Magazine - Year 1985 - Version2
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Language: HINDI
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सशक्तता शक्तियों के सदुपयोग पर अवलम्बित
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शक्ति के भाण्डागार मनुष्य के काय संचालन में बहुत-सी शक्ति खर्च होती है। एक अच्छे-खासे कारखाने में छोटे-बड़े जितने कल पुर्जे होते हैं उसकी तुलना में शरीरगत घटकों की संख्या कम नहीं ज्यादा ही है। यह सभी परस्पर संबद्ध हैं। घड़ी के पुर्जों की तरह इनमें से कुछ खराब स्थिति में होते हुए भी घिसट रहे हों तो स्वभावतः उसके खिंचाव में कहीं अधिक शक्ति व्यय होती है। एक वरिष्ठ पहलवान बनने में जितनी शक्ति लगती है उससे कहीं अधिक एक फटे-टूटे सड़े-गले शरीर से काम निकालने में अधिक क्षमता का अपव्यय होता है। इस बर्बादी को रोका जा सके और इस प्रकार जो सामर्थ्य बचती है उसे उपयोगी कार्यों में लगाया जा सके तो साधारण स्थिति का मनुष्य भी इतनी क्षमता बचा सकता है जिसका सदुपयोग बन पड़ने पर आश्चर्यजनक सफलताएँ उपलब्ध होंगी।
इसके बाद मनुष्य का मस्तिष्क आता है। सारा विद्युत प्रवाह यहीं से उत्पन्न होता है। हृदय के माध्यम से होने वाला रक्त संचार प्रायः माँस पेशियों की स्थिरता एवं उनकी समर्थता में ही व्यय हो जाता है। इसमें कहीं ऊँची मस्तिष्कीय क्षमता है। उसके सचेतन भाग से हमारे विचार व्यवहार चलते हैं और अचेतन पक्ष शरीरगत अनेकानेक रहस्यमय सूत्र संचालकों की बागडोर सम्भालता है। बौद्धिक प्रतिभा का केन्द्र बिन्दु यही है। स्फूर्ति का आवेग भी यहीं उत्पन्न होता है। मनुष्य की मानसिक क्षमता का प्रायः 7 प्रतिशत अंश ही व्यवहार में आता शेष 93 प्रतिशत ऐसा ही जो प्रसुप्त या उपेक्षित स्थिति में ही पड़ा रहता है। उसे जगाने पर मनुष्य मानसिक क्षमताओं के क्षेत्र में एक भानमती का पिटारा खोल सकता है और सामान्य लोगों की तुलना में दिव्य पुरुष या महामानव हो सकता है।
शरीरगत स्वाभाविक क्षमता का अधिकाँश भाग आलस्य के गर्त में गिरकर सड़-गल जाता है। बौद्धिक क्षमताओं का आधा अधूरा अन्यमनस्क भाव से किया हुआ उपयोग प्रवाह कहलाता है। प्रमादी मनुष्य बौद्धिक क्षेत्र में पिछड़ा ही बना रहता है और भूल पर भूल करता रहता है।
शारीरिक क्षमताओं का बहुत कुछ दुरुपयोग असंयम से होता है। काम करने वाले अवयवों की सामर्थ्य निचुड़ कर वास्तविक उत्तेजनाओं में खर्च हो जाती है। सामर्थ्यों का भण्डार चुकते जाने पर मनुष्य खोखला होता जाता है। उसका आँख, कान, जिव्हा, जननेन्द्रिय तत्वानिस्वत्व हो जाती है और माँसपेशियाँ शिथिल, त्वचा निस्तेज होती जाती है। जवानी में बुढ़ापा आ धमकता है। झुर्रियाँ पड़ने की आयु आने से बहुत पूर्व ही त्वचा झूलने लगती है और युवावस्था की तेजस्विता सुन्दरता अनायास ही लटक पड़ती है।
जिह्वा का असंयम पाचन तन्त्र को लड़खड़ा देता है और जननेन्द्रिय का असंयम हृदय और मस्तिष्क दोनों को ही शिथिल करता है। यौन उत्तेजना मन्द पड़ जाती है। नपुँसकता आ घेरती है और व्यक्ति शौर्य पराक्रम से हीन होता चला जाता है। असंयम अपने हाथों अपनी जड़ें काटता है। शक्तियों का यह अपव्यय ऐसा है जो उठती उम्र नये रक्त में तो प्रतीत नहीं होता पर जैसे ही उठाव शिथिल पड़ता है वैसे ही अनुभव होता है कि सामर्थ्य के भण्डार में से कितना अधिक अपव्यय हो चुका और शरीर को किस कदर अशक्तता का अभिशाप सहना पड़ा।
मानसिक शक्ति भण्डार के अपव्यय में चिन्तन की दो विकृतियाँ हैं एक को आवेश दूसरे को अवसाद कहते हैं। चिंता, क्रोध, आवेग, ईर्ष्या, प्रतिशोध आदि से उत्तेजित व्यक्ति की स्थिति ज्वर ग्रस्त जैसी हो जाती है।
भय, आशंका, निराशा जैसी कुकल्पनाओं से संत्रस्त व्यक्ति ढेरों शक्ति गँवा बैठता है और उसे लगता है कि आसमान फटा या जमीन धँसी। डरपोक के मन पर इतनी आशंकाएँ छाई रहती हैं कि सब ओर से अनर्थ ही आक्रमण करता दृष्टिगोचर होता है। कारण कोई प्रत्यक्ष नहीं दिखता, तो ग्रह नक्षत्र, भाग्य, भूत-प्रेत, देवी-देवता उलटे पड़ते और किसी के द्वारा जादू टोना करने संकट खड़े किये जाने का त्रास इतनी बड़ी मात्रा में दृष्टिगोचर होता है जितना कि बहादुरों को नास्तिक संकट से जूझते हुए भी भयाक्रान्त नहीं करता।
यह मानसिक शक्तियों का अपव्यय आसानी से समाप्त हो सकता है यदि मनुष्य आत्महीनता की ग्रन्थि से ग्रसित न हो और आवश्यक पौरुष बनाये रखे। हिम्मत से काम ले और जब जो कठिनाई सामने आयेगी उससे निपट लिया जायेगा ऐसी हिम्मत रखे। हिम्मत टूटते ही मनोबल ही नहीं शरीर बल भी पलायन कर जाता है और हाथ के नीचे का साधारण-सा काम भी पर्वत जितना भारी और उफनते नाले जैसा दुस्तर प्रतीत होता है।
आत्म-बल कहीं आसमान से नहीं टूटता और न कोई देवी-देवता उसे उपहार में देते हैं वह आत्म-विश्वास का प्रतिफल है। यदि हम अपने को ईश्वर की सर्वोत्तम कलाकृति समझें और शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों का भाण्डागार जन्मजात रूप से लेकर जन्मे अनुभव करें तो शंका-कुशंकाओं का कागज से बने रावण की तरह खोखला सिद्ध होता है। असली भूत संसार में जितने हैं उनकी तुलना में अन्धेरी झाड़ियाँ और श्मशान के पीपल पर रहने वाले काल्पनिक भूतों की संख्या कहीं अधिक है। इन सब को कोई तो चुटकी बजाते उड़नछू कर सकता है।
अभी कितना चलना है, यह सोचने पर मंजिल बहुत लम्बी मालूम होती है और लक्ष्य तक पहुँचने में अनेक अड़चनों का भय प्रतीत होता है। किन्तु यदि अपने मजबूत पैरों तले की सड़क को देखा जाय तो प्रतीत होगा कि जो पैर जिस सड़क को इतनी दूर पार कर चुके वे शेष मंजिल को क्यों पार न कर सकेंगे।
भाग्य ने हमें इस स्थिति में पटका यह कहने की अपेक्षा यह कथन सारगर्भित है कि भाग्य को निष्क्रिय रहने या विपन्न बनाने की जिम्मेदारी अपनी रही है और यदि पिछले अपव्ययों की रोकथाम करने उपलब्ध शक्तियों का नये सिरे से सदुपयोग करें तो भाग्य के निर्माता बनने में कोई सन्देह नहीं है। प्रगतिशीलता के दो उपाय हैं कि जिन-जिन छिद्रों में होकर शक्तियों का भण्डार बूँद-बूँद होकर रिसता है और भरे घड़े को खाली कर देता है उन सभी छिद्रों को बन्द कर दिया जाय। इससे अपव्यय रुकेगा। संयम थमेगा। अब एक ही बात करने योग्य शेष रह जाती है कि शक्ति को निरंतर कार्यरत बनाये रहने की योजना बनायें और उन्हें क्रियान्वित करने में जुट पड़ें।
चाकू पर धार धरने से उसकी कार्य क्षमता और चमक दोनों ही बढ़ती हैं। इसी प्रकार आत्मविश्वास, साहस, पुरुषार्थ के सहारे अपनी इन्हीं शक्तियों को अनेक गुना बढ़ाया जा सकता है जो हमें इस मानव जीवन के साथ परमात्मा द्वारा आरम्भ में ही प्रदान की गई है। बीज को खाद पानी मिलने पर वह बढ़कर वृक्ष बन जाता है अपनी वर्तमान क्षमताओं को ही यदि बर्बादी से बचायें और उत्कर्ष की दिशा में लगायें तो अशक्ति को समर्थता में सहज ही बदला जा सकता है।