Magazine - Year 1988 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
समष्टि के घटक ही हैं हम सब
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
हमारा शरीर एक पावर हाउस की तरह है, जिसमें लो-वोल्टेज विद्युत सदा पैदा होती रहती है। इसी से शरीर के सारे क्रिया-कलाप सुचारु रूप से चलते और हम स्वस्थ बने रहते हैं, किन्तु जब कभी इस निर्माण-प्रक्रिया में कोई व्यवधान उत्पन्न होता है, तो हमारा स्वास्थ्य गड़बड़ाने लगता और रोग जैसी स्थिति प्रस्तुत होती है। जैव विद्युत के परिणाम में इस प्रकार के परिवर्तन के आधार पर रोग-निदान का सर्वप्रथम अध्ययन येल यूनिवर्सिटी के शरीरशास्त्री हैराल्ड बर्र ने किया।
इसके लिए उन्होंने एक प्रयोग के माध्यम से सबसे पहले यह सिद्ध किया कि प्रत्येक जीव का अपना एक विद्युतीय क्षेत्र होता है। प्रयोग में उन्होंने एक प्लेट पर जीवित सैलामैण्डर रख कर उसे नमकीन जल में तैरता छोड़ दिया। इस प्रयोग में बर्र यह मान कर चले थे कि सैलामैण्डर का भी अपना एक चुम्बकीय क्षेत्र होगा और जब दो क्षेत्रों में परस्पर टकराव होगा, तो उससे विद्युत पैदा होगी। इसीलिए उनने बिजली के अच्छे सुचालक नमकीन बल का ताँबे के तार के आरमेचर की तरह प्रयोग किया। जब उनने प्लेट को बार-बार घुमाना शुरू किया तो इससे सैलामैण्डर के अपने जैव क्षेत्र में व्यतिक्रम उत्पन्न हुआ, जिससे उसमें डूबे इलेक्ट्रोड ने विद्युत प्रवाह दर्शाना शुरू किया। जब इस धारा को गैल्वेनोमीटर द्वारा मापा गया, तो उसकी सुई बारी-बारी से दाँये-बाँये घूमती रही, जो यह दर्शाती थी कि जैव-डायनामों में डी0 सी0 विद्युत पैदा हो रही है। जब प्लेट को सैलामैन्डर विहीन करके घुमाया गया, तो बिजली का बनना बन्द हो गया और गैल्वेनोमीटर की सुई स्थिर हो गयी।
इस प्रयोग ने यह सिद्ध कर दिया कि जन्तुओं का भी अपना वैद्युतिक क्षेत्र होता है। उपरोक्त प्रयोग में सफलता मिलने के बाद डा. बर्र ने मानवी विद्युत को मापने का प्रयत्न किया। इसके लिए उनने निर्वात-नली वोल्टमीटर कुछ अतिरिक्त उपकरण जोड़ कर एक अत्यन्त सुग्राही विद्युत मापक यंत्र का निर्माण किया। इसमें सिल्वर क्लोराइड के दो इलेक्ट्रोड भी लगे थे। मापक यंत्र की तरह प्रयोग करते समय इन इलेक्ट्रोडों को अंगों के वास्तविक संपर्क में नहीं लाया गया, वरन् दोनों के बीच कोई अति सुग्राहक लेई अथवा नमकीन जल का प्रयोग किया गया।
आरम्भ में बर्र ने 60 व्यक्तियों पर प्रयोग किये। दो पृथक पात्रों में खारा जल लेकर एलेक्ट्रोड को अलग-अलग उनमें रखा गया। फिर प्रत्येक व्यक्ति को बारी-बारी से उनमें तर्जनी उँगली रखने को कहा गया, तत्पश्चात् औसत मापन के लिये पात्र परस्पर परिवर्तित कर दिये गये। यह परीक्षण एक वर्ष तक प्रत्येक दिन निश्चित समय पर ही किये गये। उनमें हर व्यक्ति के साथ प्रतिदिन शरीर विद्युत में कुछ कमीवेशी देखी, यह पुरुषों पर किये गये प्रयोग थे। जब यही प्रयोग महिलाओं पर किये गया। तो उनमें वोल्टेज पैटर्न में कुछ भिन्नता देखी गयी। हर महीने में एक बार उनमें वोल्टेज अति उच्च पाया गया। वोल्टेज की यह अधिकता करीब चौबीस घंटे तक बनी रहती। प्रायः यह वोल्टेज परिवर्तन मासिक चक्र के माध्य ही दिखाई पड़ता। इस आधार पर शोधकर्ता ने अनुमान लगाया कि संभवतः यह प्रक्रिया स्त्रियों के मासिक धर्म के दौरान हो रही ओवूलेशन (अण्ड क्षरण) क्रिया से संबद्ध हो।
इस बात की पुष्टि खरगोश पर किये गये प्रयोग से हो गई। कृत्रिम रूप उनने एक खरगोश को उत्तेजित किया। उनमें अण्ड क्षरण की प्रक्रिया आठ घंटे पश्चात् होती है, अस्तु इस अवधि के उपरान्त उसे बेहोश कर उसका पेट चीरा गया और अण्डाशय के ऊपर एलेक्ट्रोड रख कर लगातार वोल्टेज पैटर्न को रिकार्ड किया जाने लगा। बर्र ने पाया कि फालीकल के फटने के बाद जैसे ही अण्डा बाहर आता है, वोल्टेज अप्रत्याशित रूप से बढ़ जाता है।
बाद में इसकी पुष्टि मनुष्यों में भी हो गई। एक महिला, जिसका कि आपरेशन होने वाला था यह प्रयोग दुहराया गया तो परिणाम पहले जैसा ही रहा, जिससे यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गई कि यह ओवुलेश नहीं है, जो स्त्रियों के जैव वैद्युतिक क्षेत्र में विस्मयकारी परिवर्तन लाता है। वोल्टमीटर जैसे अति सामान्य-से उपकरण के प्रयोग से अण्ड-क्षरण के सही-सही समय की जानकारी मिल जाने से हर व्यक्ति के लिए ऐच्छिक गर्भ निरोध प्रक्रिया भी अब संभव हो गयी है।
इस शरीर-विद्युत को वैज्ञानिक हैरॉल्ड बर्र ने “जैव-क्षेत्र” संज्ञा दी। प्रयोगों के आधार पर जब उन्हें इस बात की जानकारी हुई कि हर जीव का अपना एक “जैव क्षेत्र” है और उसमें परिवर्तन बेतरतीब नहीं, अपितु नियमानुसार होता है तथा ऐसा जैव-क्रियाओं से सम्बद्ध होने के कारण होता है, तो उनने अनुमान लगाया कि बीमारियों का भी इस जैव क्षेत्र पर निश्चित रूप से प्रभाव पड़ता होगा। इसी अनुमान के आधार पर एक डॉक्टर की मदद से उनने न्यूयार्क बेलेण्यू अस्पताल की हजारों महिलाओं पर अपने विशेष यंत्र के माध्यम से परीक्षण किये। 102 मामलों में उनने ग्रीवा और उदर के मध्य भाग में किसी न किसी प्रकार की असामान्यता देखी। दूसरी अन्य शिकायतों के कारण जब उनका आपरेशन किया गया, तो इनमें से 95 महिलाओं में या तो गर्भाशय का अथवा गले का कैंसर आरंभिक स्थिति में पाया गया। ज्ञातव्य है कि अन्य किसी परीक्षण में कैंसर की उपस्थिति का पता इनमें नहीं चल पाया था और न इसका कोई लक्षण ही रोगियों में प्रकट हुआ था किन्तु वोल्टमीटर ने वोल्टेज में असामान्य परिवर्तन के आधार पर इसका स्पष्ट संकेत दिया। इस प्रकार जैव क्षेत्र में लक्षण प्रकट होने से पूर्व की भिन्नता को नोट कर छिपे रोगों की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त की जा सकती है और समय रहते उपाय उपचार किये जा सकते हैं। यह मानव में छिपी विद्युत के रहस्योद्घाटन का ही चमत्कार है।
इतना ही नहीं उक्त शरीर विज्ञानी ने यहाँ तक दावा किया है कि छोटे-से-छोटे आन्तरिक घाव की जानकारी देने व इस संदर्भ में अति संवेदनशील सुपर एक्स-रे की भूमिका निभा सकने में भी यह वोल्टमीटर अत्यन्त दक्ष है। प्रायः छोटे घाव सामान्य यंत्र-उपकरण की पकड़ से परे होते है।
वे कहते है इस जैव-क्षेत्र का मस्तिष्कीय तरंगों से कोई संबंध नहीं हैं। उसका सीधा संबंध तो हृदय मस्तिष्क एवं इस प्रकार के अन्यान्य अवयवों से है, जिनकी धड़कन और उत्प्रेरणा से हर बार विद्युतीय आवेश उत्पन्न होता है। जैव क्षेत्र ऐसे सभी एवं दूसरे प्रकार के आवेश विभिन्न प्रकार की रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप शरीर के भीतर उत्पन्न होते है, जो अनवरत रूप सदा चलते ही रहते है।
जीव में किसी प्रकार के जैनेटिक परिवर्तन को भी जैव-विद्युत सक्षमतापूर्वक अभिव्यक्त करता है। यह दिखाने के लिए प्राणी शास्त्री डा. हेराल्ड ने दो बिल्कुल शुद्ध नस्लों वाले मक्के के पौधों का परस्पर पर-परागण कराया। उससे जो बीज पैदा हुए, वे दोनों प्रकार के थे, शुद्ध नस्ल के व संकर नस्ल के। देखने में बाहर से दोनों बिल्कुल एक जैसे थे, यहाँ तक इलेक्ट्रोन माइक्रोस्कोप से भी उनकी भिन्नता पकड़ में नहीं आती थी। ऐसी स्थिति में शोधकर्मी विज्ञानी ने अपने संवेदनशील वोल्टमीटर का प्रयोग किया। इन बीजों से जो पौधे उत्पन्न हुए उनके वैद्युतिक विभव में स्पष्ट अन्तर दिखाई पड़ा। इस प्रकार बर्र ने विभव में इस महत्वपूर्ण अन्तर के आधार पर दोनों नस्लों को पृथक पहचाना। वस्तुतः उनमें मात्र एक जीन के क्रम में अन्तर था पर इस अन्तर से उसके विद्युतीय क्षेत्र में स्पष्ट अन्तर आया, जो वोल्टमीटर की तीक्ष्ण आँखों से बचा न रह सका।
यदि इस सूक्ष्म प्रक्रिया को जाना-समझा जा सके तो समय रहते ही शरीर में व्याधियों की उपस्थिति का पता लगा कर उनसे बचने का उपाय-उपचार किया जा सकता है। इतना ही नहीं, विद्युत के परिणाम में न्यूनाधिकता के आधार पर यह भी जानना संभव हो सकेगा कि किसने कितना संयम-नियम का पालन कर इस जीवनोपयोगी सत्व का संरक्षण किया व इसे आत्मिक प्रगति की दिशा में नियोजित किया। इस दृष्टि से कार्य विद्युत का सुनियोजन चिकित्सा विज्ञान और आत्म विज्ञान दोनों के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है।*