Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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सफलताएँ कर्मनिष्ठ के पीछे फिरती हैं।
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कर्म और कर्मफल में अपना अधिकार न मानना ही अनासक्ति कही गई है। कर्म में कर्त्तापन का भाव रखना और उसके फल में अपना अधिकार मानना ही आसक्ति है। आसक्तिवान व्यक्ति जल्दी ही परिस्थितियों तथा परिणामों से प्रभावित हो उठता है। किन्तु कर्म और उसके अच्छे-बुरे, अनुकूल, प्रतिकूल परिणामों का बोझ अपने ऊपर न लेने वाला किन्हीं विषमताओं से प्रभावित नहीं होता--फलतः उसका सुख, चैन, शान्ति और सन्तोष अक्षुण्ण बना रहता है। न तो वह कभी निराश होता है और न हतोत्साहित। वह जीवन पंथ पर निर्द्वंद्व भाव और अप्रतिहत गति से बढ़ता चला जाता है।
डेल कार्नेगी ने अपना एक संस्मरण लिखा है कि हेनरी फोर्ड के पास मैंने जाकर पूछा कि इतना कार्य-भार होते हुए भी आप स्वस्थ कैसे रहते है? इस पर उन्होंने कहा ‘मैं’ ईश्वर को अपने कार्यों का प्रबन्धक, स्वामी मानता हूँ और अपने आपको काम करने वाला श्रमिक। ईश्वर को अपने कार्यों का प्रबन्धक और स्वामी मानने से फिर मुझे कोई चिन्ता नहीं रहती और इसी निश्चिन्तता से मैं अधिक स्वस्थ और सन्तुष्ट रहता हूँ।
कर्म और कर्मफल में आसक्ति रहने से मनुष्य को अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों से गुजरना पड़ता है और इसी के अनुसार आशा निराशा को भी सामना करना पड़ता है और इससे मनुष्य की शक्तियों का काफी क्षय होता है। अपने कर्म और कर्मफल को ईश्वर पर छोड़ देने से निराशा, चिन्ता, असन्तोष को कोई स्थान नहीं रह जाता। मनुष्य का आशावाद ही एकमेव अजर-अमर रहता है। तत्ववेत्ता अरस्तू ने लिखा है---’अपने कर्मों और उसके फल को ईश्वर पर छोड़ देने से आशावाद अजर-अमर बनता है। ईश्वर सभी तरह आशावाद का केन्द्र हैं। आशावाद और ईश्वरवाद एक ही है। ‘ईश्वर का अवलम्बन लेने पर, अपने कर्म और कर्मफल का समर्पण ईश्वर को कर देने से सफलता असफलता मनुष्य को प्रभावित नहीं करती। अजर-अमर आशावाद के सहारे वह दोनोँ में सन्तुलित रह कर कर्म पथ पर अग्रसर होता रहता है।
आज भी लोग आये दिन पचासों मील लम्बी-चौड़ी नदियाँ और उपसागरों को तैर कर पार करते रहते हैं। मनुष्य को स्वाभाविक बल इतना कहाँ कि वह उस कठिन संतरण को केवल तैरने की कला के आधार पर पूरा कर सके। यह उनका अदम्य आत्म-विश्वास ही होता है जो उन्हें थक कर भी थकने और हार कर भी हारने नहीं देता। एक महान नौका की तरह ले जाकर पार लगा देता है। आत्म-विश्वास को मानव जीवन की नौका ही माना गया है। निश्चय ही वह एक सुदृढ़ नौका के समान ही है। यदि मनुष्यों के पास आत्म-विश्वास न हो तो वे संसार की लाखों आपत्तियों विपत्तियों उलझनों और समस्याओं से कैसे पार पा पायें? यह उनका आत्म-विश्वास ही होता है, जो संकटों में भी धीर पुरुषों को सक्रिय तथा साहसी बनाये रहता है। आत्म-विश्वास के समाप्त होते ही मनुष्य का पुरुषार्थ मर जाता है। पराक्रम तिरोधान हो जाता है। आशा और उत्साह के दीप बुझ जाते है। जीवन में भय और आशंकाओं का घटाटोप अन्धकार छा जाता है।
मनुष्य में एक नहीं अनेक प्रकार की शक्तियों का भण्डार भरा पड़ा है। वह सर्व समर्थ ईश्वर का अंश जो है। उसमें उसी प्रकार की विश्व शक्तियों के न होने की कल्पना करना असंगत ही नहीं अन्याय भी है। किन्तु इन शक्तियों का लाभ वही पाता है, जो आत्म-विश्वासी होता है।