Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
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समुद्र को यों अचल और अस्थिर माना जाता है फिर वह गतिविधियों से रहित नहीं रहता। उसके विभिन्न रूप भी बनते रहते है। ऊँची नीची लहरें, ज्वार-भाटे, तूफान, भँवर आदि के कारण वह चंचल भी दिखाई पड़ता रहता है। सूर्य की ऊर्जा एक है जो सर्वत्र अपनी सौर मण्डल परिधि में वितरित होती रहती है, पर उस फरसता में भी अंतर रहता है। समीपवर्ती बुध अग्नि-काण्ड की तरह तपता है, जबकि मध्यवर्ती दूरी वाले पृथ्वी, मंगल जैसे ग्रहों में सह्य तापमान रहता है। दूरवर्ती प्लेटो जैसे ग्रह सदा शीतल ही रहते है। उन तक स्वल्प मात्रा में पहुँचता है। पर ब्रह्म की एकता, प्रचंडता और समस्वरता में कोई व्यवधान नहीं पड़ता, परिस्थितियों के अनुरूप उसकी विराट् सत्ता हलचल नहीं होती। उसकी इच्छा एवं व्यवस्था को पूरा करने के लिए विविध माध्यम भी अपना-अपना काम करते रहते है उत्पादन, अभिवर्द्धन और परिवर्तन की त्रिविध क्रियाएं तो अपने ढंग से चलती ही रहती है, फिर भी समय-समय पर बादलों का उठना, बरसना मेघों का दहकना, चमकना, तूफान, अन्धड़ चक्रवात जैसे दृश्य प्रकृति क्षेत्र में दीख पड़ते है। यों ब्रह्म की तरह प्रकृति भी शान्त और व्यवस्थित माना जाता है। पवन सर्वदा नियत प्रवाह में बहती है। किन्तु उसमें भी यदा-कदा जहाँ-वहाँ भयंकर चक्रवात और तूफान उठते देखे गये हैं। दुष्प्रभाव से उसका तापमान भी न्यूनाधिक हो जाता है। को कहते हैं- एकता के बीच अनेकताओं का रहना। अनेकताओं के बीच एकता के दर्शन करना। पृथ्वी गोल है। भी उसमें पर्वतों खंदकों की कमी नहीं, दीपों महाद्वीपों के कारण वह छिन्न-भिन्न एवं अनेक रूपों में छाई हुई भी दीखती है। इसे नियन्ता की उसकी इच्छा या अवस्था की विचित्रता ही कह सकते है।
परब्रह्म एक है उसे विराट विश्व के रूप में प्रत्यक्ष रूप में भी देख जा सकता है। भूलोक अथवा ब्रह्माण्ड उसकी प्रत्यक्ष छवि है। इस विशालता में चलती रहने वाली विभिन्न हलचलों का क्रियान्वयन में उसकी विभिन्न सामर्थ्य काम करती रही हैं, उसी प्रकार जैसे कि शरीर-के अनेक अवयव मिलजुल कर जीव चेतनाओं के अनुशासन में काम करते रहते हैं। प्रकृति में ताप, ध्वनि और प्रकाश की शक्तियाँ सक्रिय है। पंच तत्वों, पंच प्राणों का अपना एक विशिष्ट परिकर है जो जीवधारियों के उत्पादन अभिवर्द्धन में कार्यरत रहता है।
विश्व व्यवस्था के चेतना क्षेत्र को गतिशील बनाने में पराशक्ति के कितने ही सचेतन घटक है। इनमें सर्वोच्च स्तर के हैं-देव। जो ब्रह्म चेतना के अतीव निकट एवं उसके साथ जुड़े हुए माने जाते है। उनकी संरचना अपेक्षाकृत अधिक प्रत्यक्ष है। वे ईश्वर इच्छा व्यवस्था को कार्यान्वित करने में संदेह वाहक की भूमिका निभाते हैं असन्तुलनों को सम्भालते हैं। क्षतियों की पूर्ति करते हैं। अनौचित्य को औचित्य में बदलते हैं। जीवात्माएँ उनका आश्रय लेकर परमतत्व तक पहुँचने में सुविधा अनुभव करती हैं। सीढ़ियों पर पैर रखते हुए छत तक पहुँच जाना भी ता सरल पड़ता है। प्राणियों के संकटों एवं अभावों की पूर्ति के लिए वे ब्रह्मतत्त्व से आवश्यक समर्थता एवं सम्पन्नता उपलब्ध करके अभावग्रस्तों को उपलब्ध कराते रहते हैं। उनका प्रधान कार्य ही सन्तुलन बनाये रहना है। जब कभी उसमें बिगाड़ आता है तो उसका समाधान करने के लिए उनकी दौड़-धूप विशेष रूप से क्रियाशील होती देखी जाती है। यह देव ही जब तब अवतारों के रूप में प्रकट होते हैं। समूची ब्रह्म सत्ता तो अपना व्यापक रूप यथावत् ही बनाये रहती है। निराकार को साकार नहीं बनना पड़ता। उस प्रयोजन को देव शक्तियाँ ही निपटा देती है।
देव समुदाय का दूसरा वर्ग ऐसा है जो प्रकृति के जन समुदाय के अधिक निकट है। मनुष्यों में, क्षेत्रों में, व्यवस्थाओं में उसकी विशेष दिलचस्पी होती है। अपनी सीमित सामर्थ्य के अनुरूप वह बिना प्रमाद किये अपना कर्त्तव्य पालन भी करता रहता है। इस समुदाय में यक्ष, गंधर्व और सिद्ध पुरुष आते हैं। यक्ष गंधर्व सुरक्षित सेना की तरह हैं, उन्हें कार्य में तभी जुटना पड़ता है जब कहीं महत्त्वपूर्ण कार्य अड़ता है। इन्हें दिक्पाल या दिग्गज के नाम से भी जाना जाता हैं अन्तर्ग्रही विपत्तियों से वे पृथ्वी को बचाते हैं। अभावों को जहाँ-तहाँ से पूरा करते है। गंधर्व, उल्लास के कर्णधार हैं। शरीर को जिस प्रकार अन्न, वस्त्र की-मस्तिष्क को जिस प्रकार ज्ञान अनुभव की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार अन्तःकरण उल्लास भरा विनोद मनोरंजन चाहता है। कला का प्रयोजन यही है। वस्त्र इस का प्रतिनिधित्व करता है। सौंदर्य एवं माधुर्य इसका सहचर है। काम-कौतुक में भी उसका हस्तक्षेप है। यह गंधर्व क्षेत्र है। ये शक्तियाँ भी अपने अंग से हर प्राणी को जिस-तिस सीमा तक अनुदान जुटाती रहती है। देव, यक्ष और गंधर्व उच्च लोक के वासी, उच्च भूमिकाएँ निभाने वाले माने गये है। वे पात्रता के अनुरूप अहैतुकी कृपा करते रहते हैं। कभी-कभी आराधना अनुष्ठान से भी आकर्षित होते और अनुग्रह करते देखे गये है।
भूलोकवासी प्राणियों से अधिक घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले, उनके कार्यों में अधिक रुचि लेने वाले, अधिक सहयोग करने वाले दो वर्ग है,-एक सिद्ध पुरुष दूसरे पितर। दोनों के शरीर तो सूक्ष्म होते है और वे आवश्यकतानुसार अपना परिचय स्थूल शरीर धारियों जैसा भी देने लगते हैं, पर उनकी सत्ता, महता, शक्ति एवं इच्छा के बीच असाधारण अन्तर पाया जाता है। फिर भी दोनों की गणना सूक्ष्म शरीरधारी मान्य स्तर से कुछ ऊँचे उठे हुए मूल्यों में ही की जा सकती है।
सिद्ध पुरुष योग और तप का आश्रय लेकर अपने स्थूल शरीर का ही सूक्ष्मीकरण कर लेते हैं। यह भी हो सकता है कि वे मिट्टी के समान इस शरीर का परित्याग कर दें और सूक्ष्म शरीर द्वारा उन कार्यों में संलग्न हों जो लोक मंगल के लिए नितान्त आवश्यक हैं। शरीर के सीमा बन्धन में बँधे रहने पर जीवात्मा को जहाँ कई प्रकार की सुविधा, सरसता का लाभ मिलता है वहाँ यह कठिनाई भी है कि कार्य उतना ही हो सकता है जितना कि काया की सीमित शक्ति के अंतर्गत बन पड़ता है। सूक्ष्म शरीर सक्रिय हो उठने पर वे सारे व्यवधान दूर हो जाते हैं जो शरीर को सीमित एवं आधि–व्याधि ग्रसित बनाये रहते थे। सीमा टूट जाने पर वे अपने को असीम अनुभव करते हैं। जीवित स्थिति के साधक जिन्हें अतीन्द्रिय क्षमताओं के रूप में प्राप्त करके गौरवान्वित होते थे, उससे अनेक गुनी दिव्य शक्तियाँ सूक्ष्म शरीर धारी सिद्ध पुरुषों को अनायास ही ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में मिल जाती है। वे स्थूल काया का या ता पूर्णतया परित्याग कर देते हैं या फिर उसे प्रबल अध्यात्म प्रयत्नों द्वारा सूक्ष्म कर लेते हैं। सूक्ष्म शरीर की जीवन अवधि असीम है। वह युग-युगान्तरों तक भी उसी स्थिति में रह सकता है। आवश्यकतानुसार वह अपने पुराने शरीर को भी धारण कर सकता है या अन्य किसी की आकृति धारण करके अपने अस्तित्व एवं पराक्रम का परिचय दे सकता है। ऐसे सिद्ध पुरुष प्रकारान्तर से उच्च कोटि के योगी हैं जिनकी क्षमता देवलोक के साथ जुड़ती है और क्रियाशीलता लोक-हित के कामों में लगी रहती है। उनकी भूमिका जिम्मेदारी उद्यान के माली जैसी होती है। वे विशाल अन्तरिक्ष में कहीं भी रह सकते है, आवश्यकतानुसार कहीं भी पहुँच सकते हैं, पर पाया यही गया है कि वे निर्धारित जिम्मेदारी को पूरा करने के उपरान्त वापस हिमालय के देवात्मा क्षेत्र में ही लौट आते है। वहाँ विश्राम करते हैं, थकान उतारते हैं और गंवाई शक्ति को पूरा करने के लिए अथवा भविष्य के लिए सामर्थ्य संचय करने के लिए अपने ढंग की विशेष साधना आरम्भ कर देते हैं। खाली समय को वे स्वेच्छाचार में नहीं बिताते, वरन् योजनाबद्ध रूप से उसकी उच्च स्तरीय शक्ति संचय का प्रयास करते रहते हैं ताकि समय की पुकार पर किसी भी क्षेत्र की उन्हें जो भी प्रेरणा मिले उसे बिना हिचक क्रियान्वित कर सकें।
इसी अवधि में उनका एक कार्य और भी होता है-वंश वृद्धि। वे भी परब्रह्म की तरह एक से अनेक बनना चाहते हैं। अनेकों को अपने सदृश बनाना चाहते हैं। अपने संचित अनुदानों का एक बड़ा अंश उन्हें प्रदान भी करते रहे है। अभिभावक यही करते हैं। सन्तान पर अपना समय, मनोयोग एवं वैभव निःसंकोच लुटाते है। अल्प समर्थों में अति समर्थ बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते है। हर पिता अपनी सन्तान को अपने ही सदृश तथा अपने से भी अधिक बढ़ा-चढ़ा देखना चाहता है। अभिभावकों और सन्तान के बीच इसी आधार पर आदान-प्रदान चलता रहता है और कई सौभाग्यशाली उत्तराधिकारियों को सहज ही धनाध्यक्ष बनने की तरह सिद्ध पुरुषों के अनुग्रह से वह असाधारण क्षमताएँ एवं सफलताएँ प्राप्त कर लेते हैं जो निजी प्रयत्नों से कदाचित ही उपलब्ध हो पातीं।
सिद्ध पुरुषों की अनुकम्पा, सहायता प्राप्त करने के लिए कितने की लोग लालायित फिरते हैं। उनके दर्शन करने और चमत्कार देखने के लिए आतुर फिरते हैं। इसके लिए वन पर्वतों की खाक छानते हैं, पर ऐसे लोगों को असफलता ही मिलती हैं, क्योंकि दिव्यदर्शी सिद्ध पुरुष घट-घट की जान लेते हैं। उन लोगों का क्षुद्र मनोरथ ऐसा होता है जिसे परखने में उन्हें तनिक भी कठिनाई नहीं होती। वे मदारी के हाथ की कठपुतली बनने में अपना अपमान अनुभव करते हैं। फिर क्षुद्रजनों के मनोरंजन या कामना पूर्ति के लिए वे क्यों अपना तप या समय खराब करें? वे भले प्रकार जानते है कि उन्हें अपना बहुमूल्य अनुग्रह किस व्यक्ति के किस काम के लिए प्रदान करना है? ऐसे सत्पात्रों को वे स्वयं तलाशते फिरते हैं और जहाँ खिला कमल दिखता है उस पर भौंरे की तरह वे स्वयं जा पहुँचते हैं। उद्देश्य स्पष्ट है, प्रामाणिक प्रतिभावानों को सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में जुटाने के लिए आवश्यक सहयोग प्रदान करना। यह हर किसी से करते नहीं बन पड़ता। जिनने पहले से ही अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को उदार साहसिकता से ओत-प्रोत कर रखा है, जिनने संयम साधा है। लोभ, मोह, अहंकार से छुटकारा पाया है, उन निस्पृह व्यक्तियों से यह आशा की जा सकती है कि वे लोकमंगल की साधना में निरत हो सकेंगे। पुण्य प्रयोजनों के लिए अपने श्रम, समय मनोयोग एवं साधनों को लगावेंगे। इस स्तर की उत्कृष्ट प्रामाणिकता को सिद्ध करने में जिन्होंने अनेकों बार अग्नि परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। उन्हें ही देव पुरुष दिव्य प्रयोजनों के लिए वरण करते हैं। दर्शन या अनुग्रह उन्हें ही प्रदान करते हैं। करने के बाद यह भी देखते रहते हैं कि जो दिया गया है वह पुण्य प्रयोजनों में लगा या नहीं। जिन्हें मात्र स्वार्थ ही नशे की तरह सवार है उनकी क्षुद्रता दुर्गन्ध की तरह उड़ती रहती है और किसी सिद्ध पुरुष के समीप पहुँचने पर उसे समीप नहीं आने देती। हेय मनोभूमि के लोग ललक लिप्साओं की पूर्ति के लिए सिद्ध पुरुषों को अपने चंगुल में फँसाने के लिए बहेलिया की तरह जाल बिछाये फिरते हैं, पर वे राजहंस-परमहंस ऐसे हैं जो यह भली भाँति जानते हैं कि कुपात्रों और सुपात्रों की सहायता करने पर उसके क्या बुरे, भले परिणाम होते हैं? कुपात्रों के हाथ पहुँची दिव्य शक्ति वैसे ही विग्रह खड़े करती है जैसे कि भस्मासुर, मारीच, रावण, हिरण्यकश्यप महिषासुर आदि के हाथों सिद्धियाँ पहुँचने में अनर्थ खड़े हुए हैं। सिद्धों को तलाशने के लिए जहाँ तहाँ मारे-मारे फिरने वाले निश्चित रूप से खाली हाथ लौटते हैं। वे असफलता के उपहास से बचने के लिए मन-गढ़न्त झूठे उपाख्यान गढ़ लेते हैं और भोले भावुक-जनों पर अपनी धाक जमाने के लिए उन मनगढ़ंतों का प्रचार करते हैं कि उनकी अमुक क्षेत्रों में किन्हीं सिद्ध आत्माओं से भेंट हुई। उनने यह दिया यह कहा आदि। ऐसी मनगढ़न्त बातें अनेकों के मुँह से सुनी जाती हैं और किंवदन्ती के रूप में जहाँ-तहाँ प्रचारित होती हैं। इनकी सचाई जाँचने के लिए एक ही कसौटी है कि भेंट करने वाला उत्कृष्ट चरित्र का विशिष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न था या नहीं। उसने दिव्य अनुग्रह को पाकर लो मंगल के लिए कोई महत्त्वपूर्ण त्याग पुरुषार्थ किया या नहीं।