Magazine - Year 1986 - Version 2
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Language: HINDI
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श्रद्धा और अन्ध श्रद्धा
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श्रद्धा के साथ सद्भावना और विश्वास का समावेश होता है। विश्वास के लिए तो व्यक्तिगत मान्यता ही पर्याप्त है। ठग, विश्वासघाती कोई ऐसा प्रपंच रचते हैं जिससे भोले-भावुक व्यक्ति जाल में फँस जाते हैं और अपना सब कुछ गँवा बैठते हैं। पीछे भूल पर पछताते हैं। अच्छे लोग भी कभी-कभी विश्वासीजनों का शोषण करते देखे गए हैं।
श्रद्धा वस्तुतः किन्हीं आदर्शों पर अवलम्बित होनी चाहिए। कर्तव्य पालन, सच्चाई, ईमानदारी, जिम्मेदारी, नीतिमत्ता, सेवा-भावना, न्यायनिष्ठा के प्रति गहरी श्रद्धा होना उचित है। आत्म गरिमा और समाजगत हित-साधना में सदाचरण, सज्जनता, उदारता जैसे सद्गुण आते हैं। इनके प्रति अटूट श्रद्धा होने के पीछे आदर्श भी है, न्यायनिष्ठा भी एवं प्रामाणिकता भी। इन सद्गुणों को अपनाने से अपनी गरिमा निखरती है और दूसरों की भलाई होती है। संयम-अनुशासन भी इसी प्रकार पालने योग्य है। अपने आपको उच्छृंखल न बनने दें। इतना विलास और वैभव उपलब्ध न करें जो अन्यान्य मध्यवर्ती लोगों को प्राप्त नहीं है। अतिशय सम्पदा-अपव्यय, पाखण्ड, प्रदर्शन, जैसे दुर्गुण सिखाती है। यदि कोई औसत नागरिक स्तर के निर्वाह से अधिक कमाता है तो औचित्य इसी में है कि उस बुद्धि-वैभव, बल-पराक्रम को दुर्बलों को उठाने, उठतों को बढ़ाने और असमर्थों की सेवा-सहायता में लगायें। सत्प्रवृत्ति संवर्धन की विधि-व्यवस्था में खर्च करें। मर्यादाओं का पालन करें और वर्जनाओं का व्यतिरेक न होने दें। श्रद्धा का क्षेत्र यही है।
बहुधा लोग अपने देवता, सम्प्रदाय या गुरु आदि पर इतनी अधिक श्रद्धा आरोपित करते हैं कि उनके अतिरिक्त अन्य सभी प्रतिपादन झूठे या गर्हित प्रतीत होने लगते हैं। अपनी मान्यता के समर्थक शास्त्र सही लगते हैं और अन्य सभी को झूठा ठहराया जाता है। यह श्रद्धा का अतिरेक है, जिसके अपनी मान्यता-परिधि को छोड़कर और सब कुछ मिथ्या ही नहीं, घृणित भी प्रतीत होने लगता है। इसे अन्ध श्रद्धा कह सकते हैं। यह न सत्य की परिपोषक है, न उचित और न मानवी सौमनस्य के अनुकूल। इसमें दुराग्रह सन्निहित है।
दूसरे धर्मगुरु भी तपस्वी-सदाचारी हो सकते हैं। दूसरे सम्प्रदायों में भी अच्छी बात हो सकती है। दूसरे मंत्र या देवता भी श्रद्धानुरूप फल प्रदान कर सकते हैं। दूसरे शास्त्रों में भी नीति, न्याय और सदाचरण का समर्थन है; ऐसी दशा में उन्हें सर्वथा अमान्य कैसे ठहराया जा सकता है? हेय या तिरस्कृत कैसे किया जा सकता है?
इस संसार की सभी वस्तुएँ अपूर्ण हैं। उनमें कहीं न कहीं न्यूनता रहती है। पूर्ण तो एक परमात्मा है। पूर्ण सत्य तक अभी पहुँचा नहीं जा सका। इस तक पहुँचने के लिए बहुमुखी प्रयत्न चल रहे हैं और आशा की जा रही है कि देर-सबेर में उसका बड़ा अंश प्राप्त कर लिया जाएगा। संभवतः परब्रह्म और परमसत्य को मानवी बुद्धि की अल्पता समग्र रूप से समझ सकने में भी सफल न हो सके।
ऐसी दशा में अपनी ही मान्यताओं को पूर्ण मान बैठना और अन्य सभी को झूठा कहना दुराग्रह है। किसी की भी लिखी या कही बात को ईश्वरीय वाणी या पत्थर की लकीर मानना अनुचित है। जब मनुष्य अपूर्ण है तो उसकी कृतियाँ भी अपूर्ण हो सकती हैं। यह संभव है कि किसी धर्मगुरु की अन्तरात्मा ने अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुरूप कोई बात ईमानदारी से समझी और सच्चाई के साथ कही हो। पर यह नहीं कहा जा सकता कि संसार भर में प्रचलित अन्यान्य मान्यताओं में सभी गलत हैं और उनके प्रतिपादकों ने जो कुछ लिखा या कहा हो, वह मूर्खता या दुर्भावना से भरा हो। सत्य की ठेकेदारी हम अकेले ही लेते हैं तो उस महान तत्वज्ञान को अपनी छोटी अंजुलि में कैद करने का दुस्साहस करते हैं।
हमें सम्प्रदाय और संस्कृति के संबंध में विशेष रूप से मानवी विवेक को मान्यता देनी होगी। मानवी सदाचरण और विवेक एक हो सकता है। उसका मिल बैठ कर संशोधन, पुनर्नवीनीकरण भी किया जा सकता है। मंथन से नवनीत भी निकल सकता है। “जो सत्य है सो हमारा” यह कहना ठीक है। पर यह गलत है कि “हमारे द्वारा जो समझा व कहा जा रहा है, वही सत्य है।” गैलीलियो, न्यूटन, आइंस्टीन, हाइज़ेनबर्ग तक की तत्कालीन मान्यताएं जो कभी सत्य मानी जाती थीं, समय के प्रवाह व विज्ञान के विकास के साथ बदल गयीं।
वस्तुतः ईश्वर असीम है और मनुष्य ससीम। अपनी ससीमता के शिकंजे में असीम को जकड़ने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। ईश्वर एक है, कई नहीं। यदि उसे कुछ कहना होता तो सभी के लिये एक बात कहता। अनेक सम्प्रदायों के क्षेत्र में वह अनेक तरह की बातें कहे, अलग-अलग तरह के नियम बनाए, वह कैसे हो सकता है? जब सभी धर्म अपने मत को ईश्वर की वाणी कहते हैं, तो यह विचारणीय है कि उनके बीच अन्तर क्यों है? जब सभी शास्त्रकार और आप्तजन मान्य हैं, तो उनके प्रतिपादनों में अन्तर क्यों होना चाहिए? यहाँ निष्पक्ष विवेक को आधार मानकर चलते हैं तो यही मानना पड़ता है कि विभेदों की मत-मतान्तरों की दीवारें मनुष्यों की अपनी-अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के आधार पर सामयिक या क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान के लिए व्यक्त की गई हैं। उनमें से किसी पर भी उँगली उठाए बिना, किसी पर सन्देह या अविश्वास व्यक्त किये बिना यह हो सकता है कि आज की परिस्थिति के अनुरूप जितना औचित्य दृष्टिगोचर हो, उतना वहाँ से चुन लिया जाय और सभी शास्त्रों, आप्तवचनों का इसलिए सम्मान किया जाय कि अपने समय में उनकी भी उपयोगिता रही है। जिन गुरुजनों ने जो कहा है, वह सच्चाई-ईमानदारी से कहा है पर समय को क्या कहा जाय, जिसने परिस्थितियाँ भी बदली हैं और कसौटियाँ भी। ऐसी दशा में मान्यताओं और प्रतिपादनों के बीच अन्तर दीख पड़ना भी स्वाभाविक है। इसे हमें समझना और सहन करना चाहिए। जिस प्रकार वस्त्रों की डिजाइन की भिन्नता के कारण कोई किसी से लड़ता-झगड़ता नहीं, उसी प्रकार धर्म दर्शन के संबंध में भी इसी प्रकार की इतनी ही छूट होनी चाहिए कि जो जिसे रुचे, उसे वह अपनाये, पर दूसरों पर आक्षेप न करे। उन्हें निन्दनीय या नास्तिक या धर्मद्रोही आदि न ठहराये।
अपने प्रिय सम्प्रदाय, प्रतिपादनों, गुरु आदि के प्रति श्रद्धा रखना और उनका प्रतिपालन करना अपनी जगह उचित है। पर अनौचित्य तब आरम्भ होता है, जब हम अपनी मान्यता दूसरों पर थोपने का आग्रह करते हैं, इसके लिए उन्हें बाधित करते, सताते या फुसलाते हैं। मानवी मौलिक अधिकारों में विचारों की स्वतंत्रता की छूट है। प्रतिबंध वहाँ से आरम्भ होते हैं, जब वे नीति विरुद्ध होकर अपराधों की श्रेणी में जा पहुँचते हैं। उसके लिए राजदण्ड या समाजदण्ड ही पर्याप्त है। इसी के साथ आत्म प्रताड़ना भी सहनी पड़ती है, किन्तु किसी धर्म सम्प्रदाय के विषय में ऐसी बात नहीं है। वे सर्वग्राही, सर्वसम्मत एवं सार्वभौम नहीं है। हमारी ही तरह दूसरों को भी अपने दर्शन और प्रचलन को तब तक मानते रहने की छूट होनी चाहिए, जब तक वह दूसरों पर आक्षेप या आक्रमण न करे।