Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्मिक प्रगति के त्रिविध आधार
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भगवत् आराधना के लिए जप और ध्यान का उपचार सर्वविदित, सर्वमान्य एवं सार्वभौम है। अन्य उपासनायें भी विभिन्न सम्प्रदायों में अपने- अपने ढंग से प्रचलित हैं। पर उसमें शब्द और भाव का नियोजन निश्चित रूप से होता है। इन उपचारों के बिना देवता के साथ चेतना को जोड़ सकना प्रायः बन नहीं पाता। उन थोड़े मनीषियों की बात अलग है जो पूजा उपचार के बिना भी अपने कर्मों में आदर्शों की भगवद्बुद्धि को सुस्पष्ट रख साधना का प्रयोजन अपनी विशेष शैली में उपलब्ध कर लेते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि आत्मिक प्रगति में उपासना के बिना भी काम चल सकता है। यह राजमार्ग है कोई पुल पर चलने की अपेक्षा नहीं तैरकर गन्तव्य तक जा पहुँचे तो उसे कीर्तिमान भले ही कहा जाय पर वह सर्वसाधारण के लिए सुलभ नहीं है।
उपासना का पहला चरण दूसरे चरण जीवन साधना का आधार बनता है। सार्थकता उसी उपासना की है जो आत्म परिष्कार की प्रेरणा दे सके। संयम साधना के रूप में तपश्चर्या इसी हेतु की जाती है। इन्द्रिय-संयम अर्थ-संयम-समय संयम, विचार-संयम यह उपासना की सार्थकता के चार प्रतिफल हैं। आत्मशोधन के लिए इन्हें अपनाना ही पड़ता है। जीवन साधना इन्हीं के सहारे बन पड़ती है। उस उपासना को निष्फल ही मानना चाहिए जो जीवन के मौलिक स्वरूप में सभ्य आचरण एवं आत्मिक पक्ष को सुसंस्कारिता से सम्पन्न न करे। उस बीज की क्या महिमा जो उर्वर भूमि में भी अंकुर उत्पन्न न करे। उपासना बीज है और उसका अंकुर संयम। तपश्चर्या भी यही है। उपासना और साधना का खाद पानी पाकर मनुष्य क्षुद्र से महान बनता हैं छोटा अंकुर विशाल वृक्ष का रूप धारण करता है। शक्तियों से आत्मसत्ता का भण्डार भरता है।
इस शक्ति संचार के भण्डार का आखिर उपयोग क्या हो? इसके लिए अध्यात्म अभ्युदय का तीसरा पक्ष “आराधना” के नाम से जाना जाता रहा है। आराधना परमार्थ परायणता को कहते हैं। तृष्णा के क्षेत्र तो व्यक्तिगत स्वार्थपरता तक सीमित हैं, किन्तु परमार्थ का क्षेत्र उतना ही बड़ा है जितना कि ईश्वर का विश्व विस्तार। परमार्थ में जन्म जन्मान्तरों तक लगे रहा जा सकता है। ऋषि चेतना ने भी स्वर्ग, मुक्ति, वैभव आदि की उपलब्धियों को स्वीकार करने से इन्कार करते हुए यही कामना व्यक्त की है कि प्राणियों की सेवा में ही उसे सदा सर्वदा जुटे रहने का अवसर मिले। यही है वह विधा जिसके सहारे आत्म सन्तोष लोक-सम्मान और दैवी अनुग्रह के तीनों लाभ हाथों हाथ मिलते रहते हैं। तीनों लोकों का वैभव प्राप्त करने से भी अधिक इस आनन्द का रसास्वादन अधिक बढ़ा चढ़ा माना गया है। उपासना जीवन साधना के लिए अग्रसर करती है और सुसंस्कारों से साधा गया जीवन अपनी उपयोगिता आराधना में-लोकसेवा में निरत रहना अनुभव करता है। यही वह त्रिवेणी है जिसे तीर्थराज की संज्ञा दी गई है। ईश्वर आराधना का अर्थ है दिव्यता के साथ अपनी संवेदनाओं को घनीभूत कर लेना। जीवन के विचार क्षेत्र में भ्रष्ट चिन्तन और दुष्ट आचरण को बहिष्कृत कर देना। अपनी कौशल और साधना को पुण्य परमार्थ में उत्सर्ग करते रहना। यही है क्रमशः उपासना, साधना और आराधना के तीन वर्ग। इनसे आत्मा सत्ता के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर तीनों ही कृतकृत्य होते हैं। आध्यात्म तत्वज्ञान और योग साधना के विधि विधान का यह परम प्रयोजन है। प्रचलित समस्त कर्मकाण्ड इन्हीं तीन प्रयोजनों के इर्द गिर्द परिभ्रमण करते हैं। उस कर्मकाण्ड की कोई उपयोगिता नहीं, जो जीवनक्रम को प्रभावित न करे, मात्र पूजा-उपचारों की लकीर तो पीटे, पर व्यक्तित्व के किसी क्षेत्र को प्रभावित न करें।
इस मान्यता को बाल बुद्धि ही कहा जा सकता है कि ईश्वर को छुटपुट उपहार देकर या शब्दों का वाक्जाल बनाकर खुशामद के सहारे प्रसन्न किया जा सकता है। उतने भर से मनोकामनाओं की खाई पाटने वाला वरदान प्राप्त किया जा सकता है हो सकता है कि यह सस्ती रीति-नीति बालकों को कुछ प्रलोभन देकर स्कूल पढ़ने जाने के लिए प्रोत्साहित करने जैसे प्रयास के रूप में मानली गयी हो। मन्दिरों में प्रसाद बाँटकर उस लालच से लोगों को पूजा के समय आने और सदुपदेशों से लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यह न कुछ देकर बहुत कुछ पाने की कल्पना लाटरी खुलने का सपना दीखने जैसा है। सामान्य लाभों में सफलताओं को प्राप्त करने के लिए जब इतना समय, श्रम, कौशल और साधन लगाने की आवश्यकता पड़ती है तो फिर असामान्य मनोकामनायें तुर्त फुर्त पूरी कराने के लिए मात्र कुछ देर का पूजा पाठ, चमत्कार दिखा देना ऐसी बाल कल्पनायें वयस्कों और समझदारों को शोभा नहीं देती।
आत्मबल सबसे बड़ा बल है। उसके धनी हनुमान, अर्जुन, ईसा, बुद्ध, गाँधी, शंकराचार्य जैसे महान कार्य सम्पादित करते देखे गये है। जिन्हें बुद्धिमान पराक्रमी साधन सम्पन्न व्यक्ति भी नहीं कर पाते वे कार्य आत्मबल के सहारे सम्भव हो जाते हैं। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को, समर्थ ने शिवा को अपने अनुदानों के सहारे कितना सुसम्पन्न बनाया था यह सर्वविदित है। ऐसी इसी संसार की महानतम विभूति को प्राप्त करने के लिए जादूगरों जैसा छू मन्तर करके कौतुक-कौतूहल जैसा कुछ पाया नहीं जा सकता। उसके लिए धीर-गंभीर प्रयत्न करने की आवश्यकता है- आत्मशोधन की आवश्यकता हैं। विषों को शोधकर चिकित्सक अमृतोपम औषधियां बनाते हैं। मनुष्य प्रत्यक्षतः कितना ही दुर्बल अभावग्रस्त क्यों न हो? आत्मपरिष्कार की प्रक्रिया अपनाकर ऐसी प्रतिभा अर्जित कर सकता है जिसके सहारे आत्मकल्याण और विश्व-कल्याण की दोनों आवश्यकतायें साथ-साथ सध सके।
उपासना साधना और आराधना यह तीन प्रयोग प्रकरण है जिनके सहारे ईश्वर प्रदत्त प्रसुप्त दिव्य क्षमताओं को जगाया और अपने समर्थ शक्तिवान बनाया जा सकता है। हर क्षेत्र में प्रगति के लिए प्रबल पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। शरीर को बलवान पहलवान बनाने के लिए कितनों को कितने दिन कितनी तत्परता व कठोर व्यायाम करने पड़ते हैं यह किसी से छिपा नहीं। धनी बनने के लिए कृषि व्यवसाय कल शिल्प आदि का आश्रय लेने वाले कितने लम्बे समय तक कितनी तत्परता के साथ कितना कठोर श्रम करते है वह किसी से छिपा नहीं। उच्च शिक्षा प्राप्त करके उच्च अधिकारी बनने की आकाँक्षा रखने वाले प्रायः चौथाई जीवन जितना समय और इतना धन खर्च करते हैं जिसके ब्याज से ही जिन्दगी भर बैठे गुजारा होता रह सकता था।
फिर भी जिन्हें शिक्षा की वह परिणति विदित है जिसके सहारे आत्मगौरव के अतिरिक्त अगले जन्म के लिए विकसित मानस लेकर अगले जन्म तक से लाभ उठाते रहने का अवसर मिलता है, कितना अधिक महत्वपूर्ण है? महान उपलब्धियों के लिए उच्चस्तरीय प्रयत्न करने पड़ते हैं। आत्म परिष्कार ऐसा ही बढ़ा−चढ़ा-लाभ है, जिसके सहारे भौतिक सफलताओं से लेकर आत्मिक अभ्युदय की ऋद्धि−सिद्धियों का लाभ मिलता है। यह कितना बड़ा काम है, इसका मूल्यांकन करने में किसी को भी भूल नहीं करनी चाहिए।
आत्मिक प्रगति का अर्थ है-आत्मपरिष्कार, सत्प्रवृत्ति संवर्धन और पुण्य परमार्थ संचय कर सकने की प्रचण्ड क्षमता। इसके लिए उपासना, साधना, आराधना के अवलम्बनों को ध्यानपूर्वक अपनाया ही जाना चाहिए।