Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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समर्पण का आनन्द और उसकी अनुभूति
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भक्तियोग में पूर्णता ‘शरणगति’ को दी गयी हैं योगो में इसे समर्पण योग गिना जाता हैं वेदान्त में इसे अद्वैत कहा गया है। अद्वैत अर्थात् दो को मिलाकर एक कर देना। इसका स्वरूप भी यही बनता है कि या तो ‘तू’ को ‘मैं’ में परिवर्तित कर लिया जाय या फिर ‘मैं’ को तू बना लिया जाय अद्वैत अर्थात् दो का न रहना। इसे दूसरे शब्दों में एकात्म भाव भी कहा जा सकता है।
मिश्रण से एक नई वस्तु बनती है। नीला और पीला रंग मिलकर हरा बन जाता है। रात्रि ओर दिन का मिलन संध्याकाल कहलाता है, जिसमें दोनों अवधियों का सम्मिश्रण रहता है। नमक और मिर्च मिलकर एक तीसरे प्रकार का चटनी जैसा स्वाद बनाते हैं। शरणगति या समर्पण के सम्बन्ध में भी यही बात है।
आग और ईधन के सम्मिश्रण से लपटें उठने लगती है। वह न तो पूर्णतया ईधन वर्ग में आती है और न उसे विशुद्ध अग्नितत्त्व ही कहा जा सकता है। नर मादा के संयोग से बालक उत्पन्न होता है। वह दोनों के संयुक्त प्रयास का प्रतिफल होता है। न उसमें माता की सभी विशेषताएं होती हैं और न पिता की वैसे दोनों के गुणों का बहुत हद तक उसमें बाहुल्य पाया जाता है।
मुक्ति के चार रूप हैं। सालोक्प, सामीप्य, सारुप्य, और अन्तिम सायुज्य। सायुज्य में जीव और ब्रह्म की एकता हो जाती हैं। फिर भी किसी का पूर्णतया समापन नहीं होता। समाप्त हो जाय तो फिर उस मिलन के आनन्द की अनुभूति कोन करे? यदि उसकी समाप्ति हो चले तो ब्रह्म अपने को भारी भले ही अनुभव करे पर जीव का तो आत्यन्तिक समापन हो जायगा। यह स्थिति किसी को भी अभीष्ट नहीं। सुख यौवन उत्कर्ष की चाह तो रहती है, पर किसी को भी यह स्वीकार्य नहीं कि उसकी अपनी अनुभूति रहे ही नहीं। इसलिए भक्तजन “सायुज्य” मुक्ति की कल्पना कदाचित ही करते हैं। उन्हें “सालोक्य”-भगवान के लोक में रहने की “सामीप्य” -उनके समीप हरने की “सारुप्य” -उनके समान रूप कलेवर पाने की अभिलाषा ही रहती है, ताकि वे अपनी विकसित स्थिति का आनन्द उपलब्ध कर सकें।
समर्पण को ही मुक्ति की पूर्व स्थिति मानी गयी है। अपने आपको दूसरे के हाि में सौंप देने का भी अपना आनन्द हैं। विशेषतया तब जब किसी महान शक्ति के हाथों में अपने को सौंपा गया हो। इसकी प्रतिक्रिया तत्काल यह देखने को मिलती है दूसरा पक्ष भी अपने को उसी प्रकार सौंप देता है और दोनों के सम्मिश्रण में एक अति आनन्ददायक स्थिति बनती है। विवाह से पूर्व पति-पत्नी का अस्तित्व सर्वथा पृथक होता है। दोनों एक दूसरे से परिचित तक नहीं होते। ऐसी दशा में स्वार्थों का समन्वय तो बन ही कैसे पड़े? जब विवाह बंधन में वे दोनों बँध जाते हैं तो “एक प्राण दो शरीर” जैसा अनुभव करने लगते हैं। दोनों का एक दूसरे के शरीर, मन तथा वैभव पर अधिकार हो जाता है। जो चाहता है वह साथी को भी इच्छानुरूप चला लेता है। एकाकी मन की तुलना में यह स्थिति दोनों के लिए ही अधिक आनन्द और साहस प्रदान करती है। एक और एक मिलकर जड़ पदार्थ तो दो होते है पर जीव तो सर्वतोभावेन समर्थ और असाधारण शक्ति उत्पन्न करता है और एक-एक मिलकर ग्यारह बनने का गणित तो प्रत्यक्ष रूप से सार्थक हुआ सिद्ध करता है।
दूध में पानी मिला देने पर पानी का स्वरूप और भाव बढ़ जाता है। भक्त के संबंध में भी यही कहा जा सकता हैं। वह घटिया होने पर भी बढ़िया की संगति में अपनी गरिमा से अनेक गुनी अभिवृद्धि कर लेता है। लोहा पारस को छूकर सोना बनता है, भले ही वह स्वयं पारस न बन पाये पर लोहे की स्थिति से तो बहुत अधिक ऊँचा उठकर स्वर्ण कहलाने का अधिकारी बनता है।
सैन्यबल अनुशासन पर निर्भर है। सेनापति की आज्ञा ही उस समुदाय के सभी सदस्यों को मान्य होती है। वे उसमें न तो मीनमेख निकालते हैं। और न अपने निजी स्वार्थ को हानि पहुँचाने की बात सोचते है। सेनाध्यक्ष का आदेश ही उनके लिए सब कुछ होता है। भर्ती होते समय उन्हें यही प्रथम पाठ पढ़ाया जाता है कि अधिष्ठाता के अनुशासन का प्राणपण से पालन करना हैं। इससे किसी के नागरिक या मौलिक अधिकारों का हनन नहीं होता। यह प्रश्न तब उठता है जब सेनापति का अपना कोई निजी स्वार्थ काम करता हो। यदि ऐसा नहीं है तो फिर अनुशासन ही वह प्रधान शक्ति रह जाती है, जिसके आधार पर सेना को चमत्कारी सफलताएँ प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यदि आरम्भ में ही स्वार्थों की रस्साकसी बनी रहे तो उसके साथ किसी आदर्श को नहीं जोड़ा जा सकता। तब तो वह मात्र व्यवसाय भर ही बनकर रह जायेगा। उसे वेश्यावृत्ति के नाम से भी जाना जा सकेगा। ऐसी दशा में कोई व्यावसायिक सौदेबाजी भी सम्भव हो सकती है। शरणगति या समर्पण जैसे उच्चकोटि के शब्दों का प्रयोग उस सहचरत्व में खोजा नहीं जा सकता है।
समर्पण का तात्पर्य है-अनुशासन पालना। यह छोटे पक्ष को स्वीकार करना होता है, क्योंकि उसकी योग्यता, इच्छा, स्थिति सभी कुछ वरिष्ठ की तुलना में घटिया होती हैं। अध्यापकों का आदेश छात्रों को मानना पड़ता है। यदि कहीं छात्र ही अध्यापक को अपनी मर्जी पर चलाये तो समझना चाहिए कि अध्यापक और छात्र दोनों का ही बंठाधार हुआ। अफसर का कहना मातहत मानते हैं यदि मातहत ही अफसर पर हुक्म चलाने लगें तो सारी व्यवस्था ही गड़बड़ा जायेगी।
उच्च पदासीन होने के लिए योग्यता की परीक्षा होती है और प्रतिस्पर्धा में उतर कर अपनी वरिष्ठता सिद्ध करनी पड़ती है। इसी आधार पर चुनाव होते हैं। इससे बचकर कोई चुनाव कर्त्ता की खुशामद के सहारे ही अपना काम बनाने के लिए चले तो उसे वांछनीय ही माना जायेगा और बदले में भर्त्सना ही मिलेगी। ईश्वर की शरणगति का यह आधार नहीं हो सकता कि कामनाओं की पूर्ति के लिए गिड़-गिड़ाया जाय और पात्रता न होते हुए भी बढ़ चढ़ कर उपहार वरदान पाने के लिए नाक रबड़ी जाय। इसे पूजा की, भक्ति की, भावना की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता।
शरणगति-समर्पण तभी वास्तविक माना जा सकता है। जब अपने तन, मन, धन को नियन्ता की मर्जी पर चलने के लिए छोड़ दिया जाय। यहाँ यह बात भी स्मरणीय है कि भगवद् इच्छा सदा उच्चस्तरीय ही होते हैं। जब भी अन्तराल में ऐसा उत्साह उभरे तो उसे ईश्वर की मर्जी समझना चाहिए। किन्तु यदि निकृष्टता का खुमार चढ़ा हो तो समझना चाहिए कि यह शैतान की करतूत है। कई व्यक्ति अपने भीतर उठने वाले अनौचित्य को भी ईश्वर की इच्छा मान कर कुकृत्य करने पर उतारू हो जाते है। उन्हें समझना चाहिए कि निकृष्टता ही ईश्वर आदर्श बनकर धोखा दे रही और कुकृत्य कराकर पतन के मार्ग में धकेलने की विडंबना रच रही है।
शरणगति से तात्पर्य है निःस्वार्थ होना। उच्चस्तरीय आदर्श को अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में ओतप्रोत कर लेना। इससे कम में ईश्वरीयसत्ता का आत्मसत्ता में समावेश बन ही नहीं पड़ता।
संकीर्ण स्वार्थपरता कई बार ईश्वरेच्छा का अवतरण ओढ़कर मनुष्य पर आवेश की तरह चढ़ती और कुकृत्य कराती है। इस भ्रान्ति से सदा हर किसी को बचना चाहिए। ईश्वरेच्छा होने की एक ही कसौटी है कि अपने आपको अधिकाधिक सद्भावनाओं से ओतप्रोत किया जाय और बुद्धि को ऐसा निर्णय करने दिया जाय, जिससे सत्प्रवृत्तियों का संवर्धन होता हो, सत्कर्म बन पड़ता हो ओर नीति-मर्यादा एवं शालीनता का परिपालन होता हो। भगवद् समीपता का मार्ग सर्वतोमुखी सदाशयता है। समर्पण करने वालों का यही इष्ट हो लक्ष्य होता है।