Magazine - Year 1985 - Version2
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Language: HINDI
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तर्क एवं श्रद्धा का समन्वित रूप- धर्म
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पाश्चात्य जगत में धार्मिक मान्यताओं एवं तर्क में परस्पर टकराव देखा जाता है लेकिन भारतीय दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में भिन्न है। अंग्रेजी में जिसे ‘फेथ’ (Faith) कहकर पुकारा जाता है, हिन्दी में उसे श्रद्धा कहते हैं। अंग्रेजी शब्द ‘रीजन’ (Reason) सामान्य भाषा में बुद्धि कहलाता है। पाश्चात्य संस्कृति में फेथ और रीजन में कई सदियों से संघर्ष चला आ रहा है। आर्ष मान्यताएँ शाश्वत हैं। वे बताती हैं कि श्रद्धा एवं बुद्धि के समन्वय में ही मानवता का कल्याण है। जब यह सम्बन्ध स्पष्ट होने लगता है तो व्यक्ति को दोनों की अभिन्नता, एक दूसरे के बिना अपूर्णता का आभास होता है।
धर्म श्रद्धा पर आधारित है और विज्ञान बुद्धि पर। यह पाश्चात्य दृष्टिकोण है। वहाँ ईसाई धर्म और वैज्ञानिकों में गत चार-पाँच सदियों से पारस्परिक द्वेष एवं टकराव की स्थिति देखी जा सकती है। वैज्ञानिक धर्म को चमत्कार और अन्ध श्रद्धा मानते आये हैं और धार्मिक कहे जाने वाले लोग वैज्ञानिकों को नास्तिक कहते आये हैं। यही नहीं धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में भी जैसे- कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट आदि में भिन्न-भिन्न मान्यतायें होने के कारण संघर्ष होता आया है। मध्यकालीन युग में ईसाई तथा गैर ईसाइयों के बीच ही नहीं कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच भी एक दूसरों को सफाया कर देने वाले कट्टरवादी धर्म युद्ध हुए हैं।
धर्म के बारे में वैज्ञानिकों का ख्याल है कि धर्म पुस्तकों में जो लिखा है उसे ही सत्य मानना, उसके बारे में कोई प्रश्न नहीं कर सकना, यह बात विज्ञान के मूल-भूत सिद्धान्तों के विरुद्ध है। पाश्चात्य देशों में आरम्भ में धर्म सत्ता का ही बोलबाला था और वैज्ञानिकों के सत्यान्वेषण करने के लिए समर्पित हो जाने के लिए अटूट श्रद्धा को तोड़ने के लिए प्रयत्न किया गया। फलस्वरूप 19 वीं शताब्दी के अन्त में पाश्चात्य विज्ञान का नाम बुद्धिवादी हुआ और धर्म का नाम अंध श्रद्धालु, संकीर्ण एवं असहिष्णु हुआ। जिसका प्रभाव यह हुआ कि उसका दुष्परिणाम हम लोग भी भुगत रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के सत्प्रयत्नों ने पश्चिम की धार्मिक मान्यताओं एवं भारतीय वैदिक आध्यात्मिक विचारधाराओं के बीच के अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया।
भारत में विज्ञान का विकास करना ही होगा, बुद्धि को तीक्ष्ण करना ही होगा लेकिन भारत में विज्ञान और बुद्धि को आध्यात्मिक सिद्धान्तों से संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है। शिक्षित वर्ग में आज यह आम मान्यता भरी हुई है कि हम वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करेंगे लेकिन धार्मिक मान्यताओं को दूर करेंगे। सौभाग्यवश पाश्चात्य सुप्रसिद्ध, वैज्ञानिकों का झुकाव भारतीय अध्यात्म की ओर हुआ है तथा वे अध्यात्म और विज्ञान के संघर्ष से प्रसन्न नहीं हैं। साथ ही वे इसके समाधान के लिए प्रयत्नशील हैं। पाश्चात्य में भी धर्म के उच्च नेतागण भी अपनी धार्मिक मान्यताओं के बारे में बुद्धिगम्य और वैज्ञानिक आधार पर जोर दे रहे हैं। इसी तरह इन वैज्ञानिकों की संख्या भी बढ़ रही है जिनका मत है कि मनुष्य को धर्म और श्रद्धा की आवश्यकता है। लेकिन पाश्चात्य जगत में ऐसा बुद्धिगम्य और विज्ञान पर आधारित अध्यात्म न पाने से पश्चिम के कई मान्य धार्मिक और वैज्ञानिक लोग भी भारतीय तत्वज्ञान की ओर आकृष्ट हुए हैं।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर आर्थर एडिंगटन के कथनानुसार इस वैज्ञानिक युग में भी फेथ (श्रद्धा) का स्थान सर्वोच्च है क्योंकि बुद्धि श्रद्धा का एक छोटा अंग है।
अल्वर्ट आइन्स्टीन के अनुसार भी धर्म और विज्ञान के क्षेत्र में अलग-अलग होने पर भी इन दानों के बीच परस्पर आदान-प्रदान करने की बड़ी क्षमता है। धर्म ने विज्ञान से बहुत कुछ पाया है, लेकिन धर्म ने मानवीय जीवन का जो लक्ष्य दिया है उसकी ओर बढ़ना विज्ञान के लिये बाकी है। विज्ञान को सत्य एवं विवेक का अन्वेषण करना होगा। भावनाओं का श्रोत धर्म है। आइन्स्टाइन के मतानुसार मौलिक वैज्ञानिक वही है जिसको पूर्ण श्रद्धा है। धर्म के सिवा विज्ञान पंगु है और विज्ञान के सिवा धर्म अन्धा है।
आज के युग में आम आदमी मनहूस मनोवृत्ति वाला हो गया है जिसकी स्थिति यह है कि वह हर वस्तु की बाजारू कीमत तो जानता है, परन्तु किसी को उपयुक्त नहीं समझता। वैज्ञानिक मनहूस तो नहीं है लेकिन उनमें श्रद्धा भी कम हुआ करती है। उनको अपने कार्य से ही मतलब रहता है अन्य क्षेत्रों के प्रति प्रायः वह उदासीन जैसा रहता है।
वर्कले विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध भौतिकविद् प्रोफेसर फ्रिटजाफ काप्रा के कथनानुसार-वैज्ञानिक अनुसंधान में बौद्धिक तीक्ष्णता एवं बौद्धिक प्रक्रियायें ही मुख्य हुआ करती हैं लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। अगर बुद्धि के साथ अन्तःप्रेरणा का संयोग नहीं हो सके तो अनुसंधान प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाती। ये अन्तःप्रेरणाएं प्रयोगशाला के टेबल पर नहीं आती हैं, वे आती हैं प्रायः नैसर्गिक वातावरण में। जबकि वैज्ञानिक घने जंगलों में घूम रहा हो या समुद्र के ज्वार-भाटों को मन्त्र मुग्ध की भाँति देख रहा हो, ‘या’ शान्त चित्त होता है। इसी के सहारे मन में अपने कार्य क्षेत्र की विभिन्न परिकल्पनायें उठती रहती हैं तथा वह किसी अगम्य सत्ता से अपना सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। वैज्ञानिक कहता है कि इतना मैं जानता हूँ पर इसके आगे क्या है? मैं नहीं जानता लेकिन आगे कुछ अवश्य है, जिसे अनुभव करता है। यहीं से श्रद्धा शुरू होती है। अध्यात्म विज्ञान में श्रद्धा उसी का कहते हैं जिसमें अनजान तथ्य के प्रति सम्मानित मनःस्थिति होती है। जो इन्द्रियातीत है, वही श्रद्धा है। सामान्य ख्याल है कि शून्य आकाश खाली है लेकिन विज्ञान के आधुनिक आविष्कार दर्शाते हैं कि शून्य आकाश में अगणित कण विद्यमान हैं जिनकी उत्पत्ति और लय निरन्तर हुआ करती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान तथा भारतीय तत्त्वदर्शन यहाँ अति सान्निध्यता प्रकट करते हैं।
छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार ये समस्त दुनिया बहुत ही सूक्ष्म कणों की बनी हुई है, यही सत्य है। यही बात अन्यान्य उपनिषद् संदर्भों में भी प्रकट हुई है।
श्री रामकृष्ण परमहंस के कथनानुसार चेतना के दिव्य महासागर जिसको “ज्योतिसार ज्योति” अथवा सच्चिदानन्द नाम से पुकार गया है, का रसास्वादन करने के लिए दो मार्ग हैं। प्रथम है सगुण उपासना तथा निर्गुण उपासना। श्रद्धावान साधक अपने मनोरंजन में आरोपित भावनाओं से जिस तत्व की अनुभूति करता है उसी तत्व के विभिन्न स्वरूप की अनुभूति बुद्धि से भी हो सकती है। ‘एकम् सत्य विप्रा बहुधावदरन्ति’ सत्य एक ही है, विद्वतजन् उसका विभिन्न स्वरूपों में दर्शन करते हैं। इसी दर्शन के कारण भारत में चार्वाक जैसे ईश्वर को इंकार करने वाले सांख्य, जैन, बौद्ध आदि अर्ध ईश्वरवादी एवं अनेक देववाद को मानने वाले, विभिन्न विचार धाराओं वाले व्यक्तियों के बीच भी अन्योन्याश्रित प्रेम और आदर पाया जाता है। ठीक इसी तरह विज्ञान की चरम सीमा तक पहुँचने वाले मनीषी भी भारतीय तत्व ज्ञान में अपने ही मत का समर्थन अपने ही तौर तरीके से दर्शन कर सकते हैं।
अणुविद् वैज्ञानिक एर्विन स्त्रण्डिगर अपनी पुस्तक “जीवन क्या है?” में लिखते हैं कि चेतन तत्व की अनुभूति विभिन्न देश काल में भिन्न-भिन्न लोगों ने एक ही स्वरूप में की है। कहीं-कहीं इनमें भिन्नता भी पायी जाती है तो इसका एक ही कारण है कि तथ्य एक होने पर उसकी सजावट के साधन भिन्न हो सकते हैं।
आधुनिक भौतिकविद् दुनिया को बुद्धि युक्त मन से देखता है जबकि रहस्यवादी आध्यात्मिक सन्त अपने अन्तर्मन से देखता है। दोनों का गन्तव्य स्थान एक ही होने पर भी ऐसा लगता है दृश्य भिन्न-भिन्न हैं। अगर दोनों अपने लक्ष्य के अन्त तक पहुँच जांय तो एक ही दृश्य नजर आयेगा।