Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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ज्ञान का आदि स्त्रोत- जिज्ञासा
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सत्य की उपलब्धि अथवा वैज्ञानिक आविष्कारों को जन्म देने में दार्शनिक एवं वैज्ञानिक चिन्तन का महत्वपूर्ण योगदान होता है ‘अथऽतो ब्रह्म’ जिज्ञासा से सृष्टि के नियामक सत्ता की खोज आरम्भ होती है तथा आत्म साक्षात्कार तक का कारण बनती है।। श्वेताश्वेतर उपनिषद् के उपाख्यान की शुरुआत जिज्ञासा से युक्त प्रश्नों से होती है। “कि कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाय केन क्वच सम्प्रतिष्ठाः। अधिष्ठिता केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥” अर्थात्- हे महर्षियों! इस जगत का मुख्य कारण ‘ब्रह्म’ कौन है, हम लोग किससे उत्पन्न हुए हैं, किससे जी रहे हैं और किसमें पूर्णतः अवस्थित हैं तथा किसके अधीन रहकर हम लोग सुख-दुःख की निश्चित व्यवस्थानुसार जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
आनन्दमय अमृत की कामना सहज जिज्ञासा की कारण बनी। विषय भोगों की क्षणभंगुरता ने मनुष्य को शाश्वत आनन्द की प्राप्ति के लिए अभिप्रेरित किया। बहिर्मुखी चेष्टाओं तथा विषयों के भोग से अतृप्ति तथा असंतुष्टि ही हाथ लगी। आनन्द के अन्तःस्रोत ने मनुष्य को आत्म अन्वेषण के लिए अभिमुख किया। परमानन्द से युक्त अपनी ही आत्म-सत्ता है, जिस दिन यह बोध हुआ, मानव को आध्यात्मिक खोज की दिशा में आगे बढ़ने का एक महत्वपूर्ण सम्बल हाथ लग गया। साधन शरीर और मन है तथा साध्य भीतर बैठा है, जिसका विराट् स्वरूप परब्रह्म के रूप में चारों ओर विद्यमान है, यह ज्ञान होते ही मनुष्य ने सोचा- बाहर भटकने से विषयाकर्षणों में अपनी सामर्थ्य गँवाने से क्या लाभ? अन्तःस्रोत को ही कुरेदा-उभारा जाय तथा उसके अगणित अनुदानों को ही समेटकर अपनी झोली भर ली जाय, इस चिन्तन ने आत्म-विज्ञान को जन्म दिया।
आत्म जिज्ञासा आत्म-विकास की दिशा में बढ़ने की प्राथमिक शर्त है। आत्मा की स्थिति दृष्टा की है जिसका अवचेतन अनुभव मनुष्य को निरन्तर होता तो रहता है पर बाह्य अनुभवों की विविधता के कारण वह अपने पूर्ण शाश्वत स्वरूप को जान नहीं पाती। आत्मानुसन्धान में प्रवृत्त होकर जिस अन्तिम गन्तव्य तक प्राचीन तत्त्ववेत्ता पहुँचे थे, वह एक ऐसी पूर्ण आनन्दमय सत्ता है जिसके ज्ञान से सब कुछ जान लिया जाता है। आत्मज्ञान की उसी परम स्थिति का वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद् में है- ‘आत्मनो वा अरे दर्शंनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वं विदितम्।’- 2।4।5 अर्थात्- ‘इस आत्मा के ही दर्शन, श्रवण, मनन एवं विज्ञान से इस सबका ज्ञान हो जाता है।’
वह ज्ञान ज्ञाता से भिन्न किसी ज्ञेय का ज्ञान नहीं वरन् स्वयं की सत्ता का है। वस्तुतः ज्ञाता ही ज्ञेय है। वह ज्ञान स्वरूप है। वहाँ द्वैत की कोई सीमा नहीं है। निर्मल, निश्चल, निर्विकल्प आत्मचेतना की वह दिव्यानन्दमयी सत्ता अद्वैत है। उस दिव्य सत्ता के प्रकाश की अनुभूति ही भारतीय तत्व दर्शन का लक्ष्य रहा है।
“भासिरतः भारतः”। प्रकाश या ज्योति में जो रत रहे, वह भारत तथा प्रकाश की खोज में रत रहने की प्रवृत्ति वाला भारतीय कहलाता था। भारतीय तत्त्ववेत्ताओं का उद्घोष था- ‘तत् त्वम् असि इति जानम् ज्ञानम्।’ “जिज्ञासु! तुम स्वयं ही वह सत्य हो, जिसे जानने की तुम्हें जिज्ञासा है।” वह ज्ञान ही तत्वज्ञान है। कोई भी साधक जिसे सत्य के प्रकाश को पाने की आकाँक्षा रखता है, वह उसकी आत्मचेतना का ही प्रकाश है। जिसे यह बोध हो जाता है वह उस प्रकाश का दर्शन करने में सफल हो जाता है तथा अपने को कृतकृत्य मानता है।
बृहदारण्यकोपनिषद् का उद्घोष है कि आत्मवेत्ता सर्ववेत्ता हो जाता है- ‘य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मीति स इदं सर्वं भवति।’ इसी सत्य का बोध कराता है। दृष्टा आत्म सता का अनुभव ही विश्व का विस्तार है। जिस प्रकार चैतन्य अवस्था की प्रसुप्त वासनाएँ निद्रावस्था में अवसर पाते ही अपने अनुरूप स्वप्न की सृष्टि कर लेती हैं, उसी प्रकार जन्म-जन्मान्तरों के अनुभवों के संचित संस्कारों द्वारा अनुकूल वासनाओं के उभार होने पर मोहग्रस्त जीवों को संसार के आकर्षण, विषयभोग वास्तविक जान पड़ते हैं। पर निद्रा के टूटते ही स्वप्न की सृष्टि मिटते देरी नहीं लगती, ऐसे ही अज्ञान के नष्ट होने पर संसार विषयक भ्रान्तियाँ भी मिट जाती हैं। जागृत व्यक्ति को यह बोध रहता है कि स्वप्न का संसार उसके स्वयं के मन की उपज है, इसी प्रकार अज्ञान से मुक्त होने पर भी बोध हो जाता है की संसार की सत्ता आत्मसत्ता से बाहर नहीं है- उसकी ही प्रतिबिम्ब है।
वस्तु एवं संसार के अस्तित्व का प्रमाण चेतन व्यक्ति की अनुभूतियाँ हैं। एक वर्णान्ध व्यक्ति संसार के विभिन्न रंगों को नहीं देख पाता, उसे मात्र श्वेत और काला रंग ही दिखता है, जबकि जन्मान्ध को कुछ नहीं दिखाई पड़ता। जिस प्रकार नेत्रों की अक्षमता से दर्शन शक्ति लुप्त हो जाती है उसी प्रकार त्वचा की असमर्थता से स्पर्श शक्ति भी लुप्त हो जाती है। स्वादेन्द्रिय, घ्राणेंद्रिय, श्रवणेन्द्रियों की क्षमताएँ नष्ट हो जाने पर स्वाद, गन्ध तथा ध्वनि की अनुभूति नहीं हो पाती। देखने, सुनने, स्पर्श करने, स्वाद लेने तथा सूँघने की पाँचों इन्द्रियाँ किसी भी चेतन प्राणी में नहीं होतीं तो संसार की विविध रूपाकृतियों के अस्तित्व का प्रमाण क्या होता? पर उल्लेखनीय बात यह भी है कि इन्द्रियों की अनुभूतियाँ भी दृष्टा-आत्मसत्ता के अस्तित्व से ही होती हैं। शरीर से उस सत्ता के तिरोहित होते ही कोई भी इन्द्रिय काम नहीं कर पाती जबकि उनका रूप यथावत् बना रहता है।
मूलतः अनुभूतियाँ दृष्टा आत्मा को होती हैं- इन्द्रियाँ तो मात्र माध्यम हैं। देखने की प्रक्रिया में प्रकाशित वस्तु से विकीर्ण प्रकाश नेत्र की पुतली में प्रवेश करता है जहाँ से प्रतिबिम्बन क्रिया का प्रभाव स्नायु तंत्र की नाडियों द्वारा मस्तिष्क में ले जाया है। यहाँ वस्तु के रूप मनुष्य अनुभव करता है। पर यह क्रिया यांत्रिक फोटोग्राफी जैसी नहीं है, दृष्टा को दृश्य की अनुभूति एक चेतन क्रिया है जो मात्र रूप का ही आभास नहीं कराती वरन् विभिन्न प्रकार के भावों को भी जन्म देती है। चेतन मनुष्य सुन्दर दृश्यों से आह्लादित होता, अरुचिकर से दुःखी एवं भयभीत होता है। ये प्रतिक्रियाएँ फोटोग्राफी के कैमरे में नहीं होती।
अस्तु! ज्ञान का- अनुभूतियों का अस्तित्व ज्ञाता की सत्ता के बाहर नहीं- भीतर है। प्रायः बाह्य वस्तु के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना का कारण चेतन मनुष्य के शरीर को निरपेक्ष सत्ता मान लेना है जिसमें चैतन्य को शरीर के भीतर की वस्तु मानकर तथा शरीर की इन्द्रियों से बाहर की भौतिक वस्तुओं के स्वतंत्र अस्तित्व का विचार किया जाता है। यह एक भ्रान्ति है जिसके रहते सत्य के निकट पहुँच पाना संभव नहीं हो पाता। पृथ्वी पर खड़े होकर सिर की ओर ऊपर तथा पैरों की ओर नीचे का भाग समझा जाता है पर असीम अन्तरिक्ष में न कहीं कुछ ऊपर है न कहीं नीचे। दिशाओं की मान्यता भी इसी प्रकार है। शरीर भी एक भौतिक वस्तु है तथा उसका अस्तित्व भी दृष्टा- आत्मा के अनुभव पर आधारित है फिर बाह्य एवं भीतर का प्रश्न नहीं रह जाता। जहाँ तक भी हम कल्पना अथवा चिन्तन करते हैं, वहाँ तक आत्मा ही है। अनुभूतियों का केन्द्र वही है।
जगत को माया मात्र कहकर उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि साँसारिक ज्ञान की उपेक्षा भी एक प्रकार से आत्म प्रवंचना ही है। संसार की दृश्यमान सत्ता को स्वीकार करते हुए भी शाश्वत सत्य तक पहुँचने के लिये उसी ज्ञान का सहारा लेना होगा जो अन्तः से उद्भूत होता है, जिज्ञासा के रूप में जिसे जाना जाता है। आत्मानुसन्धान द्वारा ही परम सत्य के निकट पहुँचा जा सकता है, यह एक चिरन्तन सत्य है।