Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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इतना तो व्यस्त और विवश होते हुए भी करं सकते हैं
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जिनके पास अभीष्ट योग्यता, भावना और सुविधा हो उन्हें इस आपत्तिकाल में मानवता की पुकार सुनकर आगे आना चाहिए और लोभ-मोह की कीचड़ में सड़ते रहने की अपेक्षा उस आदर्शवादी महानता का वरण करना चाहिए जिसे किसी समय इस देश के प्रत्येक नागरिक द्वारा सहज स्वभाव अपनाया जाता था। परिस्थितियाँ, मनोभूमि और प्रवाह प्रचलन बदल जाने से अब इस प्रकार के कदम बढ़ाना दुस्साहस जैसा प्रतीत होता है। किसी समय, जिसमें इतनी भी जीवट न हो, उसे मृतक तुल्य माना जाता था। आज की परिस्थितियों में जो लोग वरिष्ठ अथवा क्लिष्ट वानप्रस्थ का मार्ग अपना सकेंगे विश्व मानव और विश्व-शान्ति के लिए अपना थोड़ा-बहुत भी योगदान दे सकेंगे वे बड़भागी माने जायेंगे। इस घोर अन्धकार में उन छोटे दीपकों का साहस भी भूरि-भूरि सराहने योग्य माना जायगा।
सम्भवतः इस आह्वान को प्रत्येक जीवित और जागृत आत्मा द्वारा सुनने योग्य माना जायगा। सम्भवतः बहुतों की आन्तरिक आकाँक्षा इस दिशा में कदम बढ़ाने की होगी भी किन्तु यह सम्भव है कि वे ऐसी विषम परिस्थितियों में जकड़े हुए हो कि व्यवहारतः कुछ अधिक कर सकना उनके लिए सम्भव न हो। विधि की विडम्बना विचित्र है। कुछ की परिस्थितियाँ बहुत कुछ करने योग्य होती हैं पर मन इतना गिरा मरा होता है कि आदर्शों की तरफ बढ़ने की इच्छा तक नहीं उठती। इसे विपरीत कुछ ऐसे भी होते है कि जिनका अन्तरात्मा महामानवों के चरण-चिन्हों पर चलते हुए कुछ कर गुजरने के लिए निरन्तर छटपटाता रहता है पर परिस्थितियाँ इतनी विपरीत होती हैं कि उन्हें लाँघ सकना किसी जिम्मेदार एवं कर्त्तव्य परायण व्यक्ति के लिए सम्भव ही नहीं होता वरन् उन्हें मन मसोस कर बैठना पड़ता है।
मिशन के लिए भी वह सम्भव नहीं कि वानप्रस्थ कार्यकर्त्ताओं के घर परिवार का आर्थिक उत्तरदायित्व बहन कर सके। अधिक से अधिक इतना ही सम्भव है कि कार्यकर्त्ताओं के भोजन-वस्त्र की व्यवस्था जुटाई जाती रहे। ऐसी दशा में जिन्हें घर से बाहर जाकर कार्य-क्षेत्र में कूदने की सुविधा नहीं है उन्हें स्थानीय क्षेत्र में ही प्रकाश फल का प्रयत्न करना चाहिए। सक्रिय सदस्यों और कर्मठ कार्यकर्ताओं को भी सृजन-सेना के द्वितीय मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिक माना जाता है। नियमित रूप से कुछ घण्टे अथवा समय दे सकने वाले और अपनी आजीविका का उपयुक्त अंश इस प्रयोजन के लिए लगाने वाले व्यक्ति भी अपने क्षेत्र में इतना काम कर सकते हैं जिसे अति-महत्वपूर्ण कह कर सराहा जा सके।
घर-परिवार के उत्तरदायित्वों को निवाहा जाय, साथ ही आत्मा-परमात्मा और समाज के प्रति कर्त्तव्यों का भी ध्यान रखा जाय तो अपनी क्षमताओं का सन्तुलित विभाजन किया जा सकता है। समय भी बच सकता है। साधारणतया आजीविका उपार्जन के लिए आठ घण्टे पर्याप्त होने चाहिए। सात घण्टे का आराम-विश्राम पर्याप्त है। पाँच घण्टे नित्य कर्म के लिए तथा अन्य आवश्यक कामों के लिए पर्याप्त होने चाहिए। बीस घण्टा घर परिवार में यदि मुस्तैदी और मनोयोग के साथ लगाये जा सकें तो व्यस्त समझे जाने वाले व्यक्ति भी इतने समय में अपना सारा काम फुर्ती और चुस्ती के साथ पूरा कर सकते है। घिस-घिस करते हुए आलस्य और प्रमाद में वक्त खराब करते रहें तो दिन 48 घण्टे का होने लगे तो भी काम नहीं निपटेगा अन्यथा 20 घण्टे हर दृष्टि से घरेलू कामों के लिए पर्याप्त हो सकते है।
शेष चार घण्टे बच जाते हैं उन्हें परमार्थ प्रयोजन के सर्व श्रेष्ठ माध्यम नव-निर्माण कार्य-क्रमों में लगाया जा सकता है। कोई अकेला व्यक्ति ही इतने समय में चल-पुस्तकालय का ज्ञान-रथ चलाता रह सकता है— यह नित्य कितने ही व्यक्तियों को ज्ञानदान से लाभान्वित करता रह सकता है। ऐसे अनेकों प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्यक्रम हैं जिन्हें अपनी क्षमता, योग्यता और सुविधा के अनुसार हर व्यक्ति चुन सकता है और उस परमार्थ के लिए निकाले हुए समय का उनमें उपयोग कर सकता है। इन, समय दान देने वालों को भी दूसरी पंक्ति का वानप्रस्थ ही कहा जा सकता है।
दस पैसा ज्ञानघट में जमा करना और उसका सत्साहित्य मँगा कर अपने क्षेत्र में फैलाना प्रारम्भिक सदस्य की न्यूनतम त्याग परीक्षा थी। जिनमें उच्चस्तरीय भावनाओं का जागरण हो चुका है उन्हें इतने स्वल्प अनुदान से सन्तोष न करके कुछ अधिक उदारता दिखाने की हिम्मत करनी चाहिए। घर के सदस्यों में एक सदस्य नव-निर्माण मिशन को भी मानना चाहिए। मान लीजिए अभी अपने परिवारों में पाँच सदस्य हैं एक और बच्चा हो जाय तो उसे मार तो नहीं डालेंगे—घर से निकल तो नहीं देंगे। प्रस्तुत आर्थिक-तंगी के बीच ही उसके लिए भी भोजन, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा, विवाह-शादी आदि का प्रबन्ध करना पड़ेगा। यदि यही बात मिशन के बारे में सोच ली जाय, उसे भी घर-परिवार का एक सदस्य मान लिया, तो आजीविका का उतना अंश उसके लिए भी निकाला जा सकता है, जितना कि घर के एक व्यक्ति के ऊपर खर्च होता है। यह छटवाँ-सातवाँ अंश माना जाय तो सप्ताह में एक दिन की कमाई उसके निमित्त लगाई जा सकती है। इतना न बन पड़े तो महीने में एक दिन की आमदनी खर्च करते रहने में कृपणता पर अंकुश लगने के अतिरिक्त और किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न न होगा। किसी अन्य कम महत्व के काम में कमी करके इस अनुदान का सन्तुलन बिठाया जा सकता है।
कल्पना की उड़ाने-उड़ाने और बातों के बताशे बाँटते रहने से कुछ काम बनने वाला नहीं है, हमें यथार्थवादी होना चाहिए। जहाँ लगन होगी—तड़पन होगी वहाँ कुछ कर गुजरने की आकाँक्षा भी प्रबल रहेगी। आदर्शों का परि-पालन तप, त्याग के बिना सम्भव नहीं। समय और श्रम देकर तप-साधना का और अपनी कमाई का अंश डडडड देकर पुण्य-परमार्थ कर प्रयोजन डडडड किया जा सकता है। हमें कर्मवीर होना चाहिए। हमारे विचार का क्रिया में परिणित होना चाहिए। आदर्शवादिता की त्याग-बलिदान का जमा पहनना चाहिए। उसे नंगी-उघारी रख कर उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए। कृपणता पर अंकुश लगाये बिना महानता के पथ पर कैसे चला जा सकता है? त्याग और बलिदान से डरते रहें तो जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के लिए ऊँचा कैसे उठा जा सकता है। वानप्रस्थ अग्रिम पंक्ति में खड़े हों तो उसकी दूसरी पंक्ति भी तो मजबूत होनी चाहिए। सेना को रसद और बारूद की सप्लाई न हो तो शूरवीर योद्धा भी कब तक किस तरह लड़ सकेंगे। अगले दिनों हर शाखा में—हर कार्य क्षेत्र में-विविध-विधि प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक कार्य-क्रमों का उभार आना है, उसके लिए सहयोगियों के श्रम की तथा अभीष्ट साधनों की आवश्यकता बार-बार पड़ती रहेगी। इसे कहाँ से जुटाया जाय? स्पष्ट है कि भ्रष्टाचारी समाज से हमें लड़ना है—उससे तो शत्रुता ही बनेगी। निहित स्वार्थ की मनमानी पर आघात पहुँचाने हम चले हैं तो उनसे सहयोग की आशा कैसे की जा सकती है। वे तो कर कार्य में रोड़े उत्पन्न करेंगे। श्रम और धन तो हमें अपने पेट पर पट्टी बाँध कर अथवा समय बचाकर ही पूरी करना होगा। इन दोनों साधनों को अधिकाधिक मात्रा में जुटाने के लिए हमें अपनी भावना और तत्परता को आगे लाना चाहिए। पूरी तरह जो आगे नहीं आ सकते वे कठिन परिस्थितियों में रह कर इतना कुछ तो कर ही सकते है।
थोड़े से पेन्शन पाने वाले या घर के सम्पन्न लोग ही वानप्रस्थ बनने के उपरान्त अपना खर्च आप चला सकेंगे। शेष के लिए भोजन, वस्त्र, आदि का प्रबन्ध तो जुटाना ही पड़ेगा। यह भी एक बड़ा काम और एक बड़ा खर्च है। पिछले जमाने में भिक्षा माँग कर निर्वाह चल जाता था पर अब वह प्रथा न तो सम्मान की दृष्टि से उपयुक्त पड़ती हैँ न परिस्थितियाँ ही वैसी हैं। साधु-ब्राह्मणों को दान दक्षिणा जनता देती थी वह भी हमारे वानप्रस्थों को कौन देगा? उनके शिक्षण काल में—प्रवास में—निर्वाह में-खर्च पड़ेगा ही। इसकी पूर्ति उन उदार एवं भावनाशील लोगों को करनी चाहिए जो स्वयं आगे आने की स्थिति में तो नहीं हैं पर सहयोग तो किसी न किसी प्रकार कर डडडड सकते है।