Magazine - Year 1986 - Version 2
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वातावरण के संशोधन-उपचार की पुण्य-प्रक्रिया
महत्वपूर्ण पूर्णताओं के उपलक्ष में यज्ञ करने की पुण्य परम्परा अनादि काल से चली आई है। हमारे जीवन के साथ जुड़े हुए यों अनेकानेक कार्य ऐसे है, जिन्हें अनुपम, अद्भुत और आश्चर्यजनक कहा जाय तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी। 76 वर्षों में हमने यह प्रमाणित कर दिखाया है कि अध्यात्म कपोल कल्पना नहीं है। वह चेतना पक्ष का विशुद्ध विज्ञान है। भौतिक विज्ञान की तरह प्रत्यक्ष और प्रामाणित। उसके प्रतिफल उसी स्तर के हैं, जिन्हें स्वर्ग-मुक्ति ऋद्धि-सिद्ध नाम से जाना पहचाना जाता है। अनेक व्यक्ति कई साधनाएँ करने पर भी खाली हाथ रहते हैं पर हमने जो बोया, उसे सौ गुना बढ़ाकर काटा है। इसमें अध्यात्म की विधि व्यवस्था को सही रूप से अपनाने-भर की कमी रह जाती है। लोग पूजा पाठ का क्रिया-कृत्या तो कर लेते हैं, पर जीवन शोधन की अनिवार्य आवश्यकता की ओर ध्यान नहीं देते। यही वह भूल है जिसके कारण आत्मविज्ञान के सुनहरे प्रतिफलों से उन्हें वंचित रहना पड़ता है। हमारा जीवन एक अनुभव भरी नोट बुक के रूप में प्रस्तुत हुआ है, जिसे कोई भी दर्पण की तरह देख सकता है और यदि उस मार्ग पर चलना है तो पथ प्रदर्शिका के रूप में इस छोटी जीवनी का अनुसरण कर सकता है। हमारी उपासना, साधना और आराधना त्रिवेणी की तरह अवगुँठित हुई है और जीवन, तीर्थराज संगम की तरह बना है। प्रस्तुत वर्ष संसार में फैले भ्रमों का निवारण कर सकने योग्य प्रमाण साक्षी बन कर खरे सोने की तरह प्रस्तुत हुआ है इसकी हीरक जयन्ती परिजनों ने मनाई है तो उसे प्रस्तुत जीवनशैली के प्रति आस्था का प्रकटीकरण ही कहा जा सकता है। जीवन के 75 वें वर्ष में मनाई जाने वाली हीरक जयन्ती का द्विवर्षीय कार्यक्रम था। इसलिए इस वर्ष उसका समापन किया जा रहा है तो इसमें कुछ हर्ज भी नहीं है।
अखण्ड-ज्योति पत्रिका ही हमारा वह उपकरण है, जिसके माध्यम से 24 लाख प्रज्ञा परिजनों का एक सुगठित संगठन खड़ा किया जा सका और उसे आत्म-निर्माण, विश्व-कल्याण में लगाया जा सका। कोटि-कोटि शिक्षितों ने इसे पढ़ा और उससे अधिक अल्पशिक्षितों ने पढ़ा। इससे उस उद्देश्य की पूर्ति हुई, जिसे कभी सन्तजन घर-घर अलख जगा कर पूरा किया करते थे। गाँव-गाँव, घर-घर, नगर-नगर दिव्य चेतना का प्रकाश पहुँचाने में निरत रहते थे। अखण्ड-ज्योति के पिछले जीवन के 50 वर्ष इसी प्रयोजन में संलग्न रहे हैं। इसकी स्वर्ण-जयन्ती यदि उसके पाठक मनाते हैं तो इसमें भी उनकी श्रद्धासिक्त सद्भावनाओं की ही अभिव्यक्ति है। मंजिल का एक बड़ा चरण पूरा कर लेने पर यदि उसके पाठक हर्षोल्लास मनाते हुए स्वर्ण जयन्ती का आयोजन करते हैं तो इसमें कुछ अनुचित जैसा नहीं है।
इसी वर्ष पूरे होने वाले कार्यों में एक है तीन वर्ष से चली आ रही सूक्ष्मीकरण साधना का समापन। यह सावित्री साधना का एक प्रयोग था। उसे देश की देवात्मा कुण्डलिनी का जागरण कह सकते हैं। यह किसी व्यक्तिगत लाभ के लिए की गई साधना नहीं थी। विश्व-कल्याण एवं भारत का अभ्युदय इसका लक्ष्य था। इसे प्रचण्ड कुण्डलिनी जागरण स्तर पर करना पड़ा और भागीरथ, दधीचि जैसे कठोर अनुबन्धों का पालन करना पड़ा। तीन वर्ष सुरक्षित रूप से व्यतीत हो गये। यह आश्चर्य है, अन्यथा विश्वामित्र के त्रेता वाले यज्ञ की तरह उसमें विध्वंस व्यवधान के भी प्रयत्न होते और कई सुबाहु, मारीचि, ताड़का जैसे असुर तत्व अपने-अपने ढंग से छद्म आक्रमण करते। किया भी गया, हुआ भी। पर महाशक्ति ने ढाल बनकर उस कुचक्र को निरस्त कर दिया। बड़े कार्यों में बड़े जोखिम रहते भी हैं। वे आते रहे और टलते रहे। यह प्रयोग भी सफल हुआ। उसका प्रयोजन था कि अनेक दिशाओं से विश्वमानवता पर गहराते हुए संकटों का निराकरण हो। उनमें से कितने ही संकट टल गए हैं। कई टल रहे हैं और कई टलने वाले हैं। अपने समय का सबसे बड़ा संकट था “विश्वयुद्ध”। उसकी जड़ें काटी जा रही हैं। अणुयुद्ध का अतिवादी पक्ष था- स्टारवार “नक्षत्रयुद्ध”। लगता था यह कहर बरसा तो एक पक्ष संसार भर की सम्पदा अपने पैरों तले दबा लेगा। पर आज की परिस्थितियां बता रही हैं कि यह प्रयोग सफल नहीं हो सकेगा। चार बार “चैलेन्जर”- यान सहित अंतरिक्षीय उपग्रह अमेरिका द्वारा छोड़े गए। एक कक्षा में पहुंचने से पूर्व ही सात यात्रियों सहित जलकर राख हो गए। शेष औंधे मुंह धरती पर आ गिरे। अब “नक्षत्रयुद्ध” योजना के अमेरिकी अध्यक्ष वैज्ञानिक पीटर हीगल स्टीन ने अपना इस्तीफा दे दिया है और सरकार से सहयोग न करने का निश्चय किया है। साथ ही इसी विभाग के 100 केन्द्रों में काम करने वाले प्रायः सात हजार “स्टारवार” वैज्ञानिकों ने भी इस प्रयास में काम करने से इन्कार कर दिया। रूस व अमेरिका के मध्य रेक्जेविक (आइसलैण्ड) में हुई शिखरवार्ता के रीगन के अड़ियल रुख के कारण असफल हो जाने से भी जनआक्रोश उभरा है। रूस ने नरम रुख व स्थिति को देखते हुए स्पष्ट कहा जा सकता है कि विश्वयुद्ध का खतरा अब टल गया। इसके अतिरिक्त नजर आने वाली देश-विदेश की छुटपुट समस्याएं भी हमारा विश्वास है कि निकट भविष्य में ही सुलझ जाएंगी। शान्ति का वातावरण बनेगा और प्रगति चरण परिपुष्ट होगा। इस संभावना में विश्व देवात्मा की कुंडलिनी जागरण को भी उचित श्रेय दिया जा सकता है।
उपरोक्त तीनों ही कार्यों का समापन ऐसे विशाल यज्ञ के रूप में होने जा रहा है जो उन तीन महान कार्यों के अनुरूप हैं जो इन्हीं दिनों सम्पन्न होकर चले हैं। हमारे प्रत्यक्ष जीवन का पुरुषार्थ पक्ष पूरा होकर उसका वह पक्ष आरंभ होता है, जिसे अति सूक्ष्म कहा जा सके। “अखण्ड ज्योति” के लिये हमने भावी 14 वर्षों के लिये काफी कुछ लिखकर रख दिया है अथवा ऐसी व्यवस्था बनादी है कि हमारा चिन्तन निरन्तर जनमानस को झकझोरता रहे, चाहे लेखनी किन्हीं भी हाथों में हो। पाठकों को सामयिक मार्ग दर्शन भी समय-समय पर हमारी अनुपस्थिति में मिलता रहेगा। अब साधना क्षेत्र का वह पक्ष आरंभ होता है जिसे युग के अनुरूप एक उपलब्धि माना जा सके और असंख्यों अध्यात्मवादी उच्चस्तरीय लाभ उठा सकें।
अब तक सम्पन्न हुए कार्यों के समापन को एक मध्यान्तर माना जा सकता है। इसके लिए एक वर्ष की अवधि रखी गयी है, जिसमें एक सहस्र शतकुण्डी गायत्री महायज्ञ सम्पन्न होंगे। इनमें एक लाख कुण्डों में यज्ञाग्नि प्रज्वलित होगी। परिजनों के उत्साह को देखते हुए इसे भी बढ़ाना पड़ रहा है। अब 24 कुण्डों के चौबीससौ छोटे यज्ञ भी होंगे। इन सबमें खाद्यान्न नहीं, जड़ी बूटियों का ही प्रयोग होगा। आदिवासी क्षेत्रों में जो यज्ञ होंगे, उनके लिए शान्तिकुंज से हवन सामग्री भी बिना मूल्य दी जाएगी। आयोजनकर्ताओं को यज्ञ साधन जुटाने में परिश्रम व धन व्यय न करना पड़े, इसके लिए एक ट्रक में स्टेज, यज्ञशाला, प्रवचन-पण्डाल, चित्र प्रदर्शनी, यज्ञ-उपकरण, वक्ता, गायक, लाउडस्पीकर आदि सभी आवश्यक वस्तुएं भेजे जाने की व्यवस्था बनाई गई है। इस खर्चीली व्यवस्था को जुटाने के लिए शांति-कुंज ने अपने साधनों की सर्वमेध जैसी मनःस्थिति बनाली है।
गायत्री यज्ञों का अपना महत्व है। गायत्री-श्रद्धा, सद्भावना, संवेदना, विवेकशीलता की अधिष्ठात्री है। आज इन्हीं तत्वों का लोकमानस में अभाव पड़
डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड डडडडडडडडडडडडडडड
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