Magazine - Year 1985 - Version2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
व्रतशीलता बनाम हठवादिता
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
कई व्यक्ति कई प्रकार के निश्चय भावावेश में कर बैठते हैं और उनकी जोर-शोर के साथ घोषणा भी करते हैं। इतना ही नहीं उनको पूरा करने के लिए दुराग्रह भी अपनाते और हठवादिता का परिचय भी देते हैं। ऐसे निश्चय या उद्घोष जिनमें दूरदर्शिता और परिणाम की सम्भावना का समावेश न हो प्रायः अनुचित ही होते हैं और प्रतिज्ञा के स्थान पर उन्हें हेय हठवादिता ही कहा जाता है। संकल्प अच्छे भी हो सकते हैं और बुरे भी। प्रतिशोध एवं दर्प के आवेश में प्रायः लोग ऐसी प्रतिभाएँ करते देखे गये हैं जिनमें दूसरों को तो अनर्थ सहना ही पड़े और फलस्वरूप अपने को कम दुष्परिणाम न भुगतना पड़े।
अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि आज सूर्यास्त होने तक जयद्रथ का वध करूंगा। यह बात बनी नहीं। परिस्थितियाँ दूसरे ढर्रे पर चल पड़ी ऐसी दशा में अर्जुन को असफल रहने पर आत्म-हत्या कर लेनी चाहिए थी। पर कृष्ण ने उसमें दुहरी हानि देखी और छद्मपूर्वक नकली सूर्य चमका कर जयद्रथ वध का कुचक्र रचना पड़ा। यहाँ प्रतिज्ञा रही भी और नहीं भी रही। कृष्ण ने प्रतिज्ञा निबाहने की अपेक्षा उसे टूट जाना हित कर समझा। क्योंकि वह आवेश में की गई थी ओर सम्भावनाओं का गंभीरतापूर्वक अनुमान नहीं लगाया गया था।
ऐसे आवेश प्रायः हत्याएँ कराने, आत्म हत्या के लिए उभारने-या उचित कार्यों को छोड़ बैठने के लिए उकसाते हैं और संकल्प न रह कर संकट बन जाते हैं।
व्रतशीलता का उपयुक्त माध्यम एक ही है आत्म-शोधन और औचित्य की मर्यादा में प्रगति पथ पर अग्रसर होते रहने का निश्चय। ऐसी प्रतिज्ञाओं में कालावधि की सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती। क्योंकि मनुष्य के हाथ में इच्छित अनुकूलताएँ एव परिस्थितियाँ नहीं हैं। ऐसी दशा में काल सीमा निर्धारित करना भी व्यर्थ है। व्रतशील को अपने निश्चय पर दृढ़ तो रहना चाहिए। किन्तु अपवादों के लिए गुंजाइश भी रखनी चाहिए। गाँधी जी मंगलवार को मौन व्रत रखते थे, पर वह इसके लिए हठवादी नहीं थे। कई बार उन्हें वह व्रत आगे-पीछे भी करना पड़ा। वाह्य कृत्यों में अपवादों के लिए इतनी गुंजाइश भी छोड़नी पड़ती है।
वस्तुतः व्रत शब्द से तात्पर्य आत्म-शोधन के निमित्त किये गये शुद्धि संगत उपायों को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहना है। इसमें उपवास, ब्रह्मचर्य जैसे उच्चस्तरीय नियमों का प्रतिज्ञापूर्वक परिपालन आता है। दयानन्द, शंकराचार्य आदि ब्रह्मचर्य का और कणाद, पिप्पलाद आदि आहार सम्बन्धी सीमा बन्धन का सरलतापूर्वक निर्वाह कर सके। श्रम सम्बन्धी सीमा बन्धन का नियम भी निभ सकते हैं। इतना अध्ययन, भजन, व्यायाम आदि करना हो। ऐसी प्रतिज्ञाएँ उपयुक्त भी हैं और निभती भी हैं।
यही बात सत्य के सम्बन्ध में भी है। सैन्य विभाग के रहस्यों का प्रकट करना वाचक सत्य हो सकता है पर उद्देश्य पूर्ण सत्य नहीं। चोरों और ठगों को अपनी वास्तविक स्थिति बता देना प्रकारान्तर से अनीति का ही परिपोषण है।
व्रतशील हम बनें। प्रतिज्ञाएँ भी लें, पर वे सभी विवेकपूर्ण और दूरदर्शिता युक्त होनी चाहिए। आवेश में की हुई हठवादिता को जितना जल्दी उलटा जा सके उतना ही अच्छा है।
सन्त ज्ञानेश्वर के पिताजी ने गृहस्थ के उत्तरदायित्व को अधूरा छोड़कर संन्यास ले लिया था। उनके गुरुदेव स्वामी रामानंद को जब वस्तुस्थिति विदित हुई तो उनने उन्हें पुनः गृहस्थ धर्म में प्रवेश करने का आदेश दिया और संन्यास छुड़ा दिया। इसमें वचन भंग का दोष तो आता है, पर उससे बड़ा व्रत निभता है- भूल सुधार का।
प्रख्यात है कि अंगुलिमाल डाकू नित्य प्रति 108 उंगलियाँ काटकर उनकी माला देवी पर चढ़ाया करता था। इसी आधार पर उसने अपना नाम ‘अंगुलिमाल’ रखा हुआ था। भगवान बुद्ध के संपर्क में आने पर उसने उस प्रतिज्ञा से मुख मोड़ लिया और अहिंसा का प्रचारक बन गया।
कई हठवादी एक बार मुख से निकले शब्दों को पूरा करने में ही संकल्प की पूर्ति समझते हैं और अपने दर्प को पूरा हुआ समझते हैं। द्रोणाचार्य द्रुपद के दरबार में कुछ याचना करने गये और गुरुकुल में साथ पढ़ने की मित्रता का स्मरण दिलाया। इस पर द्रुपद ने उनका उपहास उड़ाया। द्रुपद से उस अपमान का बदला लेने के लिए अपने शिष्य पाण्डवों से उन्हें परास्त करने और मुश्कें बाँधकर सामने प्रस्तुत करने का आदेश दिया। वही हुआ। इसके बाद प्रतिशोध की क्रिया प्रतिक्रिया चल पड़ी और उसका अन्त महाभारत के सर्वनाशी रूप में सामने आया। चम्बल के डाकुओं की खदान उमड़ पड़ने का कारण भी प्रतिशोध की परम्परा चल पड़ना ही निमित्त कारण है। इसीलिए कहा गया है कि किसी आवेश में की हुई प्रतिज्ञा का पूर्ण करना आवश्यक नहीं। मन बदलने पर परिस्थितियों में अन्तर आ जाने पर बात को बदल देने में समझदारी ही मानी जाती है।
सम्राट अशोक ने जीवन के अन्त काल में बुद्ध संघ को सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ देने का संकल्प लिया, पर राज्य उनके उत्तराधिकारी के हाथ चले जाने पर दैनिक उपयोग की वस्तुएं दी और अन्त में एक सूखा आँवला जो उनके पास शेष रहा था वह उनके संघ को देकर अपने संकल्प की पूर्णाहुति मान ली।
अम्बपाली को नगर वधू रहने की शपथ दिलाई गई थी, पर उनने बुद्ध की शरण में आते ही उस अनीति बन्धन को टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया और सती साध्वी की तरह धर्म प्रचार में संन्यासिनी बनकर जुट गईं।
वचन के एक बार मुँह से निकल जाने पर वैसा ही करके रहना प्रतिज्ञा पूर्ति मानी जाती है, पर उसका मूल्य तभी है जब अपनी सामर्थ्य को तोलते हुए-परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, उच्च उद्देश्य के निमित्त की जाय। इस कसौटी पर आत्म-शोधन के लिए किये गये व्रत, उपवास, संयम निर्वाह आदि के संकल्प ही उस मर्यादा के अंतर्गत आते हैं जिन्हें कष्ट सहते हुए भी निबाहना चाहिए।
कई व्यक्ति एक पैर पर खड़े रहने, एक हाथ ऊँचा रखने आदि की प्रतिज्ञाएँ ले लेते हैं और उन्हें बहुमूल्य शक्तियों का समापन करते हुए निबाहते हैं। कुछ लोग कष्ट मौन धारण करते हैं और जब काम नहीं चलता तो स्लेट पेन्सिल पर अपनी इच्छाएँ व्यक्त करते रहते हैं। ऐसे व्रत धारण को अनावश्यक ही नहीं आहत कर परम्परा उत्पन्न करने वाला और दूसरों के सम्मुख अपना बड़प्पन सिद्ध करके यश लूटने का षड्यन्त्र भी माना जा सकता है। सादगी अपने आप में एक व्रत है। जिसके साथ उच्च विचारों का अविच्छिन्न सम्बन्ध जुड़ा हुआ है।
भगवान बुद्ध आरम्भ में अत्यन्त कठोर तप करने लगे थे और अस्थि पिंजर मात्र रह गये थे। तब उन्हें उस हठ को छोड़ने और मध्यम मार्ग अपनाने की प्रेरणा मिली। उनने अपनी भूल समझी और अविलम्ब सुधार ली।
व्रतशीलता और प्रतिज्ञापालन अच्छी बात है उससे मनोबल बढ़ता है, पर साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किसी के बहकावे से कोई कुकृत्य कर बैठने की प्रतिज्ञा तो नहीं कर ली गई है। यदि ऐसा हो तो उसे तत्काल सुधारा जाना चाहिए। आत्म सुधार में हठवादिता का परित्याग भी आता है जो अपने आप में एक श्रेष्ठ व्रत है।