Magazine - Year 1974 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राचीन भारत की महान् प्रगति का मूलभूत आधार
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प्राचीन भारत की सर्वतोमुखी प्रगति का विवरण परिचय जब पढ़ते सुनते हैं तब इस बात का आश्चर्य होता है कि उन दिनों जबकि साधनों का भारी अभाव था किस आधार पर लोग इतने आगे बढ़ सके होंगे—ऊँचे उठ सके होंगे। उन दिनों मशीनों का आविष्कार नहीं हुआ था, बिजली, भाप जैसे शक्ति स्रोत भी हाथ में नहीं आये थे यात्रा के लिए न सड़कें थीं न फुल न आज जैसे वाहन—शिक्षा संस्थाऐं भी गाँव−गाँव कहाँ थीं? प्रेस न होने से हस्तलिखित पुस्तकें जिस−तिस के पास ही थीं, और बहुत महँगी थीं। डाक, तार,टेलीफोन, रेडियो जैसी सुविधाओं का अभाव था। नहरें, बाँध, विद्युत कूप जैसे सिंचाई के साधन भी नहीं थे। सुरक्षा के लिए भुजबल पर ही निर्भर रहना पड़ता था। तीर, तलवार जैसे वे ही अस्त्र−शस्त्र थे, जिन्हें कोई बलिष्ठ व्यक्ति ही उठा,चला सकता था। बन्दूक,तोप, बम, मशीनगन, डायनामाइट मिसाइलें जैसी तकनीकी सैन्य−सज्जा भी उन दिनों कहाँ थी? साधनों की दृष्टि से निस्सन्देह पुरातन−काल बहुत पिछड़ा हुआ था। फिर भी प्रगति का इतना उच्च स्तर—जिसे देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है, किसी रहस्यमय आधार पर ही सम्भव हुआ होगा।
उन दिनों अपना देश स्वर्ग−सम्पदाओं का स्वामी था। कोलम्बस इस सोने की चिड़िया को तलाश करने निकला था। यहाँ पहुँचने का सीधा, सरल रास्ता तलाश कर रहा था, पर वह जा पहुँचा—अमेरिका। सोरोपीयन जातियाँ भारत से जो पाना चाहती थीं, वह उन्हें अमेरिका महाद्वीप से मिल गया। इससे पहले का इतिहास बताता है कि यहाँ के निवासियों ने विश्व के कोने−कोने तक जाकर कृषि, उद्योग, शिल्प, चिकित्सा, शिक्षा आदि के वे आधार सिखाये, जिनके आधार पर अर्थ−उपार्जन एवं सुविधा−साधनों का अभिवर्धन सम्भव हो सके। न्याय, शासन, सामाजिकता, धर्म आदि की उन पद्धतियों का ज्ञान कराया, जिनके सहारे सुख−शान्ति के साथ जिया जा सकता है। शासन−सूत्र के संचालन का बोध समस्त संसार को कराने के कारण भारत ‘चक्रवर्ती’ कहलाया। उसके कारण विश्व में संपन्नता का उदय हुआ, इसलिए वह स्वर्ण−सम्पदाओं का अधिपति माना गया। ज्ञान विज्ञान की अनेकानेक धाराओं से सुंदर देशों को अवगत कराने के कारण उसे जगद्गुरु का श्रद्धासिक्त सम्मान दिया गया। अपनी अगणित दिव्य विशेषताओं के कारण भारतवासी समस्त संसार में ‘देव’ कहलाते थे। वृहत्तर भारत की जन−गणना 33 कोटि थी। भारत−भूमि को देव भूमि कहा जाता था। वह प्रत्येक दृष्टि से ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ थी। उसमें रहने वालों को पृथ्वी के देवता कहा जाता था। 33 कोटि भूसुरों की निवास−स्थली ‘भारत−माता’ मानव−जाति के लिए परम पावन तीर्थ−भूमि थी। इस धरती का दर्शन करने जो आ पाते थे, वे अपने को धन्य मानते थे।
आज के अनेकानेक सुविधा−साधनों के करतलगत होते हुए भी मनुष्य का वैयक्तिक क और सामूहिक जीवन दिन−दिन जटिल और विपन्न होता चला जाता है। जब कि प्राचीनकाल में नगण्य साधनों से इस देश के निवासी न केवल स्वयं सुख−शान्ति से रहने थे—समुन्नत स्तर तक जा पहुँचे थे, वरन् विश्व के कोने−कोने में कारण क्या हो सकता है? इस पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने से एक ही बात उभर कर आती है कि उन दिनों मानवी−व्यक्तित्व को ऐसे जीवन्त−यन्त्र के रूप में विकसित किया गया था, जिसमें आदर्शवादिता और परामर्श−परायणता कूट−कूट भरी हुई थी। उसे भावनाशील बनाया गया था। साहस और पराक्रम उनमें हिलोरे लेता था। निकृष्टता और क्षुद्रता से उसे घोर घृणा थी। लिप्सा और लालसाओं की संकीर्ण स्वार्थपरता को उसने पद−दलित किया था। त्रिविध ऐषणाओं को जीती था और पेट− प्रजनन के लिए जीवित रहने की पशुता को, संकीर्ण−स्वार्थपरता की जीवन−नीति बनाने से स्पष्ट इन्कार कर दिया था। इस प्रकार के व्यक्तित्व असाधारण रूप से शक्ति शाली होते हैं। महामानवों की सामर्थ्य का तुलना— विशालकाय और प्रचंड शक्ति शाली यंत्रों से भी नहीं की जा सकती। वे सोने के पर्वत से भी अधिक मूल्यवान होते हैं। वे जिधर भी बढ़ते हैं—तूफान उठाते हैं। वे जहाँ भी पैर रखते हैं—जमीन धँसाते हैं। वे जो भी संकल्प करते हैं— उसे पूरा करते रहते हैं। मनस्वी और तपस्वी मनुष्य से बढ़कर और कोई ऊँचा शक्ति −स्रोत इस धरती पर है ही नहीं। जब ऐसे नर−रत्न घर−घर में उत्पन्न होते होंगे तो सहज ही इस देश की भूमि “स्वर्गादपि गरीयसी” रही होगी, तब तो निश्चय ही यहाँ नागरिक देवोपम गौरवशाली माने जाते रहे होंगे—तो अवश्य ही उनने अपना देश समुन्नत स्थिति तक पहुँचाया होगा और वे जहाँ भी नये होंगे, वहाँ प्रगति और समृद्धि का बसन्त लहलहाया होगा।
यदि साधनों की उन्नति को सुख−शान्ति का माध्यम माने तो आज हमें भूतकाल की तुलना में हर दृष्टि से आगे होना चाहिए था। आज के अर्थशास्त्री प्रायः यही रट लगाते है कि धन का अभाव पतन का हेतु है और संपत्ति होने पर उन्नति होती है। साम्यवादी दार्शनिक निरन्तर इसी तर्क को दुहराते हैं, वे पतन को गरीबी से जोड़ते हैं और प्रगति के लिए अधिकाधिक सुविधा−साधनों के संवर्धन पर जोर देते हैं। यदि यह बात सही रही होती तो अमेरिका जैसे धनी एवं साधन सम्पन्न देशों के नागरिक देवोपम जीवन जी रहे होते, पर वास्तविकता इससे सर्वथा विपरीत है। वे अपनी आन्तरिक विशेषतायें बेतरह गँवा कर हर दृष्टि से खोखले होते चले जा रहे हैं। निर्धनता से भी महँगी पड़ रही है—उन्हें वह सम्पन्नता। यदि धन ही प्रगति का कारण रहा होता तो कोपीनधारी पर्णकुटीरों में रहने वाले ऋषियों से अधिक कोई दुखी न होता और सम्पन्न लोगों में सन्तोष देखने को न मिलता। अस्तु यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि प्राचीनकाल की सम्पन्नता—उत्थान का कारण रही होगी और आज निर्धनता के कारण हम सब पतनोन्मुख हो रहे हैं।
इसी प्रकार यह कहना भी गलत है कि चरित्र−निष्ठा का मार्ग−दर्शन न मिलने से लोग पतनोन्मुख होते हैं। प्राचीनकाल में प्रेस नहीं था।—हस्त−लिखित पुस्तकें जिस−तिस के पास थीं और उनका मूल्य अधिक था हर कोई उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता था। शिक्षा का प्रसार भी उतना नहीं था। अब हर स्तर का साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। यह ठीक है कि पतनोन्मुख साहित्य आँधी−तूफान की तरह बढ़ा है, पर इन्कार इस बात से भी नहीं किया जा सकता कि प्रेरक−साहित्य का सर्वथा अभाव नहीं जो चाहे उसे भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त कर सकता है। यही बात उपदेशकों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। कला−मंच पर कब्जा करके पतन ने निर्लज्ज स्वेच्छाचार का खुलकर समर्थन किया। और उसके फलस्वरूप जनमानस में विनाशकारी दुष्प्रवृत्तियों को आश्रय मिला है, यह नग्न, सत्य और स्पष्ट तथ्य है। पर यह कहते भी नहीं बनता कि सदुपदेश देने वाली वाणी सर्वथा मौन है। सभा−सम्मेलनों में आये दिन सदाचरण के पक्ष में बहुत कुछ कहा जाता रहता है। रेडियो से भी कितने ही प्रेरक प्रवचन प्रसारित होते रहते हैं। कथा−प्रवचन करने वाले दिन−दूने, रात−चौगुने बढ़ते चले जा रहे हैं। धर्मोपदेशों की बाढ़−सी आती दीखती है। इस सबको जोड़ा जाय तो सदाचरण के पक्ष में होने वाले प्रवचनों को नगण्य नहीं ठहराया जा सकता। यदि शच हो तो ऐसे प्रेरक−प्रसंग भी पर्याप्त मात्रा में सुनने को मिलते रह सकते हैं—जो सज्जनता की राह पर चलने की प्रेरणा दे सकते हैं।
लेखनी और वाणी को व्यक्ति −निर्माण का माध्यम माना जाता है। यह भी है, यह दोनों माध्यम मनुष्य के मस्तिष्क को झकझोरते हैं और उसे दिशा प्रदान करते हैं। इनकी शक्ति से इन्कार नहीं किया जा सकता। इतने पर भी यह प्रश्न तो यथा−स्थान बना ही रहता है कि जब आज लेखनी और वाणी उत्कृष्टता का समर्थन करने में सर्वथा मौन नहीं हुई है तो फिर जन−समाज का स्तर इस द्रुतगति से पतनोन्मुख होता क्यों चला जा रहा है? शील और सदाचरण मखौल की वस्तु क्यों बन रहे हैं? धर्मोपदेशक भी अधर्म−आचरण के साथ क्यों चिपके हुए हैं?
इस प्रश्न का समाधान एक ही है कि मनुष्य का मस्तिष्क भर लेखनी वाणी प्रभावित करती है, उसका अन्तःकरण स्पर्श करने की शक्ति आदर्श के आचरणों में ढालने वाले महामानवों ही होती है। जन−मानस को ऊँचा उठाने में, व्यक्तित्वों को परिष्कृत बनाने में केवल वे ही समर्थ होते है। आज उनकी ही भारी कमी पड़ रही है। भौतिक प्रयोजनों के संदर्भ में लेखनी और वाणी का महत्व असंदिग्ध है। स्कूल−कालेजों का समस्त प्रशिक्षण इन्हीं दो माध्यमों से चल रहा है। तर्क, तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत करके पिछले विचारों को सुधारने और नई मान्यताऐं बनाने का अवसर मिलता है। ऐसा मस्तिष्क को झकझोरने वाला बहुत कुछ क्रियाकलाप, लेखनी और वाणी ही सम्पन्न करती है। विचार−शक्ति का अपना स्थान है और अपना महत्व। उसकी शक्ति उपयोगिता और आवश्यकता से कोई कैसे इन्कार करेगा?
किन्तु जहाँ तक व्यक्तित्वों को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने की आवश्यकता का प्रश्न है, वहाँ यही तथ्य सामने आ खड़ा होगा कि आदर्शों को अपने जीवन में उतारने वाले व्यक्ति ही दूसरों को अनुकरण की, अनुगमन की प्रेरणा देकर उन्हें ऊँचा उठा सकने में, आगे बढ़ा सकने में समर्थ हो सकते है। प्राचीनकाल में यह प्रयोजन साधुसंस्था पूरा करती थी। उसके सदस्य सर्वसाधारण के सामने यह आदर्श प्रस्तुत करते थे कि परमार्थ−परायण जीवन न तो कष्ट कर है, न असुविधा−जनक, न असम्भव, न अव्यावहारिक। वरन् थोड़ी शारीरिक असुविधा सहने पर जो मानसिक एवं आत्मिक लाभ मिलता है, वह इतना बहुमूल्य है कि उसे प्राप्त करने के लिए यत्किंचित असुविधा उठाना बाल− विनोद जैसा तुच्छ समझा जा सकता है। सन्त आदर्शवादी जीवन जीते थे। उनके प्रति जन−मानस में जो सहज श्रद्धा उमड़ती थी, वह उन महामानवों द्वारा दी गई उत्कृष्टतावादी प्रेरणाओं को आत्मसात करने की पृष्ठभूमि बनाती थी। लोग उनके उपदेशों को मखौल नहीं मानते थे। मनोरञ्जन के लिए नहीं सुनते थे और न वक्तृत्व−कला के आधार पर निन्दा−प्रशंसा करते थे, वरन् आदर्शवादी महामानवों के वचन शास्त्र−मन्तव्यों की तरह श्रुति−प्रतिपादन की तरह हृदयंगम किये जाते थे। प्रवचन आप्त−वचन होते थे, उनका अनुसरण करने में हर व्यक्ति को अपना परम कल्याण प्रतीत होता था। यह साधुसंस्था ही थी, जिसने जन−मानस को आदर्शवादिता की प्रेरणाओं से प्रभावित करने और उत्कृष्टता की राह पर चलने के लिए बाध्य कर दिया था। जन्मजात पतनोन्मुख नर−पशु की दुष्प्रवृत्तियों को देवोपम उत्कृष्टता में बदलने का श्रेय भारत की साधु−संस्था को ही दिया जा सकता है। उसने दीपक की तरह स्वयं जलकर जो प्रकाश उत्पन्न किया, उसी से भारत का लोक−मानस दिव्य आलोक से लगमगाया। उसी ने नर नारायण के दर्शन सम्भव किये, उसी ने पशु को देवता में बदला। यही है, वह रहस्य—जिसके कारण इस देश के प्रत्येक नागरिक का व्यक्तित्व उच्चतम स्तर तक विकसित हुआ और उसने न केवल अपने देश को, वरन समस्त विश्व को सतयुगी सुख−शान्ति का रसास्वादन कराया।
साधु−संस्था के दो वर्ग थे, एक गृहस्थ अर्थात् ब्राह्मण एक सीमित क्षेत्र में रहकर वहाँ का पौरोहित्य धर्म नेतृत्व करने वाले। दूसरे विरक्त —जिन्हें परिव्राजक रहकर सुदूर क्षेत्रों की यात्राऐं करनी होती थीं और अपना सेवा क्षेत्र सुविस्तृत रखना पड़ता था। ब्राह्मण और साधु दानों ही साधु−संस्था के परस्पर पूरक अंग थे। दानों के कार्य क्रम में थोड़ा अन्तर था पर लक्ष्य पूर्णरूपेण एक ही था—लोक−मानस को उत्कृष्टतम बनाये रहने के लिए अपने ढंग से अथक एवं अनवरत रूप से उत्कृष्ट प्रयास करना प्राचीनकाल में यह साधु−संस्था उच्चस्तर पर पहुँची हुई थी, उसी ने जन−साधारण के व्यक्तित्वों को ऊँचा उठाया था और उस उत्कर्ष के आधार पर ही वह सब सम्भव हो रहा, जिसका हम आज भी गर्वोन्नत मस्तिष्क में स्मरण करते है।