Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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हमारे भावी कार्यक्रम जिन्हें सृजन सेना के सैनिक ही पूरा करेंगे
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शिविर−संचालन, तीर्थयात्रा−संयोजन, कथा−प्रसंग, कीर्तन−प्रक्रिया, प्रकाश चित्र प्रदर्शन, सम्मेलन, विचार विमर्श, गोष्ठी, परिसंवाद, संगीत−समारोह,कविता−सम्मेलन आदि कार्यक्रम ऐसे हैं, जिनमें वाणी के माध्यम से जन−मानस में नव−युग के अनुरूप विचारणाओं को प्रतिष्ठापित किया जाता है। संस्कार, पर्व, जन्म−दिन यज्ञानुष्ठान आदि कर्मकाण्डों की प्रक्रिया भी कम प्रेरक नहीं है। इनके माध्यम से धर्मोत्साह भरा वातावरण बनता है और उस अवसर पर जो कुछ शान्त−चित से कहा−सुना जाता है, वह सामान्य कहने−सुनने की अपेक्षा अधिक गहराई तक अन्तःकरण में उतरता है। धर्म−प्रचारकों की वाणी इन अथवा इन जैसे अन्य क्रिया−कलापों के माध्यम से मुखर होती है। जमे हुए कूड़े−करकट को साफ करके नवीन बीजारोपण के लिए भूमि परिष्कृत करती है।
लेखनी द्वारा भी ज्ञान−यज्ञ के−विचार−क्रान्ति के बीज बोये जा रहे हैं। वितरण की जाने वाली विज्ञप्तियाँ, चित्रकायें जाने वाले पोस्टर, झोला पुस्तकालय द्वारा पढ़ाये जाने वाले ट्रैक्ट, ज्ञान−रथों के माध्यम से जन−जन तक पहुँचाया जाने वाला साहित्य इस प्रयोजन की पूर्ति में संलग्न है।’अखण्ड−ज्योति’ तथा ‘युग−निर्माण योजना’ पत्रिका विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित होकर लाखों प्रबुद्ध व्यक्तियों के मस्तिष्क को झक झोरती है और उन्हें व्यक्ति तथा समाज की समस्याओं पर नये सिरे से विचार करने के लिए बाध्य करती हैं। दीवारों पर लिखें जाने वाले आदर्श−वाक्यों की प्रक्रिया ने करोड़ों मनुष्यो के मस्तिष्कों को युग सन्देश से परिचित एवं प्रभावित किया है। मिशन के उद्देश्य, स्वरूप एवं क्रिया−कलाप भी संसार के कोने−कोने तक जानकारी कराने के लिए लेखनी का माध्यम असाधारण रूप से प्रभावशाली सिद्ध हुआ है। व्यक्ति गत पत्र−व्यवहार की अपनी एक अलग ही शैली है। उससे सुदूर क्षेत्रों में रहने वाले लाखों व्यक्तियों से विचार−विमर्श होता रहता है, प्रेरणा−प्रवाह अनवरत रूप से बहता रहता है। मिशन का पत्र−व्यवहार इतना बड़ा है कि दस कर्मचारियों वाला गायत्री−तपोभूमि पोस्ट−आफिस केवल युग निर्माण योजना’ की डाक कठिनाई से ही वहन कर पाता है। ‘सप्त−सरोवर हरिद्वार पोस्ट−आफिस’ में दो तिहाई डाक शान्ति−कुञ्ज’ की ही आती−जाती है। यह सब पत्र−व्यवहार किसी व्यावसायिक उद्देश्य से नहीं, मात्र आदर्शवादी प्रेरणाओं के लिए ही होता है।
वानप्रस्थों को प्रचलित लेखनी और वाणी द्वारा किये जा रहे पिछले क्रिया−कलाप के अधिकाधिक विस्तार में प्रयुक्त किया जाना है। जो कार्य मन्द−गति से स्वल्प मात्रा में चल रहे थे, वे अब विशेष रूप से बढ़ जायेंगे। विशेष रूप से वाणी द्वारा प्रचार−कार्य और जन−संपर्क क्षेत्र उन्हीं के लिए सुरक्षित रखा गया है। प्रस्तुत योजना के अनुसार आशा की गई है कि ‘अखण्ड ज्योति परिवार’ में से पूरा समय देने वाले ‘वरिष्ठ’ और वर्ष में एक महीना देने वाले ‘कनिष्ठ’ वानप्रस्थ प्रायः बारह हजार तो आसानी से निकाले ही जा सकेंगे। इन सबका औसत समय एक एक महीने ही लोक−मंगल में लगता रहेगा, ऐसा मान लिया जाय तो पूरा समय देकर काम करने वाले एक हजार सुयोग्य,भावभरे एवं अवैतनिक लोक सेवियों की सृजन−सेवा खड़ी हो जायगी। यह जन शक्ति कार्य−विस्तार को देखते हुए निश्चय ही स्वल्प है, किन्तु आशा की जानी चाहिए ‘खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलेगा।’ ‘अखण्ड−ज्योति परिवार’ द्वारा उस पुण्य−परम्परा का नेतृत्व आरम्भ कर देने पर पीछे अनेकों व्यक्ति आगे आवेंगे और आज जिस प्रकार वासना और तृष्णा के पीछे मनुष्य पागल है, कल उसी प्रकार उत्कृष्टता और आदर्शवादिता के भूतिवाद कार्य करने के लिए उसी प्रकार तत्परता पूर्वक कटिबद्ध दिखाई पड़ेगा। वस्तुतः संसार के कोने−कोने में बिखरे हुए विभिन्न देश—धर्म जाति, संस्कृति एवं भाषाओं में बँटे हुए मानव−समाज को विविध प्रकार प्रचार−माध्यमों से प्रभावित, परिवर्तित करना पड़ेगा। 400 करोड़ व्यक्तियों को दिशा देने के लिए एक करोड़ धर्म−प्रचारक हो, तो भी कम ही पड़ेंगे। अपना साहस तो अभी एक हजार पूरा समय देने वाले वानप्रस्थों की आवश्यकता पूरी कर सकने जितना ही हुआ है। शुभारम्भ की दृष्टि से इतना कुछ कर सकना भी उत्साहवर्धक है।
प्रथम चरण के रूप में अभी प्रचार−प्रक्रिया पर जोर दिया जा रहा है, क्योंकि जन−मानस को वर्तमान के साथ जुड़ी हुई कुत्साओं और कुण्ठाओं का दुष्परिणाम सोचने का अवसर इसी आधार पर तो मिलेगा। ज्ञान यज्ञ के आलोक से ही आधार पर तो मिलेगा। ज्ञान यज्ञ केक आलोक से ही तो वह समझ सके गा कि उसका आत्यन्तिक हित और परम कल्याण किस दिशा में सोचने और चलने से सम्भव हो सकेगा? लाभ−हानि में क्या अन्तर है? मित्र और शत्रु कौन है? उचित और अनुचित कि से कहते है? तनिक−सी क्रूरता के पीछे कालकूट विष तो छिपा नहीं बैठा है? आदि प्रश्नों का उत्तर देने लायक जब मानव−मस्तिष्क हो जाय, तभी तो उसे कुछ करने और कराने की बात कही—बताई जा सकती है।
दूसरा चरण है, रचनात्मक क्रियाकलापों का अभिवर्धन। पेट और प्रजनन से भी आगे कुछ उपयोगी बातें हो सकती है, इसकी ओर सर्वसाधारण का ध्यान आकर्षित किया जाय और उन्हें मिल−जुलकर पूरा करने का अभ्यास लोक प्रवृत्ति में सम्मिलित किया जाय, इन्हीं प्रयत्नों का नाम रचनात्मक क्रियाकलाप है। आरोग्य संवर्धन के लिए व्यायामशालाएँ, सद्ज्ञान सम्पादन के लिए पुस्तकालय, वाचनालय, निरक्षरता निवारण के लिए प्रौढ़− पाठशालाएं, व्यस्त लोगों के शिक्षा−विकास के लिए रात्रि−पाठशालाएँ, ठाली समय में उपार्जन के लिए गृह−उद्योगशालाएँ, उत्पादक प्रवृत्ति जगाने के लिए शाकवाटिकाएं, हरितिमा संवर्धन के लिए पुष्प गुल्मों का संवर्धन, शाकों की कृषि और वृक्षारोपण, गौ−पालन, जैसी अनेकों सत्प्रवृत्तियां मिल−जुलकर जगह−जगह चलाई जा सकती है ओर उनसे प्रगति−पथ पर बढ़ने की दिशा में बहुत सहायता मिल सकती है। सहकारिता के आधार पर कितने ही उत्पादक एवं सुविधा संवर्धक उद्योग−व्यवसाय खड़े किये जा सकते है। मनुष्यों और पशुओं के मल−मूत्र का सदुपयोग करने की ओर ध्यान आकर्षित हो तो हमारे देहातों की जहाँ स्वच्छता और सुविधा बढ़े, वहाँ कृषि उत्पादन में भी आशाजनक अभिवृद्धि सामने आये। श्रमदान के लिए हर वयस्क व्यक्ति एक घण्टा समय निकाले और लोकोपयोगी निर्माण−कार्य में उसे लगाये तो सड़कें, बाँध, तालाब, कुंए, पाठशाला, पुस्तकालय, पञ्चायत−घर, मन्दिर, बगीचे, पार्क क्रीड़ा प्रांगण आदि अनेक−अनेक उपयोगी निर्माण स्वरूप लागत में बनें और जो टूटे−फूटे हो, उनका जीर्णोद्धार हो सके। सार्वजनिक स्थानों की गन्दगी इसी श्रमदान से हटाई जा सकती हैं। एक−एक मुट्ठी अनाज सा दस पैसा रचनात्मक कार्यों के लिए निकालते रहने से इस स्वल्प बचत से अनेकों स्थानीय सत्प्रवृत्तियों का संचालन हो सकता है। इस प्रकार जन−मानस का रुझान अपने दल बूते अपनी आवश्कताओं का स्वयं हल निकालने और उसके साधन स्वयं जुटाने के लिए मोड़ा जा सके तो आलस्य और व्यसनों में नष्ट होने वाला समय तथा धन अपनी धारा बदल सकता है और समृद्धि के इतने अधिक साधन सामने लाकर खड़े कर सकता है, जिसके सामने बाल−विनोद जैसी मालूम पड़ने लगें।
हमारे धर्म−प्रचारक सर्वप्रथम विचारों की दिशा स्वार्थ भरी संकीर्णता से ऊँची उठाने का प्रयत्न करेंगे। इसके उपरान्त उस परिष्कृत मनोभूमि को तत्काल सृजनात्मक प्रयोजनों में जुटा देंगे। आत्म−निर्माण, परिवार−निर्माण और समाज−निर्माण के लिए हमें पग−पग पर अनेकों काम करने है। अभी हमने सृजन के सम्बन्ध में सोचा तक नहीं—उसे करने के लिए कभी साहस एकत्रित किया नहीं, जिस दिन यह ठान ठानी जायगी कि हमें सर्वतोमुखी निर्माण करना है, उस दिन प्रतीत होगा कि हमने नये युग में प्रवेश कर लिया। सौभाग्य का सूर्य उदय हो चला और समृद्धि सम्पदा का वरदान अब−तब बरस के लिए तत्पर होकर सिर पर आ गया।
स्वास्थ्य संवर्धन के लिए आहार−बिहार का नये सिरे से निर्माण करना होगा। प्रकृति के विपरीत चलने का दुराग्रह छोड़कर सौम्य, सादगी और स्वाभाविक सात्विकता को अपनाना होगा—संयम, शीलता और नियमितता हमारी नीति होगी—बच्चों की संख्या बढ़ाने के स्थान पर उनका स्तर बढ़ाने में तत्पर होंगे। दाम्पत्य जीवन में रूप और कामुकता के विषबीज को उखाड़ कर उसे दो उसे दो सहचरों की सघन मान्यता के रूप में परिणत करेंगे।
रचनात्मक कार्यों से आगे का चरण है—संघर्ष। इसके लिए अधिक मजबूती, अधिक साहसिकता, अधिक साधन और अधिक संगठित शक्ति चाहिए। युद्ध एक कला है समय शक्ति और साधनों को देख कर ही उसे आरम्भ करना चाहिए। उतावले लोग ऐसे ही असमय लड़ मरते हैं तो पिटते और हारते हैं। हमें व्यापक अनाचार के विरुद्ध सुविस्तृत और समर्थ मोर्चा खड़ा करना ही होगा। असुरता का दमन बिना जूझे हो ही नहीं सकता। रावण, कंस, दुर्योधन, हिरण्यकश्यप, सहस्रबाहु आदि को समझाने वालों ने सारे प्रयत्न कर लिये थे पर सफल केवल संघर्ष ही हुआ। हमें जिनसे लड़ना है उन अज्ञान, अनाचार और अभाव के असुरों का छाद्मवेश बहुत ही विकराल है। वे न तो दीख पड़ते है और न सामने आते है। उनकी सत्ता भगवान की तरह व्यापक हो रही है। अज्ञान−ज्ञान की आड़ में छिप कर बैठा है, अनाचार को पकड़ना कठिन पड़ रहा है, अभावों क जो कारण समझा जाता है वस्तुतः उससे भिन्न ही होता है। ऐसी दशा में हमारी लड़ाई व्यक्तियों से नहीं—अनाचार से होगी। रोगियों को नहीं हम रोगों को मारेंगे। पत्ते तोड़ते फिरने की अपेक्षा जड़ पर कुठाराघात करेंगे।
भावी महाभारत अपने अलग ही युद्ध−कौशल से लड़ा जायगा। उसमें पिछले ढंग की रण−नीति काम न देगी। निर्हित स्वार्थों से इतने अधिक लोग ओत−प्रोत हो रहे हैं उनने लोकप्रियता की रेशमी चादर ऐसी अच्छी तरह लपेट रखी है कि उन पर व्यक्ति गत रूप से आक्रमण करते न बन पड़ेगा। हम प्रवाहों से जूझेंगे, धाराओं को मोड़ेंगे और अनाचार का विरोध करेंगे। उसके समर्थन में जो लोग होंगे वे सहज ही लपेट में आ जायेंगे और औंधे मुँह गिर कर मरेंगे।
धर्म−ध्वजी साधु पण्डितों की आड में अन्ध−विश्वास सामाजिक अनाचार छिपे बैठे है। वे पुरातनवाद का समर्थन करने के नाम पर मूढ़ताओं और अनीतियों का समर्थन संरक्षण करते है। हम व्यक्तियों पर आपेक्ष करने की अपेक्षा उन पाखण्डों की पोल खोलेंगे, जो भी उनका समर्थन करता होगा वह अपने आप जन−आक्रोश का शिकार बनेंगे और बेमौत मरेंगे। साहित्यकार बनकर जो सरस्वती से व्यभिचार कर रहे है, पशु प्रवृत्तियों को भड़का कर चाँदी बटोर रहे है, हम उनका नाम लिये बिना जनता को यह बतायेंगे कि इस अनाचार ने किस प्रकार जन−जीवन का सर्वनाश किया है जो भी उस दुष्टता में संलग्न होंगे उनका मुँह काला होगा। संगीत अभिनय, कला,चित्र और फिल्मों के सहारे जिनने पशु प्रवृत्तियाँ भड़का कर मनुष्य को पशुता के गर्त में धकेला है उस सोना बटोरने वाली लिप्सा के विरुद्ध हम घृणा का अभिमान छेड़ेंगे फिर जो कोई इस कलंक कालिमा में हाथ धो रहे होंगे कलंकियों की पंक्ति में खड़े किये जायेंगे। आज इन लोगों को जनता की अज्ञानता का लाभ लेकर श्रेय सम्मान और धन−वैभव दोनों हाथों से समेटने का अवसर है कल इन्हें सड़क पर चलना और भले लोगों की पंक्ति में सिर उठा कर चल सकना कठिन हो जायगा। हम जन−आक्रोश का ऐसा वातावरण पैदा करेंगे जहाँ भी छद्म बन कर अनाचार छिपता है उन सभी छिद्रों को बन्द करके रहेंगे।
व्यापारिक क्षेत्र में, सरकारी मशीनरी में राजनेताओं में, चिकित्सकों में शिक्षकों में यहाँ तक कि हर वर्ग में हर व्यक्ति में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अनाचार की जड़े अत्यन्त गहराई तक घुसती चली गई हैं। इनमें एक एक को चुनना सम्भव नहीं, किसी का दोष सिद्ध करना भी कठिन है ऐसी दशा में व्यक्तियों से नहीं धाराओं से हम लड़ेंगे। हर दुष्प्रवृत्ति का भण्डा−फोड़ करेंगे और वह ऐसा तीखा होगा कि सुनने वाले तिलमिला उठे और उनमें प्रवृत्त लोगों के लिए मुँह छिपाना कठिन हो जाय। जन आक्रोश ही इतने व्यापक भ्रष्टाचार से लड़ सकता है। हम उसी को उभारने में लगे हैं। समय ही बतायेगा कि हमारा संघर्ष कितना तीखा और कितना बाँका होगा। बौद्धिक क्रान्ति की—नैतिक क्रान्ति की—सामाजिक क्रान्ति की दवानल इतनी प्रचण्डता पूर्वक उभारी जायगी कि उसकी लपटें आकाश चूमने लगे। अज्ञान और अनाचार का कूड़ा करकट उसमें जलकर ही रहेगा। वानप्रस्थ मात्र प्रचार प्रयोजन के लिये ही आमन्त्रित नहीं किये गये हैं। प्रथम चरण में थोड़ी सफलता मिलते ही, जन−संपर्क को अधिक सघन और समर्थ बनाने के लिए वे रचनात्मक कार्य−क्रमों का श्री गणेश करेंगे और इसके बाद उन्हें संघर्षात्मक क्रिया−कलापों में जुटना होगा। नव−निर्माण का यह त्रिकोण मोर्चा है तीनों पर एक साथ तो नहीं—एक स्थान पर थोड़े भर जमना दूसरे
का सम्भालना यही हमारा रणकौशल है। यही अपनी क्रिया पद्धति है। उसकी सामयिक रूप−रेखा समयानुसार बनाई जाती रहेगी और परिस्थितियों को—शक्ति को तथा साधनों को ध्यान में रखकर कार्यान्वित की जाती रहेगी। कार्य−क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है इसलिए थोड़े से कार्य−क्रम लेकर नहीं चला जा सकता। विशाल लक्ष्य को विशाल साधनों और विशाल माध्यमों के साथ ही पूरा किया जायगा। सामयिक सूझ−बूझ को ऐसे महान प्रयोजनों में प्रश्रय देकर चलना पड़ता है।
हिंदू समाज में धर्म−ध्वजियों द्वारा श्रद्धालु जनता के धन तथा विवेक का शोषण जाति−पाति और छुआ−छूत के नाम पर मनुष्य−मनुष्य के बीच का दुखदायी विभेद—नर−नारी के बीच अन्याय पूर्ण बड़प्पन और लघुता, विवाह शादियों में होने वाला अपव्यय आदि कितनी ही ऐसी सामाजिक दुष्प्रवृत्तियाँ घुस पड़ी हैं जिन्हें हटाये बिना वह अपनी प्रखरता पुनः प्राप्त कर नहीं सकेगी। इसके बिना उसके लिए अपनी महान संस्कृति को विश्व−व्यापी बनाने का—मानव समाज का अध्यात्म धर्म में पुनः दीक्षित करने का अवसर मिलेगा ही नहीं। इन व्यवधानों से जूझने के लिए वानप्रस्थों की सृजन सेना को अग्रिम मोर्चे पर खड़ा किया जायगा।
युग−निर्माण योजना का आरम्भ हुआ। पिछले दिनों हिंदू समाज में विशेषतया भारतवर्ष में उसे सुविस्तृत होने का अवसर मिला। पर अब यह अभिमान उस सीमा में सीमाबद्ध नहीं रहा। उसने विश्वव्यापी रूप ग्रहण कर लिया है। सभी धर्म सभी संस्कृतियाँ, सभी देश, सभी भाषायें अब उसके कार्य−क्षेत्र की परिधि के अंतर्गत हैं। भारत से बाहर प्रायः 45 देशों में लगभग 3 करोड़ हिंदू बसे हैं।
यह पैंतालीस देश ऐसे हैं जहाँ उनकी संख्या हजारों से लेकर लाखों तक में है। जिनमें सौ से लेकर हजार तक की संख्या है उनकी संख्या भी लगभग इतनी ही होती है। अपना प्रयास यह है कि हिन्दू धर्मानुयायी प्रायः सभी भारतीय मूल के लोगों तक साँस्कृतिक पोषण पहुंचाया जाता रहे ताकि वे अपनी भाषा और संस्कृति को भूल न बैठे। इस दिशा में सुव्यवस्थित योजना के साथ कार्य आरम्भ भी कर दिया गया है। थोड़ी जड़े मजबूत हो जाने पर उन देशों के निवासियों में भी भारतीय धर्म का प्रवेश और विस्तार उसी तरह कराया जाना है जिस तरह ईसाई मिशनरी भारत तथा अन्य देशों में अपना साँस्कृतिक विस्तार करते हैं।
वानप्रस्थों को भारत के हिन्दू धर्म के−निजी में क्षेत्र में लोक−निर्माण का अभ्यास कराया जा रहा है। वस्तुतः यह उनका अनुभव वृद्धि और अभ्यास का शिक्षण काल है। जो उसमें खरे उतरेंगे और परिपक्व सिद्ध होंगे उन्हें विदेशों में भी भेजा जायेगा। आज संसार भर में अध्यात्म धर्म की प्यास है। भौतिकता के उन्माद से उत्पन्न दुष्परिणामों को मनुष्य जाति ने देख लिया है अब उसे उस स्नेह सिक्त शान्ति की प्यास है जिसे भारत द्वारा संसार भर में चिरकाल तक अमृत वर्षा की तरह बरसाया जाता रहा है। भारतीय तत्वज्ञान ही भविष्य में विश्व का दर्शन एवं धर्म होने जा रहा है। उसका प्रकाश सर्वत्र फैलाया जाना है। इसलिए अपना कार्य−क्षेत्र समस्त संसार होगा और हमारे वानप्रस्थों को उसी तरह डेरे डाल कर सुदूर देशों में पड़ना होगा जैसे ईसाई धर्म के पादरी सुदूर देशों में जा बसते हैं। बौद्ध धर्म के विस्तार भी जीवट वाले प्रचारकों ने इसी दुस्साहस को अपनाते हुए किया था। अपने वानप्रस्थों को भी उसी राह का अवलम्बन करना होगा।
हिंदू धर्म से आगे बढ़कर ईसाई धर्म, मुसलमान धर्म, बौद्ध धर्म, यहूदी धर्म, पारसी धर्म आदि संसार के प्रमुख धर्मों को भी अपने महान मिशन के लिए उपयोग किया जाना है यह कैसे होगा इसे अगले दिनों हम सब प्रत्यक्ष रूप से देखेंगे।