Magazine - Year 1988 - Version 2
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Language: HINDI
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साधक का आहार सात्विक हो
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कुछ वर्षों पूर्व अमेरिका के बाल्टीमोर शहर के एक स्कूल में पढ़ने वाले 52 छात्रों पर एक विशिष्ट औषधि का प्रयोग किया गया। यह गोलियाँ उन्हें करीब एक माह तक सेवन कराई गयी। इस प्रयोग का उद्देश्य यह जानना था कि इन औषधियों के सेवन से क्या वास्तव में मंद बुद्धि को प्रखर या तीव्र बनाया जा सकता है? औषधियों का निर्माण भी इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया था। नियत अवधि तक सेवन कराने के बाद जब विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ा है? यह जाँचा गया तो पता चला कि इस अवधि में इन स्मार्ट पिल्स के सेवन से उनकी मस्तिष्कीय क्षमता पहले की अपेक्षा काफी बढ़ गयी है।
मिशिगन यूनिवर्सिटी की जीव शास्त्री बर्नार्ड एब्रागोफ ने अपने प्रयोगों की परिधि में मछलियों और अन्य प्राणियों को भी रखा। इन प्रयोगों में भी आशाजनक सफलता मिली और न केवल इन प्राणियों को चतुर बनाया जा सका वन औषधियों के प्रयोग द्वारा उनकी स्मरण शक्ति को भी कम कर दिया गया। पिछले दिनों हुई वैज्ञानिक शोधों से सक निष्कर्ष सामने आया है कि “थोरामाइटिन नामक प्रोटीन की मात्रा को यदि आहार में घटाया-बढ़ाया जाये तो उससे मस्तिष्क की क्षमता भी घट-बढ़ सकती है। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के मनःशास्त्री रिचार्ड थाम्पसन ने दस वर्ष तक लगातार शोध करने के बाद यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया कि बुद्धि दैवी वरदान नहीं है, उसे मानवीय प्रयत्नों से घटाया-बढ़ाया जा सकता है। इन प्रयोगों में उन्होंने कुत्तों, बिल्लियों, बन्दरों और चूहों पर जा प्रयोग किये उनसे यह निष्कर्ष सामने आये कि जिस प्रकार किसी मशीन का कार्य क्षमता को थोड़ा बहुत सुधार कर इच्छानुसार कम ज्यादा किया जा सकता है, उसी प्रकार हर स्तर की मस्तिष्कीय क्षमता में भी परिवर्तन किया जा सकता है।
प्रो. जेम्स मैकाँनेल ने तो अपने प्रयोगों में यहाँ तक सफलता प्राप्त कर ली कि एक व्यक्ति की स्मृतियाँ और अनुभव जो केवल उसी तक सीमित हों और उसने किसी को भी इनके बारे में नहीं बताया हो। इन प्रयोगों द्वारा दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क में ठीक उसी प्रकार पहुँचाये या डाले जा सकेंगे जैसे कि ये स्मृतियाँ और अनुभव इस व्यक्ति के अपने स्वयं के अनुभूत हों। प्रो. मैकाँनेल का कहना है कि दशाब्दियों पूर्व यह समझा जाता था कि एक मनुष्य का रक्त उसके अलावा दूसरे किसी व्यक्ति के कुछ काम का नहीं है। किन्तु अब यह बात हास्यास्पद लगती है क्योंकि जब चिकित्सा विज्ञान बड़ी सफलता से एक प्राणी का रक्त दूसरे प्राणी के शरीर में पहुँचा देता है, यही नहीं टूटे-फूटे अवयवों के स्थान पर दूसरों के स्वस्थ अवयवों का भी आरोपण सरल हो गया है। उसी प्रकार यह भी संभव है कि मस्तिष्क की कोशिकाओं को अदल बदल कर दो भिन्न स्तर के प्राणियों में बौद्धिक क्षमता का आदान-प्रदान किया जा सके।
वे सारे प्रयोग मस्तिष्क पर पड़ने वाले खाद्य पदार्थों के प्रभाव पर आधारित हैं। अब तक शरीर पर खाद्य पदार्थों के पड़ने वाले प्रभावों के आधार पर आहार शास्त्र और चिकित्सा शास्त्र का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया गया। किन्तु अब खाद्य पदार्थों के मस्तिष्क पर प्रभाव की बात को भी स्वीकार किया जा रहा है और ऐसे रासायनिक द्रव्यों की खोज की जा रही है जिससे बुद्धि की मन्दता, अकुशलता और मानसिक विकृतियों को भी चिकित्सा की जा सके। इस चिकित्सा पद्धति का ढाँचा शरीर चिकित्सा को वर्तमान विस्तार से बढ़ा-चढ़ा बना सकेगा और जन साधारण को मानसिक दुर्बलता तथा रुग्णता से भी बचाया जा सकेगा। इस सफलता के लिए पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति को खोजा जा रहा है और उसके उपयोग का प्रयत्न किया जा रहा है। तनाव, अशान्ति, चिन्ता आदि भावनात्मक विक्षोभों के कारण नींद न आने की शिकायत होने पर नींद लाने वाली दवाएँ “ट्रेंक्कुलाइजर” औषधियों के प्रयोग की बात तो सर्व विज्ञात है। यह औषधियों को मस्तिष्क पर प्रभाव ही होता है, जो खाद्य पदार्थों की सूक्ष्म शक्ति से उद्भूत होता है। इस सूक्ष्म शक्ति को अन्याय मस्तिष्कीय प्रयोजनों और विकास के उद्देश्यों में प्रयोग की बात इन दिनों चल रही है। स्पष्ट ही यह सूक्ष्म शक्ति, शरीर पोषण करने वाली स्थूल शक्ति से भिन्न है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि कोई आवश्यक नहीं है कि जो खाद्य शरीर के लिये जितना उपयोगी है वह मस्तिष्क के लिये भी उतना ही उपयोगी हो।
भारतीय मनीषियों ने आहार की इस सूक्ष्म शक्ति के अतिरिक्त उसकी कारण शक्ति को भी पहचाना और माना है। यह कारण शक्ति आहार की स्थूल और सूक्ष्म शक्ति से ऊपर है। शरीर के तीन कलेवरों की भाँति प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक तत्व के भी तीन स्तर हैं जिन्हें स्थूल, सूक्ष्म और कारण कहा जाता है। यहाँ चर्चा मानवी सत्ता और आहार की कि जा रही है अतः इतना भर जानना पर्याप्त होगा कि शरीर के स्थूल और सूक्ष्म स्वरूप की अपेक्षा कारण स्वरूप अधिक महत्वपूर्ण है। इस स्तर को भावना क्षेत्र भी कह सकते हैं। इसी के आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव को दिशा मिलती है और समूचे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। शरीर से बलवान और मस्तिष्क से बुद्धिमान होते हुये भी कोई व्यक्ति भावना स्तर पर गया-गुजरा हो सकता है तथा निकृष्ट कोटि का भ्रष्ट एवं दुष्ट जीवन जी रहा हो सकता है। ऐसे लोग अपने दोष दुर्गुणों के कारण पग-पग पर ठोकरें खाते है और प्रतिभा सम्पन्न होते हुए भी नितान्त असफल जीवन जी कर रोते कलपते संसार से विदा होते हैं। इसके विपरीत भावना स्तर परिष्कृत होने पर शारीरिक बौद्धिक और आर्थिक दुर्बलताएँ रहते हुए भी भावना के प्रखरता के कारण कई व्यक्ति ऐतिहासिक महामानवों की पंक्ति में जा बैठते है ओर संसार उनके चरणों पर मस्तक झुकाता है। यह कारण शक्ति का ही प्रताप है। जिससे शारीरिक और मानसिक क्षमताएँ मिलस देने पर व्यक्तित्व की क्षमता हजारों लाखों गुना महिमावान बन जाती है। भारतीय मनीषियों ने इस शक्ति के विकास में आहार को बहुत अधिक महत्व दिया था।
सर्वविदित है कि आहार की कारण शक्ति का उपयोग करने के लिए पिप्पलाद ऋषि केवल पीपल के फल खाकर ही निर्वाह करते थे। औदुम्बर ऋषि का यह नाम केवल इसी कारण पड़ा था कि गूलर खाकर शरीर का निर्वाह करते थे। मौहाल ऋषि का आहार केवल मूँग थी। यह खाद्य पदार्थ भी नियंत्रित क्रम द्वारा विशिष्ट शक्ति से सम्पन्न किए जाते थे।
प्राचीन मनीषियों ने आत्मोत्कर्ष की साधना में आहार की कारण शक्ति को आत्मसात करके अंतःकरण को विकसित करने का विशेष विधान विज्ञान सम्मत आधार पर विनिर्मित किया है। मनीषियों ने इस बात पर भी जोर दिया है कि यदि इस ओर उपेक्षा बरती गई तो आत्मबल संवर्धन के लिए की जाने वाली साधनाओं में सफलता प्राप्त होना संदिग्ध है। यदि सफलता मिली भी तो वह यत्किंचित हो होगी। वस्तुतः आत्मबल का अभिवर्धन ही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। यदि वह पूँजी वह अभीष्ट मात्रा में मनुष्य के पास हो तो वह शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और लौकिक दृष्टि से ही नहीं आत्मिक दृष्टि से भी सफल सिद्ध होता है। इस संदर्भ में आहार की कारण शक्ति, सतोगुणी विशेषता का उपयोग होना चाहिए।
विज्ञान अभी आहार की स्थूल और सूक्ष्म शक्ति को ही जान पहचान पाया है। पर अध्यात्म उसकी कारण शक्ति का हजारों वर्ष पहले पता लगा चुका है और वह इस बात पर बार-बार जोर देता है कि अंतःकरण को परिष्कृत करने के लिये
सात्विक आहार ही अपनाया जाना चाहिए ओर उसकी कारण शक्ति को भावनाओं का सम्पुट देकर आत्म चेतना को सुविकसित करने में अधिक उपयोगी बनाना चाहिए।*