Magazine - Year 1985 - Version2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
निष्काम कर्मयोग एवं मुक्ति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
पूर्व जन्मों के प्रारब्धवश इस जीवन में जो काम, संयोग और परिस्थितियाँ मनुष्य को उपलब्ध हों, उनमें सन्तोष रखते हुये आगे की उन्नति के लिये उद्योग करना धर्म है। शरीर जिस साधना में तत्पर हो उसी को पूरा करना मनुष्य का कर्तव्य है। अपनी परिस्थितियों से बहुत अधिक की कामना करना ही मनुष्य की दुःखद स्थिति का कारण है। अनियन्त्रित मनोरथ का त्याग करना ही अपने पूर्व-प्रारब्ध के लिए सन्तोष करने का अच्छा उपाय है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि आगे के लिए अधिक सुन्दर परिस्थितियाँ प्राप्त करने की चेष्टा न करें। श्रेय की इच्छा करने वाले मनुष्य को न तो निष्क्रिय रहना चाहिए और न ही विविध कामनायें करनी चाहिए।
सेना में सिपाही की योग्यता के अनुसार कमाण्डर उसे कोई एक काम सौंप देता है। योग्यता बढ़ा लेने पर कमाण्डर क्रमशः उसे उच्च पद देता चला जाता है किन्तु सिपाही की स्थिति में रहते हुये सेनानायक के पद की आकाँक्षा करने से न तो वह सिपाही के कर्तव्यों का भली-भाँति पालन कर सकेगा और न ही सेनानायक का पद ही मिल सकेगा। इससे दुःख तो मिलेगा ही दुष्परिणाम भी उपस्थित हो सकते हैं।
एक ही परिस्थिति में यदि दत्तचित्त से लगे रहें तो उसमें भी आशाजनक परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। कभी इधर, कभी उधर की दौड़ भाग करना मनुष्य की अस्थिरता का चिन्ह है। जो तरह-तरह की कामनायें मन में करते रहते हैं उन्हें ही यह परेशानी भुगतनी पड़ती है। अधिक से अधिक धन, अधिक सुख-सुविधाओं की लिप्सा ही मनुष्य को कमजोर और दुखी बनाती है क्योंकि यदि उन्नति की उचित योग्यता, शक्ति और परिस्थितियाँ न हुई तो आकाँक्षाओं की कभी पूर्ति नहीं हो सकेगी। और उससे दुःखी, अधीर,चिन्तित और निराश ही बने रहेंगे।
दूसरों को अधिक सुखी और सम्पन्न देखकर ईर्ष्या करना और परमात्मा को दोषी ठहराना मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है। ऐसा वह इसलिए करता है कि उसे केवल अपने अधिकार प्रिय हैं। पूर्व जीवन में उसने क्या किया है इसकी भी तो कुछ संगत होनी चाहिए। किसी को कम किसी को अधिक देने का अन्याय भला परमात्मा क्यों करेगा? मनुष्य अपने ही कर्मों का लाभ या घाटा उठाता है। एक रुपया देकर किसी को भला पाँच रुपये की कीमत की भी कोई वस्तु मिली है? योग्यता से अधिक दे देने की भूल भला परमात्मा क्यों करेगा? ऐसा यदि हो तो उसे लोग अन्यायी ही तो कहेंगे। यही क्या कुछ कम उपकार है जो उसने आपको मनुष्य जीवन जैसा अलभ्य अवसर प्रदान किया है। आप चाहें तो अपने जीवन का मूल्य बढ़ा सकते हैं और कर्तव्य पालन तथा अन्य सद्गुणों द्वारा आगे के लिए शुभ परिस्थितियाँ, अच्छे परिणाम और मंगल संयोग प्राप्त कर सकते हैं।
काम बदलने की चिन्ता आप मत कीजिए। यह एक प्रकार की ‘कर्ण हिंसा’ है। इसी में पुरुषार्थ करते रहिये। भली परिस्थितियों के संयोग ईश्वरीय प्रेरणा से स्वतः प्राप्त हो जाते हैं उसके लिए कोई जोड़-तोड़ नहीं करनी पड़ती। आप क्रियाशील रहिये, उद्योग करते जाइये, उन्नति के अवसर आपके जीवन में जरूर आयेंगे। पर कदाचित आपके प्रारब्ध कुछ इस तरह के नहीं हैं कि आप अधिक उन्नति कर सकें तो खीझ और उत्तेजना से प्राप्त परिस्थिति का सन्तोष भी आपको नहीं मिल सकेगा। इसीलिए फल प्राप्ति की कामना को गीताकार ने दोष बताया है और मनुष्य को निरन्तर कर्म करने की प्रेरणा दी है।
जागृत मनुष्य कभी क्रियाहीन नहीं रहेगा। प्राप्त परिस्थितियों में जो लोग प्रसन्नतापूर्वक लगे रहते हैं जीवन का सुख उन्हीं को मिलता है। सुख किसी वस्तु या परिस्थिति विशेष में नहीं है। वह एक मानसिक भाव है जो प्रत्येक स्थिति में प्रसन्न रहने से मिल जाता है। छोटी-छोटी बातों में दुखी रहने का तात्पर्य यह है कि आप परमात्मा के विधान की अवहेलना करना चाहते हैं। यों न सोचिये वरन् अपने से दयनीय स्थिति के व्यक्तियों से अपनी तुलना कीजिए और पूर्ण प्रसन्न रहने का प्रयत्न कीजिए। पुरुषार्थ करने की आप में शक्ति होगी तो अच्छे परिणाम भी मिल जायेंगे पर परिणाम की ओर अपना ध्यान बनाये रखकर प्राप्त आनन्द को क्यों छोड़ते हैं? जागृत पुरुष इसीलिए प्रत्येक परिस्थिति में सुख का अनुभव करते हैं और तप, त्याग, परोपकार द्वारा अपनी भावनाओं को उत्कृष्ट बनाकर आगे के लिए शुभ फल संचय कर लेते हैं। इसी जीवन की बढ़ी हुई योग्यता ही तो अन्य जन्मों के संस्कार रूप में दिखाई देती है।
दूसरी अवस्था में मनुष्य की कर्म भावना का विश्लेषण आता है। पुरुषार्थ अपनी शारीरिक या पारिवारिक आवश्यकतायें पूर्ण कर लेने को ही नहीं कहते। मनुष्य इस संसार में रहकर यहाँ के हवा, पानी, धरती, प्रकाश आदि का स्वच्छंद उपभोग करता है, इस तरह वह धरती माता का भी ऋणी है। जो उपकार प्रकृति और परमात्मा ने उस पर किये हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का सही तरीका यह है कि मनुष्य भी प्राणिमात्र की सेवा ओर उपकार भावना से काम करे। स्वार्थों तक ही सीमित रहने से पशु और मनुष्य में भेद भी कुछ नहीं रह जाता। परमात्मा का श्रेष्ठ पुत्र कहलाने का सौभाग्य तो तब मिलता है जब निष्काम भावना से सृष्टि के अन्य प्राणियों के साथ समता, न्याय और कर्तव्य पालन की उदारता बनी रहे।
बच्चों का पालन-पोषण, व्यापार, देश-रक्षा, मेहनत, मजदूरी, ज्ञान-सम्पादन और जन-मार्गदर्शन, इन कर्मों में से ऊँच-नीच, छोटे-बड़े कम महत्वपूर्ण या अधिक महत्वपूर्ण होने की एक ही कसौटी है और वह है मनुष्य की भावना। स्वार्थ सम्मुख रखकर परोपकार दिखाई देने वाले कर्म भी फलदायक नहीं होते। निष्काम भाव से की हुई बच्चों की सेवा और प्राणिमात्र के हित के लिये किया गया उपदेश दोनों का ही फल समान है क्योंकि उनकी भावना एक ही है। कर्म की विविधता में उसका मूल्य भावना स्तर पर आँका जाता है। किसी व्यक्ति की आप चोरों से रक्षा करें और बदले में आधा धन माँगने लगे तो आपकी यह सेवा प्रभावशाली न रहेगी। कर्म का महत्व फल त्याग से है। सच्चा सुख, सन्तोष तो तब मिलता है जब मनुष्य अपने आप को परमात्मा का एक उपकरण मानकर विशुद्ध त्याग भावना से परोपकार करता है। जीवन मुक्त का लक्षण फल-प्राप्ति की कामना का परित्याग ही बताया जाता है।
प्रकृति हमें नित्य, निरन्तर निष्काम कर्म करने की शिक्षा देती रहती है। सूर्य, चन्द्रमा, प्रकाश देते हैं। बदले में कुछ प्राप्त करने की उनकी कोई भावना नहीं होती। वृक्ष अपने फलों का उपभोग अपने लिये नहीं करते। पहाड़ लोगों को असीम खनिज देते हैं, नदियाँ शीतल जल से लोगों को तृप्त करती रहती हैं। इन्हें कभी किसी तरह की कोई भी कामना नहीं होती। लोक-कल्याण के लिये निरन्तर एक सी स्थिति में चलते रहना ही उनका धर्म है। मनुष्य की दशा भी इसी तरह की होनी चाहिए। सुख कर्म में है फल तो उसके विनाश का प्रारम्भ मात्र है।
मुक्ति एक लक्ष्य है जो निरन्तर चलते रहने से प्राप्त होता है। उच्च स्थिति प्राप्त करने के लिये मनुष्य छलाँग से काम नहीं ले सकता। बीच की साधनावस्था से होकर आगे बढ़ना ही स्वाभाविक नियम है। अकुलाहट, तीव्रता या चित्त में विकार आना मनोरथ पूरा न होने का लक्षण है।
आत्म-कल्याण के विविध साधनों में प्रत्येक स्थिति में हर मनुष्य के लिए सरल और सुलभ साधना-निष्काम कर्म ही भावना ही है। कठोर साधनों की अपेक्षा यह मार्ग अधिक सरल है जिसे गीता में “निष्काम कर्म योग” के नाम से प्रतिपादित किया गया है। कर्तव्य भावना का ज्ञान और मनोरथ के परित्याग से परमात्मा की स्थिति का बोध हो जाता है और मनुष्य जन्म मरण के भव बन्धन से मुक्ति पा लेता है। यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। इसके लिए निष्काम-कर्म से बढ़कर और कोई दूसरा उपाय श्रेष्ठ नहीं है।