Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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एक और महत्वपूर्ण चरण−तीर्थयात्रा संयोजन
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शिविर आयोजन को एक छोटा, सामयिक एवं स्थानीय कार्यक्रम मात्र न समझा जाय, उसका दूरगामी महत्व है। ‘युग−निर्माण योजना’ के शाखा–संगठनों को अपना−अपना कार्य−क्षेत्र सँभालना है। उसमें प्रकाश, विस्तार करना है और नव−निर्माण की विविध विधि हलचलों कास सृजन करना है। इसलिए उनके कार्यकर्त्ताओं को यह सारी विधि−व्यवस्था ओर रीति−नीति समझानी है, जिसके बिना अधिक कुछ कर सकना उनके लिए सम्भव नहीं हो रहा है।
वानप्रस्थों ने जिस प्रकार साहस पूर्वक अधिक समय देने और अधिक त्याग करने के लिए साहस जुटाया है, वैसा संगठन के लाखों सक्रिय सदस्यों एवं कर्मठ कार्यकर्त्ताओं के लिए सम्भव नहीं हो सकता। यदि कदाचित् वे उतना साहस कर भी लें तो उनको एक स्थान पर इकट्ठा करके एक साथ प्रशिक्षण भी सम्भव नहीं हो सकता। यदि स्थान ओर क्रम के अनुसार उन्हें बुलाने की विधि अपनाई जाय तो सौ वर्ष में भी वर्तमान कार्यकर्त्ताओं का नम्बर न आ सकेगा। इतने भी वर्तमान सदस्यों की अपेक्षा नये सृजन−सैनिकों की संख्या और अनेक गुनी बढ़ जायगी। उन्हें सिखाने के लिए हजार वर्ष प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। इसलिए उपाय केवल एक ही है कि व्रतधारी वानप्रस्थ हरिद्वार आकर प्रशिक्षण प्राप्त करें और वे दो−दो की टोलियाँ बनाकर शाखा−संगठनों में चले जाये और वहाँ पन्द्रह−पन्द्रह दिन की शिविर−शृंखला चलायें। इस प्रकार जो कार्यकर्ता घर छोड़कर बाहर जाने की स्थिति में नहीं हैं, वे अपने स्थान पर रहते हुए भी—सामान्य कार्यों को करते हुए भी उस शिक्षा का सार घर बैठे प्राप्त कर सके, जो वानप्रस्थों को हरिद्वार बुलाकर सिखाया गया है। इस पद्धति से प्रशिक्षण की व्यापक आवश्यकता सरलता पूर्वक स्वल्प अवधि में सम्भव हो सकेगी।
शिविर−संचालन वानप्रस्थों को सामयिक एवं प्राथमिक क्रिया−कलाप है। आरम्भ में उन्हें वही सौंपा जायगा। और तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति की जायगी, पर यह क्रिया सदा−सर्वदा ही नहीं चलती रहेगी। दूसरे कार्य भी उन्हें हाथ में लेने पड़ेंगे। यों शिविरों का भी अन्त नहीं हो जायगा। शाखाएं हर वर्ष एक पन्द्रह दिवसीय आयोजन किया करें, कार्यकर्त्ताओं को क्रमिक रूप से अगली शिक्षा मिलती रहे। जनता को भी प्रथम वर्ष से आगे के विचार मिलते रहें। वानप्रस्थ हर वर्ष की नई शिक्षा−पद्धति सीख कर आते रहें और यह क्रम लगातार पाँच वर्ष तक चलता रहे, ऐसी योजना बनाई जा रही हैं। इस क्रम से इस वर्ष के शिक्षित−वानप्रस्थों को एवं अगले वर्ष वालों को अगली बातें सीखते और सिखाते चलने का लाभ मिलता रहेगा। पाँच वर्ष तक यह शिविर−शृंखला हर शाखा चला भी सकती है ओर उनमें भेजे गये वानप्रस्थों का उपयोग हो सकता है। पीछे शाखाएँ स्वावलम्बी होकर अपने बल−बूते पन्द्रह दिन के या न्यूनाधिक दिनों के अपने वार्षिकोत्सव मनाती रह सकती है। प्रचार−कार्य तो निरन्तर ही जारी रखना होगा। अन्यथा भुलक्कड़ जनता एक बार बताई गई बात को सदा कहाँ स्मरण रख पावेगी?
शिविर−संचालन प्रक्रिया के अतिरिक्त दूसरा जो कार्य वानप्रस्थों को हाथ में लेना है, वह है—तीर्थयात्रा आयोजन की तैयारी। जत्थे बनाकर प्रचार−कार्य करते हुए एक निर्धारित लक्ष्य तक जाना और फिर दूसरे रास्ते लौट आना, यह तीर्थयात्रा हुई। प्राचीन काल में लोग समूह बनाकर पैदल तीर्थयात्रा पर निकलते थे− जन–संपर्क बनाते थे। रास्ते में आने वाले गाँव−नगरों में सन्देश सुनाते थे और रात्रि को जहाँ बसते थे, वहाँ के लोगों को इकट्ठा करके धर्मोत्साह पैदा करते थे। जब पुनः उस पुण्य परम्परा का पुनर्जागरण करना हे। विचार−क्रान्ति की दिशा में इससे एक नई धारा बहेगी। जन−जागरण का एक नया स्त्रोत खुलेगा। वानप्रस्थ यह प्रयत्न करेंगे कि वे क्षेत्र−क्षेत्र में तीर्थयात्राओं की योजनाएँ बनायें। सामान्यता उन्हें भी पन्द्रह दिन की ही रखा जा सकता है। इन दिन दस मील सन्त विनोबा की भूदान पद यात्रा चलती थी। यह दूरी साधारणतया ठीक है। यों उसे आवश्यकतानुसार न्यूनाधिक भी किया जा सकता है। सामान्यता एक यात्रा में पाँच से लेकर दस सदस्य तक हो सकते हैं। सभी पीत−वस्त्र धारण करके चले और उस अवधि को सामयिक वानप्रस्थ प्रशिक्षण स्तर की मानें।
रास्ते में टोली को आत्म−निर्माण और समाज−निर्माण की आवश्यक शिक्षा वानप्रस्थ लोग देते चलेंगे। जहाँ थोड़ा विश्राम किया जाय, वही कुछ प्रश्नोत्तर होते रहे। जहाँ कोई महत्वपूर्ण स्थान एवं ऐतिहासिक स्थल आवे, वहाँ उसके विषय में चर्चा होती चले। रास्ते के गाँवों में पोस्टर चिपकाने की—विज्ञप्ति वितरण की—दीवारों पर वाक्य−लेखन की प्रक्रिया चलती रहे। रात को जहाँ पड़ाव पड़ना हो, वहाँ ठहरने की, भोजन की तथा आयोजन की व्यवस्था बनाने के लिए दो अग्र दूत एक दिन पहले ही वहाँ पहुँच जाया करें। यात्रा आरम्भ करने से पूर्व ही उस तरह की तैयारी करली जाय और उन स्थानों के लोगों पर उत्तरदायित्व सौंप दिया जाय तो और भी अधिक सुविधा रह सकती है। अन्यथा एक दिन पहले यात्रा के दो अग्रदूत पड़ाव पर जाकर आवश्यक व्यवस्था कर सकते हैं। वे अग्रदूत आगे−आगे ही चलते रहेंगे और जत्थे के वहाँ पहुँचने तक आवश्यक साधन बने मिलें ऐसा होता रह सकता है।
यात्रा किस स्थान तक, किस मार्ग, से, कहाँ−कहाँ होकर जानी है? पड़ाव कहाँ पड़ने हैं। लौटना रास्ते से है? यह रूपरेखा पहले ही बन जानी चाहिए। उसके लिए प्रचार, विज्ञापन आदि भी छपाये जा सकते हैं। ताकि उन स्थानों की जनता को इस आगमन−आयोजन का पूर्व ज्ञान रहे वह उसे सफल बनाने में अपने योगदान की पूर्व तैयारी कर सकें। जिस स्थान तक पहुँचना है, वह यदि कोई धार्मिक या ऐतिहासिक स्थान हो तो और भी उत्तम है। उस स्थान पर श्रद्धाञ्जलि अर्पित करना इस तीर्थयात्रा की टोली का लक्ष्य हो सकता है। यात्रा का नामकरण भी आधार पर किया जा सकता है। इससे उन विस्मृत आधारों के सम्बन्ध में जन−भावना का जागरण भी होगा, जिनमें कतिपय महत्वपूर्ण प्रेरणाएँ विद्यमान थीं।
यों ऐसी टोलियाँ अपना आवश्यक सामान साथ ले चलने के लिए साइकिलों का भी उपयोग कर सकती हैं। अच्छा यह हो कि हाथ की धकेल−गाड़ी या बैल−गाड़ी का प्रबन्ध कर लिया जाय। हाथ−गाड़ी स्वयं धकेलते हुए ले जाई जा सकती है। बैलगाड़ी किराये पर मिल सकती है। पर स्थान से दूसरे स्थान तक सामान पहुँचाने की व्यवस्था हर जगह हो सकें तो और भी अच्छा है। जो भी तरीका उपयुक्त हो उसका उपयोग करके ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि बिस्तर, कपड़े, प्रचार−साधन आदि एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचते रहें। अपने−आप मिलजुलकर बनाने−खाने का प्रबन्ध भी साथ रखा जाना चाहिए। बाजार से खाने या स्थानीय लोगों पर भार पड़ने का अवसर कम ही आने देना चाहिए। जहाँ श्रद्धापूर्वक स्वागत−व्यवस्था की गई हो, वहाँ की बात अलग हैं। पर प्रबन्ध अपना भी रहना ही चाहिए, ताकि नियमित ओर शुद्ध भोजन अपना भी रहना ही चाहिए, ताकि नियमित ओर शुद्ध भोजन समय पर प्राप्त करने में असुविधा न हो। यह सब वस्तुएँ ले जाने के लिए किसी गाड़ी आदि का प्रबन्ध करना ही उपयुक्त रहता है। यात्रा−व्यय के लिए आवश्यक धन−राशि भी मिल−जुलकर ही जुटा लेनी चाहिए।
पड़ाव के स्थान पर रात्रि को सामूहिक कीर्तन और प्रवचन होने आवश्यक हैं। इसकी जनता को जानकारी शंख,घड़ियाल बजाकर उस दिन सवेरे से ही मिलती रहे, इसका पूर्व प्रबन्ध कर देना चाहिए। यह कार्य−व्यवस्था के लिए गये हुए अग्रदूत भी कर सकते हैं। जहाँ सम्भव हो, वहाँ दूसरे दिन प्रातः छोटा गायत्री −यज्ञ भी करना चाहिए। रात्रि के प्रवचन में आई हुई जनता को इसमें सम्मिलित होने की सूचना दी जा सकती है। प्रवचन और कीर्तन की बात न बन पड़े और स्लाइड प्रोजेक्टर साथ में हों−दिखाने के लिए अन्धेरे स्थान का प्रबन्ध हो तो रंगीन प्रकाश−चित्र दिखाते हुए प्रवचन करने की व्यवस्था बन सकती हैं। टोली में यदि गीत−संगीत की व्यवस्था हो तो गायनों के साथ थोड़ा−थोड़ा समझाने वाला प्रवचन जोड़ते चलने से भी काम चल सकता हे। इस प्रकार हर पड़ाव की व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। सवेरे 8−9 बजे तक यज्ञ कर लिया जाय तो दस मील की यात्रा इसके बाद भी शाम तक पूरी हो सकती हे। इस प्रकार रात्रि को प्रवचन ओर प्रातः यज्ञ का दुहरा कार्यक्रम भी इस यात्रा में चलता रह सकता है। यदि दस मील भारी पड़ते हों तो उसे कुछ कम भी किया जा सकता है, ताकि प्रातः 9 से लेकर सायं 3 बजे तक छै घण्टे में उसे और भी आसानी से पूरा किया जा सके।
यह केवल संकेत हैं—उन्हें ध्यान में रखकर तीर्थयात्रा की तैयारी, रूपरेखा, विधि व्यवस्था अपने ढंग से बनाई जा सकती हे। हर जगह स्थिति एक जैसी नहीं होती, इसलिए कार्य−पद्धति एवं योजना में भी हेर−फेर की गुंजाइश रहेगी ही। यदि अवकाश हो और पड़ाव के स्थानों में उत्साह हो तो दो−दो दिन के कार्यक्रम रखे जा सकते हैं। दो दिन में तो एक अच्छा−खासा समारोह हो सकता है। यज्ञ−मण्डप तथा अन्यान्य उपकरण साथ में हों तो ‘पञ्च कुण्डी यज्ञ’ भी बड़े उत्साह के साथ हर पड़ाव पर होते रह सकते हैं। ऐसी दशा में अग्रदूतों की संख्या और योग्यता बढ़ी−चढ़ी होनी चाहिए, ताकि आवश्यक प्रबन्ध पहले से ही पूरे कर लिये जायें और मण्डली जब उस गाँव में प्रवेश करें तो उसकी शोभा−यात्रा एवं महिलाओं के मंगल−कलशों को जल−यात्रा की धूमधाम से निकाला जा सके। इससे आवश्यक प्रचार हो जाता है।—उत्साह उमड़ता है और आयोजन होंगे, वहाँ नया शाखा−संगठन खड़ा होना और जन−जागृति का नया श्रीगणेश होना स्वाभाविक है। जहाँ ऐसी सम्भावनाएँ दिखाई पड़ती हों, वहाँ दो−दो दिन के पड़ाव डाले जा सकते हैं। समय कम होगा तो आयोजन कम होंगे। अधिक आयोजन करने हों तो यात्रा की अवधि बढ़ानी चाहिए। यह सब बातें उस यात्रा के संचालकों की सूझबूझ, परिस्थिति एवं उस क्षेत्र के साथ परिचय, प्रभाव कितना है—लोगों का स्तर कैसा है? इन सब बातों पर निर्भर है। वानप्रस्थों को शिविर−संचालन के अतिरिक्त इस प्रकार की तीर्थ−यात्राओं का भी अनुभव, अभ्यास बढ़ाना चाहिए। शिविर तो वही हो सकते हैं, जहाँ पहले से समर्थ शाखा संगठन मौजूद हैं। यह तो आमन्त्रण पर जा विराजना हुआ। इन शिविरों का श्रेय स्थानीय शाखा−संचालकों को है। वानप्रस्थों की प्रतिभा इस कसौटी पर कसी जायगी कि जहाँ पहले से कुछ नहीं था, वहाँ अपने मनोयोग एवं पुरुषार्थ का उपयोग करके कुछ नया कार्य आरम्भ किया—कोई नया क्षेत्र प्रभावित किया। अस्तु वानप्रस्थों की टोलियों को यह प्रयत्न करना चाहिए कि तीर्थ−यात्रियों की टोलियों में चलने के लिए ऐसे सुयोग्य व्यक्ति मिल जायँ, जो जन−जागरण में किसी न किसी प्रकार सहायता कर सकें। कूड़ा बटोर कर निरर्थक भार उठाने की चिन्ह−पूजा से यात्रा−प्रवास का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए मण्डली में उपयुक्त व्यक्ति ही सम्मिलित करने चाहिए।
यात्रा की अवधि, गन्तव्य स्थान,पड़ावों की रूपरेखा, पहले से जाकर वहाँ के लोगों का सहयोग सम्पादन, आवश्यक प्रचार, एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान ले जाने का प्रबन्ध, समय और कार्यक्रम का निर्धारण,अर्थ−व्यवस्था, आवश्यक साधनों का जुटाना आदि अनेक कार्य ऐसे हैं, जिन्हें समय से पहले ही जुटाना पड़ता है। सबके पीतवस्त्र, हाथ में लाल मशाल के झंडे रास्ते में पड़ने वाले गाँवों में शंख−घड़ियाल के सहारे लोगों को इकट्ठा करना और मिशन का संक्षिप्त परिचय देना, दीवारों पर आदर्शवाक्य लिखना आदि कार्य ऐसे हैं, जिनकी पूरी रूपरेखा सामने होगी तो ही तीर्थयात्रा प्रभावशाली बनेगी। नित्य कपड़े धोने−सुखाने,भोजन बनाने−खाने जैसे कार्य लगते तो छोटे है, पर उनके साथ ऐसी छोटी−छोटी बातें जुड़ी रहती हैं, जिनका यदि पहले से ही ध्यान न रखा जाय तो बनी बनाई बात बिगड़ जाती है और हड़बड़ी में सबका सन्तुलन बिगड़ता है। अस्तु तीर्थयात्रा संयोजकों को एक युद्धसंचालक के स्तर की सूझ−बूझ का परिचय देना पड़ता है। निस्सन्देह यह प्रचार−यात्राएँ अतीव प्रेरणाप्रद सिद्ध होगी, पर साथ ही संयोजकों की कुशलता भी पूरी तरह कसौटी पर कसी जायगी, जिसे खरी ही उतरना चाहिए।