लोक−सेवी प्रदान किये थे। इन्हीं नररत्नों ने इस देश को उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचाया था और उन्हीं के द्वारा हमने जगद्गुरु का सम्मान पाया था। समस्त विश्व को प्रगति एवं समृद्धि की दिशा में बढ़ाया था। इस परम्परा को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए। आधी आय के बाद जीवन का उत्तरार्ध−परमार्थ चाहिए, तभी विश्व कल्याण का पथ−प्रशस्त होगा। इस लुप्त परम्परा को जीवित करने के लिए यदि हम स्वल्पकालीन वानप्रस्थ क्रम भी आपत्ति−धर्म की तरह चला सके तो, उसके सत्परिणामों को देखकर लोग स्वयमेव आवश्यकता अनुभव करेंगे और वरिष्ठ वानप्रस्थों के द्वारा प्राचीनकाल जैसी सतयुगी स्थिति फिर इस धरती पर दृष्टिगोचर होगी।