Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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अतीन्द्रिय क्षमताएँ अभ्यास की देन
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परामनोविज्ञान की वर्तमान शोधों में अध्यात्म रहस्यवाद के कुछ ही तथ्यों तक पहुँच सम्भव हो सकी है। क्लेयरवायन्स (अतीन्द्रिय ज्ञान) टेलीपैथी (विचार सम्प्रेषण) फ्रीकॉगनीशन (पूर्वाभास) साइकोकाइनेसिस (प्राणियों तथा पदार्थों को प्रभावित करना) इनके अतिरिक्त अब पुनर्जन्म की मान्यता को भी उसमें सम्मिलित कर लिया गया है।
वैज्ञानिक क्षेत्रों में मानवी चेतना को शरीर तंत्र पर आधारित और उसी की परिधि में ज्ञान सम्पादन तथा कार्य संलग्न रहने की बात कही और समझी जाती रही है पर अब यह प्रतीत हो रहा है कि अतीन्द्रिय क्षमताओं के जो प्रमाण उपलब्ध हो रहे हैं, उन्हें झुठलाया कैसे जाय? और यदि झुठलाया नहीं जाता तो यह संगति कैसे बैठे कि चेतना शरीर के माध्यम से काम करती और उसी परिधि में सीमित रहती है।
मस्तिष्क विद्या के निष्णान्तों ने इस सन्दर्भ में कुछ अपने ढंग से सोचा है। पिनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों के स्राव एड्रीनल को प्रभावित करते हैं। उन प्रभावों से मस्तिष्क का हाइपोथेलेमस भाग उत्तेजित होता है और अचेतन मन को उन्मुक्त रूप से काम करने का अवसर प्रदान करता है। सामान्य स्थिति में वह सचेतन के प्रभाव से दबा रहता है और शरीर यात्रा के स्वसंचालित समझे जाने वाले क्रिया-कलापों का ही ताना-बाना बुनता रहता है। किन्तु उस पर से सचेतन का दबाव हट सके तो अचेतन की रहस्यमयी गतिविधियों को विशेष काम करने का अवसर मिल सकता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं का स्रोत अचेतन पक्ष है।
सचेतन को शान्त सीमित एवं मूर्छित करने की साधनाएँ ध्यानयोग कहलाती हैं। उसके कितने ही प्रयोग ऐसे हैं जो सचेतन को शान्त और अचेतन को उत्साहित करने का दुहरा प्रयोजन पूरा कर सके। यह स्थिति जिसमें जितनी मात्रा में बन पड़ती है वह अतीन्द्रिय क्षेत्र की प्रगति में उतना ही अधिक सफल हो सकता है।
इतने पर भी यह प्रश्न यथावत् बना रहता है कि गुह्य विद्या प्रसंगों में शरीरगत चेतना का ही विकास हुआ अथवा इसके अतिरिक्त किसी स्वतंत्र आत्म सत्ता की सिद्धि हुई?
एक्स्ट्रा सेंसरी परसेप्सन (अतीन्द्रिय क्षमता) यदि शरीरगत है तो इससे आत्मा की स्वतंत्र सत्ता कहाँ सिद्ध हुई और इसके बिना अध्यात्मवाद के सिद्धान्त का समर्थन कहाँ हुआ? दूर-दर्शन, दूर-प्रवण, दूर-आश्वादन, दूर-स्पर्शन जैसी अनुभूतियाँ इन्द्रिय चेतना का क्षेत्र विस्तार मात्र है। सामान्य स्थिति में इन्द्रियाँ एक सीमित क्षेत्र में काम कर पाती हैं जबकि अतीन्द्रिय स्तर के अभ्यासों में उनका कार्यक्षेत्र बढ़ जाता है। खुली आँखें साधारणतया मध्यवर्ती आकार एवं दूरी को ही देख सकती है, पर वे माइक्रोस्कोप के सहारे ऐसा भी देख सकती हैं जो खुली आँखों से नहीं देखा जा सकता है। यही बात टेलिस्कोप के सम्बन्ध में भी है वे इतनी दूरी तक देख सकती हैं, जितना कि सामान्यतया दीख नहीं पड़ता। यह कृत्य आये दिन होते रहते हैं, इन्हें अध्यात्म कैसे माना जाय? और उससे आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व की सिद्धि कैसे हो?
बौद्धिक प्रखरता के आधार पर लोग ऐसे अनुमान लगा लेते हैं जिन्हें अदृश्य, अश्रुत, अघटित स्तर का कहा जा सके। किन्तु विलक्षण प्रतिभाएँ ऐसे अनुमान लगाती और निष्कर्षों पर पहुँचती देखी गई हैं जिन्हें दिव्य ज्ञान कहा जा सके। फलित ज्योतिष वाले ऐसे ही तर तुक्के बिठाते रहते हैं जिनमें से अधिकाँश अनायास ही ठीक बैठ जाते हैं। परामनोविज्ञान की पूर्वाभास शाखा के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कुछ सोचा जा सकता है।
सन् 1851 में फारस निवासी सुलैमान सौदागर भारत आये थे। उनने अपने संस्मरणों में कितनी ही अद्भुत घटनाओं का वर्णन किया है उनने प्रयाग कुम्भ मेले में आकर्षण का केन्द्र बने हुए एक साधु का वर्णन किया है जो निरन्तर खुली आँखों से सूर्य की ओर देखता रहता था। उनके लिए भी यह एक अजूबा ही था।
अनेक देशी-विदेशी पर्यटकों ने हिमालय के स्वामी रामानन्द अवधूत के सम्बन्ध में लिखा है कि वे सूर्य पर घण्टों खुली आँख से त्राटक करते थे। सौ वर्ष से अधिक आयु के थे और शरीर की दृष्टि से कुछ भारी होते हुए भी निरोग थे। सदा निर्वस्त्र रहते थे।
अंग्रेज इतिहासकार विसेन्ट पर्ल ने अपने ग्रन्थ “रिलीजस हिस्ट्री आफ इण्डिया” में उज्जैन कुम्भ के अवसर पर आये एक हठयोगी का विवरण लिखा है- वे बिलकुल नंगे रहते थे। अपने पतले शरीर को गुब्बारे की तरह फुलाकर कई गुना कर लेते थे लोहे की मोटी छड़ को उन्होंने हाथों से मोड़कर दिखाया। गुप्तेन्द्रिय को बढ़ाकर दो फुट लम्बा कर दिखाया। “शरीर सम्बन्धी ये कौतुक ही उनकी दृष्टि में आत्म-शक्ति का चमत्कार था लेकिन अध्यात्म विज्ञान की दृष्टि से इनको महत्व नहीं दिया जा सकता।
परामनोविज्ञान क्षेत्र में पिछले दिनों संसार की कितनी ही संस्थानों ने महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। “प्रोसीडिग्स आफ दि सोसाइटी फार सायफिकल रिसर्च एवं फाउन्डेशन फार रिसर्च इन टू दि नेचर आफ मैन” संस्थानों ने जो कार्य किये हैं उनके प्रमाणों और निष्कर्षों का समय-समय पर प्रकाशन होता रहा है। इनसे सिद्ध होता है कि मनुष्य की क्षमता उतनी ही नहीं है जितनी कि कार्यों से प्रकट होती है। मस्तिष्कीय प्रभाव आमतौर से सोच विचार में कल्पना एवं निर्णय में काम आता दीखता है। इतने पर भी परिधि इतनी छोटी भर मान बैठना ठीक नहीं।
सन् 1882 से लेकर अब तक के सौ वर्षों में इन संस्थानों के माध्यम से इंग्लैण्ड को हेनरी रिजावक एफ मायर्स-एडमंड गर्नी और अमेरिका के जे. बी. राइन अपनी पत्नी लुइसा समेत इस सन्दर्भ में आजीवन जुटे रहे हैं। इन लोगों ने मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमताओं के सम्बन्ध में अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये हैं और सिद्ध किया है कि यदि इन प्रसुप्त क्षमताओं को बढ़ाया और काम में लाया जाने लगे तो उनके विकसित होने की वैसी ही सम्भावना है जैसी कि एकाग्रताजन्य अनेकों मानसिक क्षमताएँ उपलब्ध हुई और प्रगतिक्रम में सहायक बनी हैं।
डा. बार्नेट द्वारा प्रकाशित एक अतीन्द्रिय पर्यवेक्षण में भारत के एक मिलट्री मेजर का उल्लेख है जिसके मरणकालीन विचार तत्काल उनकी पत्नी के पास पहुँचे। घटना 9 सितम्बर 1842 की है। मेजर मुलतान के सैनिक शिविर में घायल पड़ा था। मरते समय उसने अपने एक मित्र अफसर को कहा- “मेरी उँगली से यह अँगूठी निकाल लो, इसे मेरी पत्नी के पास पहुँचा देना।” इसके बाद उसकी मृत्यु हो गई।
ठीक उसी समय फिरोजपुर में सोती हुई उसकी पत्नी ने ठीक वही दृश्य देखा और शब्द सुनाई पड़े। गहरी नींद से वह हड़बड़ा कर उठी और उसने अशुभ स्वप्न का विवरण घरवालों को सुनाया। सभी ने उसे मन का भ्रम कह कर टाल दिया। पर तीसरे दिन वह मित्र अफसर जब मृतक की अँगूठी लेकर पहुँचा तो उस पूर्वाभास की वास्तविकता पर सभी दंग रह गये।
अंग्रेज महाकवि शैली को अक्सर अपना ही प्रतिबिम्ब सामने खड़ा दीखता था। प्रत्यक्ष बात तो वही करता था, पर उँगली के इशारे से कुछ संकेत करता था। इन संकेतों पर ध्यान देने से शैली को कई बार कई रहस्य भरी जानकारियाँ भी मिली थीं।
एकबार शैली ने अपने छाया पुरुष को समुद्र किनारे का एक विशेष स्थान दिखाया और वहाँ गड्ढा खोदने लगा। यह घटना कवि ने अपनी डायरी में नोट कर ली। ठीक एक वर्ष बाद शैली उसी स्थान पर कारणवश पहुँचे और देखते-देखते मर गये।
हालीवुड की अभिनेत्री शर्ल मैकलिन कुछ समय पूर्व भूटान आदि पर्वतीय क्षेत्रों के पर्यटन पर आई थी। उनने अपने प्रकाशित संस्करणों में भूटान क्षेत्र में एक पीत वस्त्रधारी लामा को आकाश में उड़ते हुए अपनी आँखों देखी घटना का वर्णन किया है। आँखों को धोखा होने की बात को उन्होंने नहीं माना है और इस आकाश गमन के इस प्रत्यक्ष दर्शन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है- “काश! न्यूटन मेरे साथ होते तो अपने प्रतिपादित गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त में अवश्य ही कोई सुधार परिवर्तन न करते।”
एलेक्जेन्ड्रा डेविल नील नामक एक योरोपियन महिला ने चौदह वर्ष तक तिब्बत में रहकर वहाँ के रहस्यवादियों की गतिविधियों का अध्ययन किया है। उनने अपने संस्मरणों में ‘लुंग गाम्या’ वर्ग के सिद्ध लामाओं का वर्णन किया है जो हिरनों की तरह लम्बी कुचालें लगाते हुए आकाश गमन करते थे। उन्होंने ‘जूमो’ वर्ग के ऐसे वर्ग का भी वर्णन किया है जिनके शरीर आग जैसे गरम हो जाते थे और बर्फीले झरनों में बैठकर अपनी साधना करते थे।
सन्त फ्राँसिस का जन्म इटली के एक कृषक परिवार में हुआ था। बचपन में ही उनके जीवन की अनेकों चमत्कारी घटनाएँ लोगों को देखने को मिलती थी। आग के शोलों से खेलना उनका प्रिय विनोद था। अग्नि में तप्त लाल लोहे की सलाकें हाथ में लेकर वे कहा करते थे कि इससे मैं अपने को गरम करता हूँ। 1507 में पओला के सन्तफ्राँसिस की मृत्यु हो गयी। उनका शव अभी तक यथावत स्थिति में रखा है, सड़ा नहीं। प्रतिवर्ष एकबार दर्शन के लिये उसकी शव पेटिका को खोला जाता है।
पाकिस्तानी नागरिक खुदाबक्श ने अमेरिका के पत्रकारों की एक कांफ्रेंस में आँखों में पट्टी बाँधकर अखबारों के पन्ने पढ़कर सुनाये थे और उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया था। आँखों से पट्टी पत्रकारों ने बाँधी थी और मोटे कपड़े की कई परतें इस प्रकार घुमाई थीं कि उनमें होकर कहीं से भी दीख पड़ने जैसी गुंजाइश न रहे। यहाँ तक कि नीचे की ओर जो थोड़ी-सी ढील रह जाती है उसमें भी रुई इस प्रकार भर दी गई कि उधर से भी कुछ दीख न सके।
फ्रान्सिस स्टोरी द्वारा लिखित ‘रीवर्स एज डोक्ट्रो इन एण्ड एक्सपीरियन्स’ पुस्तक में परा मनोविज्ञान से सम्बन्धित अनेक तथ्य पर प्रमाणों समेत प्रकाश डाला है और बताया है कि टेलीपैथी, क्लेअर वायन्स- साइकोटेलीपेट्री टेलिकिनेसिस आदि के नाम से जानी जाने वाली अतीन्द्रिय क्षमताओं का कारण क्या हो सकता है? इन दिनों वैज्ञानिक जगत में मानवी चेतना की रहस्यमयी परतों को खोजने के लिए नया उत्साह उभरा है और ‘साइकिक फिनामीना’ को भी खोज की मान्यता प्राप्त विषय स्वीकार किया गया है। जबकि कुछ समय पूर्व तक इन बातों को अन्धविश्वास कहकर मजाक में उड़ाया जाता था।
मानवी काय सत्ता के अन्तराल में असीम क्षमताएँ एवं विभूतियाँ प्रसुप्त सिद्ध में- बीज रूप में भरी पड़ी हैं। इनमें से प्रकट एवं फलित वे ही होती हैं। जो दैनिक जीवन के प्रयोग अभ्यास भी आती हैं। जो उपेक्षित रहती हैं। उनका पता भी नहीं चलता पर यदि उन्हें भी जगाया और कार्य रूप में परिणत करने का अभ्यास किया जाय तो उन्हें भी जागृत करने की ऐसी ही सुविधा हो सकती है जैसी कि बोलने, सोचने आदि की अन्य प्राणियों से भिन्न स्तर की विशेषताएँ जागृत हो गई हैं। अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी इन्द्रिय क्षमताओं का ही परोक्ष एवं सूक्ष्म पक्ष है। उन्हें जगाना और काम में लाना भी मनुष्य की बात है। बाहर की नहीं।
स्पेनिश कलाकार जान नीरो कहते थे- कला का मूल्याँकन इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिए कि उसने अपने समय के लोगों को कितना आकर्षित किया और कितनी सराहना पाई। वरन् देखा यह जाना चाहिए कि उसने क्या बोया। इस बीजारोपण पर भावी पीढ़ियों का भविष्य निर्भर रहता है। आज तो जो उत्तेजना दे या भविष्य की कटीली बल्लरियाँ उगाये उसकी सामयिक सराहना भी, भर्त्सना और असफलता के समतुल्य है।