Magazine - Year 1986 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
स्वर्ग नरक इसी धरती पर विद्यमान
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
लोक-लोकान्तरों के अद्यावधि किये गये सर्वेक्षण से पता चलता है कि समस्त ब्रह्मांड में पृथ्वी अपने ढंग की अनोखी है। इसके निवासी प्राणियों की सभ्यता-संरचना अन्य लोकों के संभावित प्राणियों की तुलना में कही अधिक श्रेष्ठ हैं। अन्य ग्रह नक्षत्रों की परिस्थितियों को देखते हुए वहाँ प्राणियों के होने की बात समझ में तो आती है, पर उनमें इतनी सुन्दरता, सुविधा और परिस्थितियों के अनुकूलन की सूझ-बूझ नहीं हो सकती। क्योंकि ताप, प्रकाश और ध्वनि का ऐसा सुयोग किसी लोक में कदाचित ही बन सके जैसा कि इस धरातल पर है। पृथ्वी का धरातल ठण्डा होकर जल से भर गया था और पवन चलने लगी थी, तब उन प्रारंभिक दिनों में यहाँ पर उत्पन्न हुए जीवधारियों की स्थिति भी विलक्षण थी। पानी में अमीबी स्तर के- शैवाल वर्ग के प्राणी वनस्पति उत्पन्न हुए, जबकि थल पर कछुए और सूकरों के दर्शन होते थे। पानी में मछलियाँ उपज पड़ी थीं। यह स्थिति तत्कालीन वातावरण के कारण बहुत दिनों तक बनी रही। इसके पीछे वाले युग में महागज, महासरी सृप जैसे प्राणियों ने जन्म लिया। अवतारों की शृंखला में भी मत्स्यावतार-कूर्मावतार, वाराहावतार, नृसिंहावतार, ह्यग्रीव अवतार आदि की स्थिति का वर्णन विकासकाल के इसी क्रम का परिचय देता है।
सौर-मण्डल के ग्रह-उपग्रहों को पहले से ही जाना जा चुका है। अब अन्तरिक्ष की पहुँच के भीतर वाले अन्य सभी ग्रह पिण्डों की स्थिति जानी जा रही है। पर अपनी पृथ्वी जैसी सुविधाजनक परिस्थिति और उतनी ही सुनियोजित आकृति-प्रकृति के बुद्धिमान प्राणियों का पता नहीं चला। कभी यह माना जाता था कि धरती ब्रह्मांड की केन्द्र है। पर अब सृष्टि की विराटता की जानकारी होने पर भी इतना तो माना ही जाने लगा है कि यह धरित्री सृष्टा की कलाकृति है। उसे बड़े मनोयोगपूर्वक बनाया गया है,किसी सौंदर्य दृष्टि वाले कलाकार द्वारा। बाह्य प्रतिकूलताओं से बचाने के लिये आयनोस्फियर के 1600 किलोमीटर चौड़ी परत के स्तर के एक से बढ़कर एक कवच पहनाए गये हैं। ब्रह्मांडीय किरणें अति घातक मानी जाती हैं। उनसे बचाव यह रक्षा कवच ही करते हैं। यही नहीं वे उन क्षुद्र ग्रहों- उल्कापिंडों। (एस्टेरॉइड्स) के प्रहार से भी धरती को बचाते हैं जो दो करोड़ प्रति मिनट की संख्या में सतत् अन्तरिक्ष में बरसते रहते हैं। ग्रहों का चूरा-मलबा भटकता-भटकता पिण्ड नक्षत्रों से जा टकराता है। इन टकराहटों के कारण ही हमारा चन्द्रमा खाई खड्डों से भरा कुरूप बन गया है। अन्य ग्रह भी इसी प्रकार क्षत-विक्षित होते रहे हैं, किन्तु पृथ्वी ही है जो कवचों की आड़ में अपनी रक्षा कर लेती है। अन्य, जल और वायु का ऐसा सुन्दर सन्तुलन यहाँ है, जिसका प्रभाव उसे सदा प्रगतिशील एवं फला-फुला बनाये रखता है।
आकाशीय उल्काएँ- ग्रह पिण्ड कभी-कभी रक्षा कवच बेध कर धरातल तक चली आती हैं। किन्तु इनसे कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी प्रहार से आबादी वाला क्षेत्र प्रभावित हुआ हो। अधजली उल्काएं पृथ्वी पर गिरती तो रहती हैं, पर आश्चर्य इस बात का है कि वे प्रायः समुद्रों अथवा पहाड़ों पर ही गिरती हैं। प्राणियों को किसी प्रकार की असाधारण क्षति पहुँचाने वाला उपद्रव नहीं करती। वस्तुतः मानवी प्रकृति के संसाधनों में इतने प्रकार के आधार विद्यमान हैं, जिनके कारण मनुष्य को इतना अधिक साधन सम्पन्न बनाने का अवसर मिला है कि उसने अपने को विश्व का मुकुटमणि और प्रकृति का अधिपति तक कहना शुरू कर दिया है।
मानवी आचार संहिता भी क्रमशः ऐसी बनती चली गई है जो मनुष्य को मर्यादाओं के अनुशासन में जकड़े रहती है। यदि ऐसा न होता तो सर्वत्र अराजकता फैल जाती और जंगल का कानून काम करता। दर्शन शास्त्र की, धर्म और आध्यात्म की ऐसी संरचना हुई है जिसके कारण व्यक्ति आदिम काल की तुलना में बहुत अधिक सभ्य एवं संस्कृत बन चुका है। यों अन्ध विश्वासों ने आस्थाओं के क्षेत्र में हानि भी कम नहीं पहुँचाई है।
जो वस्तु उपलब्ध नहीं होती अथवा प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती, उसके अस्तित्व की कल्पना प्रायः लोग अन्यत्र किया करते हैं। ऊर्ध्वलोक की, स्वर्गलोक की मान्यता प्रायः इसी आधार पर बनी है। स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक, विष्णुलोक, शिवलोक आदि के रूप में ऐसी बढ़ी-चढ़ी सुखद-आनन्द भरी परिस्थितियाँ कल्पित की जाती हैं। इन्हें उपलब्ध करने के लिए अनेक देवाराधन, दान पुण्य एवं धर्मानुष्ठान किये जाते हैं। किन्तु यथार्थता समझ में आ जाने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह स्वर्गानुभूति प्राप्त करने के लिए किसी अन्य लोक की यात्रा नहीं करनी पड़ती। वह अपने इसी लोक में, हर किसी के लिए हर कही उपस्थित है। यही कारण है कि इसे सुर दुर्लभ कहा जाता है। देवता इस लोक का आनन्द लूटने के लिए स्वर्ग से उतरकर प्रायः धरती पर आते हैं। ऐसी मान्यता है कि वे यहाँ आकर मानवी काया धारण करते हैं। भगवान को भी अवतार लेने हेतु धरती पर ही दौड़कर आना पड़ता है। अब तक पृथ्वी पर 24 अवतार होने का वर्णन मिलता है। अन्य धर्म की मान्यताओं को साथ लेकर चला जाय तो उनकी संख्या और भी अधिक हो जाती है। भगवान का भूलोक से असाधारण लगाव है। यहाँ की बिगड़ी परिस्थितियों को सुधारने के लिए स्वयं दौड़े आते हैं, जबकि अन्य लोकों में शीत-ताप सह्य बना देने तक उनका ध्यान नहीं गया या अवसर नहीं मिला।
स्वर्ग किसी स्थान विशेष का नाम नहीं है। परिमार्जित संतुलित एवं आदर्शवादी दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। इसे अपना लेने पर किसी भी परिस्थिति में सुखी रहा जा सकता है, हँसते-हँसाते जिया जाता है। भीतर से उमगने वाला स्नेह-सौजन्य का निर्झर दूर-दूर तक के क्षेत्रों को हुलसाता और पुलकित करता है। गुण, कर्म स्वभाव की- चिन्तन, चरित्र और व्यवहार की श्रेष्ठता अपने आप में इतनी महत्वपूर्ण है कि हर स्थिति में हर्षोल्लास की बहुलता खींचकर निकट ले आती है। इस प्रकार स्वर्ग जाना नहीं पड़ता, उसे अपने आकर्षक व्यक्तित्व की चुम्बकीय शक्ति से घसीट बुलाया जाता है। भगवान की तरह, देवताओं की भाँति स्वर्गलोक, ब्रह्मलोक आदि भी मनुष्य के निकट तक रहने के लिए लालायित रहते हैं। अपने व्यक्तित्व का सिग्नल देकर उन्हें अपना सहचर-अनुचर बनाया जा सकता है। योगीराज अरविन्द ने सुपरचेतन के अवतरण के माध्यम से इसी तथ्य का प्रतिपादन किया है।