Magazine - Year 1985 - Version2
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Language: HINDI
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आत्मिक प्रगति का राजमार्ग
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अपने आपकी समीक्षा करना, व्यक्ति के वर्तमान स्वरूप को समझना आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। क्योंकि इसी आधार पर त्रुटियों का संशोधन और न्यूनता की पूर्ति करना सम्भव है। इस आत्म निरीक्षण का एक और भी पहलू है कि जो विशिष्टताएँ-आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक हैं, उनका यदि विकास नहीं हुआ है तो उसकी आवश्यकता अनुभव करते हुए आत्मोत्कर्ष का प्रयास सम्भव हो सकेगा।
वस्तुतः मनुष्य के पास ऐसा बहुत कुछ है जो सदा अप्रकट और अविकसित ही बना रहता है। मस्तिष्कीय क्षेत्र की अतीन्द्रिय क्षमताएं और अन्तःकरण की ऋद्धि सिद्धियां ऐसी हैं जो हर किसी के पास न्यूनाधिकता में पाई जाती हैं। यदि आत्म-निरीक्षण की कला हस्तगत हो सके तो मनुष्य इन दिव्य केन्द्रों का स्थान एवं स्वरूप समझ सकता है और उन्हें विकसित करने के लिए वह सब कर सकता है जो सुदृढ़ संकल्प शक्ति के सहारे निश्चित रूप से हो सकता है। योग और तप इसी प्रयोजन के लिए किया जाता है।
यदि लक्ष्य ईश्वर प्राप्त भर हो तो भी वह कार्य अमुक कर्मकाण्डों के बलबूते नहीं हो सकता। उसके लिए भी आन्तरिक परिष्कार और उपयुक्त चिन्तन चरित्र अपनाने की आवश्यकता है। तद्विषयक जो परिवर्तन या विकास करना है उसका स्वरूप सामने आने की बात तभी बनती है जब आत्म-निरीक्षण का सिलसिला परिपूर्ण उत्साह के साथ चलाया जाय।
यह भ्रम जितनी जल्दी दूर हो सके उतना ही अच्छा है कि ईश्वर प्राप्ति या देवाराधन के लिए अमुक कर्मकाण्ड ही सब कुछ हैं। लोग इसी भ्रम में ग्रसित रहकर अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप पूजा विधानों में संलग्न रहते हैं और सोचते हैं कि ईश्वर के भी मनुष्य की भाँति चर्म चक्षु ही हैं वह मात्र क्रिया-कृत्यों को ही देख पाता है किसी का अन्तरंग देखने या परखने की उसमें क्षमता नहीं है। या है तो इसे महत्व नहीं देता और हेय व्यक्तित्वों को भी उनकी क्रियाओं से प्रभावित होकर छाती से लगा लेता है।
पापों के क्षमा होने या उनके नाम प्रताप में नष्ट हो जाने की बात सही नहीं है। तीर्थाटन आदि कृत्यों में भी यदि कोई चाहे तो दिशा निर्देशन प्राप्त कर सकता है। पर पापों के नष्ट हो जाने या कर्मफल के उलट जाने की बात सोचना प्रकारान्तर से ईश्वर की बड़ी व्यवस्था उलट जाने की दुराशा रखना है। प्रभु के दरबार में पुजारियों के साथ पक्षपात होने और बिना पुजारियों के दूध में से मक्खी को निकाल फेंकने की उपेक्षा का कोई विधान नहीं है। इस तथ्य को समझते ही तुरन्त यह समस्या आगे आती है कि हमें अंतर्मुखी होने का अभ्यास करना चाहिए ताकि आत्म-निरीक्षण के साथ-साथ आत्म-सुधार का प्रयास भी चल पड़े। इसकी अनिवार्य आवश्यकता है। इस क्षेत्र में कोई सस्ते उपचार- आत्म प्रवंचना के अतिरिक्त और किसी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते।
आत्म निरीक्षण में सर्वप्रथम शरीर और आत्मा की मित्रता अनुभव करने का प्रसंग आता है। इसके बिना वह भ्रान्ति बनी ही रहती है जिसे अध्यात्म की भाषा में “माया’’ कहा जाता है। माया का सार संक्षेप इतना ही है कि चेतना अपने आपको मात्र शरीर मानती रहती है और उसके निर्वाह तक सीमित न रहकर उसे सजाने, समृद्ध बनाने, दर्प दिखाने में लगी रहती है। वासना, तृष्णा और अहन्ता की पूर्ति की ही सफलता एवं प्रसन्नता का केन्द्र बिंदु मान लिया जाता है। इतना ही नहीं शरीर के साथ संपर्क साधने वाले कुटुम्बी, सम्बन्धी, मित्र परिचित ही इस शरीराभ्यास के क्षेत्र में घुस पड़ते हैं। इन्हीं सबको वैभववान् बनाने के लिए इच्छाओं और चेष्टाओं का केन्द्रीकरण हो जाता है। जीवन की अवधि और शारीरिक मानसिक शक्ति का आना इसी क्षेत्र में होता रहता है। कूप मण्डूक जैसी-गूलर के भीतर रहने वाले भुनगों की तरह मनुष्य की स्थिति हो जाती है और वह आत्मा परमात्मा के सम्बन्ध में- आत्मोत्कर्ष एवं ईश्वर प्राप्ति के सम्बन्ध में कुछ गम्भीर विचार तक नहीं कर पाता। फिर सुधार विकास का उपक्रम तो चले ही कैसे?
आत्म-निरीक्षण का प्रथम चरण- आत्म-निरीक्षण जितना गम्भीर और प्रखर होता है। उसी अनुपात से शरीर और आत्मा की भिन्नता का वास्तविक बोध होता है। अन्यथा तोता रटन्त की तरह आत्मा परमात्मा चर्चा का बाल-विनोद चलता रहता है।
माया के बन्धन शिथिल होने या कटने का एकमात्र उपाय है कि अपनी सत्ता की द्विधा स्थिति को समझा जाय। यह अनुभूति विकसित हो सके तो ही आत्मा का महत्व एवं हित सूझ पड़ता है और शरीर के पक्ष में झुकी हुई सारी प्रवृत्ति को सन्तुलित करने का मन होता है। शरीर संसार में अनुरक्त करता है और आत्मा की प्रायः सर्वथा उपेक्षा करता है। यह सोच तक नहीं पाता कि हमारे भीतर आत्मा नाम की कोई वस्तु भी है और उसकी भी कुछ माँग, पुकार, सुख एवं आवश्यकताएं भी हैं। इस प्रकार की अनुभूति तभी होती है जब शरीर पर अपना सर्वस्व निछावर किये रहने के ढर्रे में हेर-फेर किया जाता है। आत्मा को परमात्मा का सन्देश सुनने और आह्वान को अंगीकार करने की बात अन्तरंग की गहराई तक प्रवेश कर जाती है, तभी यह सूझ पड़ता है कि शरीर की तरह आत्मा के निमित्त भी कुछ किया जाना चाहिए?
क्या किया जाना चाहिए? इसके उत्तर में दो तथ्य उभर कर सामने आते हैं। एक यह कि आत्म-गौरव के अनुरूप, व्यक्तित्व के ढलने में जो त्रुटियाँ चल रही हैं इसे कठोरतापूर्वक नियमन किया जाय, इसी को तप कहते हैं। इस संदर्भ में कठोरता बरतनी होती है अन्यथा अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियाँ सहज पीछा नहीं छोड़ती। तपश्चर्या में शरीर को अकारण काय कष्ट देना व्यर्थ है। इससे तो स्वास्थ्य गड़बड़ाता है। होना यह चाहिए कि ऐसा मनोबल विकसित किया जाय जो दुष्प्रवृत्तियों से मल्लयुद्ध करके उन्हें परास्त कर सके। यह संशोधन पक्ष हुआ।
इसके अतिरिक्त दूसरा पक्ष श्रेष्ठता के अभिवर्धन का है। यह आत्म विश्वास और आत्म-बल के आधार पर उपयुक्त कार्यक्रम बना लेने से भी सम्भव हो सकता है। पर इसके लिए सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय ईश्वर की उपासना करने से भी सहायता मिल सकती है। इसे योग कहते हैं। योग का तात्पर्य है- जुड़ना। किसके साथ जुड़ना? विराट ब्रह्म, समग्र समाज के साथ अपने को जोड़ना और क्षुद्र स्वार्थपरता के-सीमा बन्धन शिथिल करने का अभ्यास करना। योगी का दृष्टिकोण समता और क्रिया-कल्याण सर्वजनीन हित साधन का होता है। इसके लिए अभ्यास स्वरूप राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग में से किसी का या सभी के समन्वय का अभ्यास आरम्भ किया जा सकता है। यही है यथार्थवादी आत्मिक प्रगति का राजमार्ग।