Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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क्रिया की प्रतिक्रिया का सुनिश्चित सिद्धान्त
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भारतीय दर्शन में कर्मफल की सुनिश्चित पर बहुत जोर दिया गय है। यह एक ऐसी सच्चाई है, जिसे इच्छा या अनिच्छा से सभी को स्वीकार करना ही पड़ता है। भूतकाल के आधार पर वर्तमान बनता है एवं वर्तमान के अनुरूप भविष्य। किशोरावस्था में कमाई हुई विद्या एवं स्वास्थ्य सम्पदा, जवानी में सम्पन्नता एवं बलिष्ठता के रूप में सामने आती है। क्रिया की प्रतिक्रिया एक सुनिश्चित तथ्य हैं। कर्म क परिपाक भी वस्तुतः इसी प्रकार देर सवेर में मिलता अवश्य है। जो जीवन को अनन्त अविरल प्रवाह मानते हैं, वे जानते हैं कि जो शुभ-अशुभ कर्म किये जा रहे हैं, उनके परिणाम कालान्तर में अवश्य प्राप्त होंगे। वस्तुतः इस जीवन के कर्म ही स्वर्ग-नगर जैसी परिस्थितियों के तद्नुरूप पुनर्जन्म में सद्गति-दुर्गति मिलने या मरणोत्तर योनि में सुख-दुःख के कारण बनते हैं।
कर्मफल मिलने की सुनिश्चित एक अटल सत्य है। इसे झुठलाया नहीं जा सकता। इसका अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि कर्म’ शब्द ऋग्वेद में 40 बार से अधिक प्रयुक्त हुआ हैं। इसका अर्थ कहीं कहीं पराक्रम या वीरोचित कार्यों से है तो कहीं-कही पर यह धार्मिक कृत्यों के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसके अनुसार देवता मनुष्य के सत्कर्मों को ही स्वीकार करते हैं। सत्कर्म करने वालों के लिए ऋग्वेद (10/16/4) में अग्नि देव से प्रार्थना की गई है कि वह मृत व्यक्ति को उन लोगों के लोक में ले जायें जिन्होंने अच्छे कर्म किये हैं। ऐसे लोगों के लिए देवों से अमरत्व प्रदान करने के लिए प्रार्थना की गई है जो सतत् सत्कर्मों में निरत रहते हैं। वस्तुतः सत्कर्म ही है जो मनुष्य को ऊपर उठाता-अमरत्व प्रदान करता है। सत्कार्यों एवं दुष्कृत्यों में से जिनका पलड़ा भारी होता है, वे ही मनुष्य के भावी जीवन में अपने प्रतिफल स्वर्ग या नरक के रूप में प्रकट करते हैं। शतपथ ब्राह्मण (10/4/4/9-10) में स्पष्टोकित् है कि-’जो व्यक्ति इसे जानते हैं अर्थात् पवित्र कर्म करते हैं, वे पुनः मृत्यु के उपरान्त मानव जीवन पाते है। और इस जीवन में अमरत्व प्राप्त करते हैं किन्तु जो पवित्र कर्मों का सम्पादन नहीं करते वे मरने के बाद फिर से जीवन प्राप्त करने पर नाना विधि दुःख-कष्टों को भोगते और बार-बार जन्मते मरने रहते हैं।
मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करता है। अपने कर्मों एवं आचरणों से ही वह अपने भविष्य को गढ़ता है। इसे स्पष्ट करते हुए बृहदारण्यक उपनिषद् में (4/4/5/7) कहा गय है-’मनुष्य की जैसी इच्छा होती है, वैसे ही उसके विचार बनते हैं। विचारों के अनुसार ही उसके कर्म होते हैं और कर्मों के अनुरूप ही वह प्रतिफल पाता है।” इस प्रकार यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि मनुष्य जैसा सोचता और करता है, वह वैसा ही बन जाता है। छान्दोग्य उपनिषद् (3/14/1) में कहा गया है-मनुष्य का निर्माण उसके अपने विचारों के अनुसार ही होता है। क्षुद्रता या महानता का वरण मनुष्य अपनी विचार सम्पदा के आधार पर ही करता है। विचारों में अपार शक्ति है। यही वह सामर्थ्य है, जो व्यक्ति को निम्न परिस्थितियों से विकास की उच्चतम अवस्था में पहुँचाने में, नर से नारायण बनाने में समर्थ है। देवी भागवत (9/28/17/20) के अनुसार “जीव अपने शुभ कर्मों की सहायता से इन्द्र का पद प्राप्त कर सकता है वह ईश्वर भक्त बन सकता है और आवागमन के चक्कर से मुक्त हो सकता है, समस्त सिद्धियाँ प्राप्त करता हुआ अमरत्व की स्थिति तक पहुँच सकता हैं वह देवता, राजा, शिव आदि जो कुछ भी चाहे वही बन सकता है।” इस प्रकार विचार को बीज और कर्म को वृक्ष कहा जा सकता है। जैसे विचार होते हैं, वैसे ही प्रयास चल पड़ते हैं, तद्नुरूप भली-बुरी परिस्थितियाँ सामने आ खड़ी होती है।
तत्वज्ञानी जानते हैं कि जो भी दुःख या सुख के दृश्य हमारे सामने आ रहे हैं, उस प्रत्येक प्रतिबिम्ब के पीछे उसका कारण विद्यमान है। बिना कारण के कार्य संभव नहीं है। ईश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता और नहीं किसी का विरोध करता हैं। न्याय और निष्पक्षता की रक्षा उसके लिए प्रधान है। कर्मफल की मर्यादा का उल्लंघन करके वह न तो किसी को क्षमा प्रदान करता है ओर न किसी के भक्त-अभक्त होने के नाम पर राग द्वेष की नीति अपनाता हैं सर्वतंत्र स्वतंत्र होते हुए भी उसने जो नियम व्यवस्था बनाये हैं, उसमें सर्व प्रथम अपने को बाँधा है, जहाँ विश्व ब्रह्माण्ड का कण-कण किसी विधान से बँधा है। उसी प्रकार ईश्वर भी मर्यादा पुरुषोत्तम है। मर्यादायें टूटने न पायें, उन्हें तोड़ने का कोई दुस्साहस न करें इसलिए उसने अपने को भी प्रतिबंधित किया है। देवी भागवत (4/2/7) में उल्लेख है-”ब्रह्मादि सभी इस नियम के वश में हैं इसी संसार का सुव्यवस्थित संचालन हो रहा हैं मनुष्य को सुख, शान्ति और शक्ति की प्राप्ति तभी सम्भव है जब वह नैतिक नियमों और ईश्वरीय मर्यादाओं का पालन करे।
“बुक आफ मेडिटेशन्स” नामक अपनी कृति में प्रसिद्ध अँग्रेज दार्शनिक जेम्स एलन ने ‘कर्म सिद्धान्त’ की विशर्छ व्याख्या की है। उनके अनुसार यह समग्र विश्व ब्रह्माण्ड न्याय व्यवस्था पर टिका हुआ है। और यही न्याय मानव जीवन और आचार का नियमन करता है। आज विश्व में विद्यमान जीवन की विभिन्न दशाएँ मानव आचार पर प्रतिक्रियाशील इसी नियम का परिणाम हैं। विवेकशील प्राणी होने के कारण सोचने, विचारने और कर्म करने की उसे पूर्ण स्वतंत्रता मिली हुई है, परन्तु उससे उत्पन्न परिणामों पर उसका कोई अधिकार नहीं है। इसका निर्णय नियामक सत्ता के हाथ में है क्रम करने का सम्पूर्ण अधिकार मनुष्य को है किन्तु कार्य के निष्पादन के साथ ही उसका अधिकार समाप्त हो जाता है। कार्य के परिणामों को न तो बदला जा सकता है और न ही उनका अंत किया अथवा उनसे बचा जा सकता है। यह एक अटल नियम है कि बुरे विचार और कार्य क्लेश की दुःख की परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं जब कि सद्विचार और सत्कर्म सुखकारक अवस्थाओं का निर्माण करते हैं।
वस्तुतः यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है। जो जैसा बोता है, वह वैसा काटता हैं। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। कर्म करलें और उसके फल से बचे रहें, यह नहीं हो सकता। नीला थोथा खा लेने पर उल्टी हुए बिना नहीं रहती। कच्चा पारा पेट में जाने पर वह शरीर से फूट कर अवश्य निकलेगा अथवा अपने विषाक्त प्रभाव से शारीरिक स्वास्थ्य को गड़बड़ायेगा ठीक इसी प्रकार कर्म भी अपने प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न करते हैं। यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि में घोर अन्धेरा छाया हुआ दीखता, तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की चिन्ता न करता। इसका प्रतिपादन करते हुए महाभारत (वन/207) में स्पष्ट कहा गया है-”मनुष्य जो कुछ शुभ या अशुभ कार्य करता है उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। इसमें संशय नहीं। मार्कण्डेय पुराण, (कर्मफल), शिवपुराण, हरिवंश पुराण, (उग्रसेन अभि0 25) ब्रह्मपुराण, बाल्मीकि रामायण उपनिषदों एवं उनकी टीकाओं, वेदांत सूत्रों तथा भगवद् गीता आदि धर्म ग्रंथों में इस संदर्भ में सुस्पष्ट वर्णन मिलता है कि अपने किये हुए पाप अथवा पुण्य के फल मनुष्यों को अवश्य भोगने पड़ते हैं। इन्हें भोगे बिना कोई रास्ता नहीं, मुक्ति नहीं।
प्राच्य दर्शनविदों के अतिरिक्त कुछ पाश्चात्य विचारकों ने भी कर्मफल की सुनिश्चित विधि व्यवस्था में अपनी आस्था व्यक्त की है। प्लेटों इसमें सबसे अग्रणी हैं। प्रख्यात मनीषी पॉल ब्रण्घ्टन ने भी अपनी पुस्तक “हिडेन टीचिंग्स बियोन्ड योगा” में लिख है कि “कर्म नितान्त वैज्ञानिक नियम है। उनका कथन है कि दूसरे के प्रति हम जो कुछ करते हैं वह किसी न किसी समय किसी न किसी प्रकार हमें अवश्य लौटा दिया जाता है। अपने किये कर्मों का बदला हमें अवश्य मिलता है। जो हम देते है बदले में हमें वही मिलता है। सुप्रसिद्ध विद्वान डिक्सन ने अपनी कृति “रिलीजन एण्ड इम्मैरैलिटी” में कहा है-’वास्तव में यह संतोषप्रद भावना है कि हमारी वर्तमान समर्थताएँ हमारे पिछले जीवन के कार्यों द्वारा निर्धारित होती हैं और हमारी वर्तमान कर्म पुनः हमारे भावी जीवन चरित्र को निर्धारित करते है। “दी स्केल्स आफ कर्माज” नामक अपनी पुस्तक में मूर्धन्य मनीषी ओवेन रटर ने भी कर्मफल सिद्धान्त को स्वीकार किया है।
कर्मफल सिद्धान्त को अधिक स्पष्ट करते हुए भारतीय ऋषिगणों ने कर्म को तीन भागों में बाँटा है-संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध। वह कर्म जो अभी फल नहीं दे रहे हैं बिना फलित हुए इकट्ठे हो जाते हैं, उनको संचित कर्म कहते हैं। कालान्तर में वे अपना फल प्रस्तुत करने के लिए फिक्स डिपॉजिट की तरह सुरक्षित रखे हुए हैं। पर समस्त संचित कर्म भी एक जैसे नहीं होते, न ही उनका फल एक मुश्त समय में मिलता हैं। विभिन्न प्रकार फल एक मुश्त समय में मिलता हैं। विभिन्न प्रकार के संचित कर्मों के पकने की अवधि अलग-अलग हो सकती है। इसी प्रकार जो कर्म वर्तमान में किये जाते हैं, वे क्रियमाण कहलाते हैं। संचित कर्मों में से जिनका विपाक हो जाता है अर्थात् जो पककर फल देने लगते हैं उनको प्रारब्ध कहते हैं जन्म के साथ अनायास भली बुरी परिस्थितियाँ लिए अथवा जीवन में अकस्मात उपलब्धियाँ लिए वे ही प्रकट होते हैं।
कर्मों की श्रृंखला इस प्रकार बनती है- क्रियमाण कर्म का अन्त संचित में हो जाता है और संचित में जो कर्म फल देने लगते है, उनको प्रारब्ध कहते हैं। इनमें से मनुष्य का अधिकार क्रियमाण कर्मों पर है। शेष दो उसकी ही उपलब्धियाँ हैं जिन पर उसका कोई अधिकार नहीं। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए आद्य शंकराचार्य के अनन्य शिष्य पद्यपाद ने अपने ग्रंथ-”विज्ञान दीपिका” के श्लोक 5 एवं 7 में कहा है कि संचित कर्म की तुलना घर में रखे अन्नों स, क्रियमाणया संचीयमान कर्म की तुलना खेत में खड़े अन्नों से और प्रारब्ध कर्म की तुलना पेट में पड़े अन्नों से की जा सकती है। पेट में पड़ा भोजन पच जाता है, पर उसमें कुछ समय लगता है। संचित एवं क्रियमाण कर्म का नाश सम्यक ज्ञान से होता है किन्तु प्रारब्ध का नाश उसके फलों को भोगने के बाद ही समाप्त होता हैं उनके अनुसार कर्म विभिन्न प्रकार के होते हैं। और विभिन्न प्रकार के प्रतिफल उपस्थित करते हैं। सात्विक कर्मों से स्वर्ग, राजसिक कृत्यों से पृथ्वी या अन्तरिक्ष तथा तामसिक कर्मों से यातनाओं के स्थल प्राप्त होते है॥ वासनाओं का क्षय, कर्म तथा पुनर्जन्म की समर्पित का प्रमुख आधार उन्होंने तत्वज्ञान को बताया है। जो विवेक एवं वैराग्य द्वारा उपलब्ध होता है।
कर्मफल की सुनिश्चितता का तथ्य ऐसा है, जिसे अकाट्य ही समझना चाहिए। किये हुए भले-बुरे कर्म अपने परिणाम सुख-दुःख के रूप में प्रस्तुत करते रहते है। दुःखों से बचना हो तो दुष्कर्मों से पिण्ड छुड़ाना चाहिए। सुख पाने की अभिलाषा हो तो सत्कर्म बढ़ाने चाहिए। ईश्वर को नियामक तंत्र को प्रसन्न और रुष्ट करना सत्यकर्मी एवं दुष्कर्मों के आधार पर ही बन पड़ता है। यदि कर्म के सिद्धान्त का दर्शन समझा जा सकें तो मानव समुदाय में संव्याप्त ईर्ष्या, द्वेष व बुराईयों का अंत सुनिश्चित है। इस प्रकार जहाँ कर्मफल की मान्यता व्यक्तिगत चारित्रिक निर्माण के लिए जरूरी है वहाँ समाज व्यवस्था के लिए भी वह आवश्यक है। इसे दार्शनिक, धार्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर जन साधारण को हृदयंगम कराया जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि भले बुरे कर्मों का आनंददायक एवं दुःखदायी प्रतिफल निश्चित रूप से मिलेगा, भले ही उसमें कुछ विलम्ब क्यों न हो जाय? पुनर्जन्म की मान्यता को कर्मफल सिद्धान्त के साथ इसीलिए जोड़ा गया है। मरणोत्तर जीवन के उपरान्त भी इस क्रम चक्र से छुटकारा नहीं मिलता और वहाँ भी वह क्रम चक्र से छुटकारा नहीं मिलता और वहाँ भी वह स्वर्ग-नरक की प्रतिक्रिया उत्पन्न करता हैं।
तुरन्त फल पाने में मनुष्य चतुरता के सहारे भी बच सकता है, पर अन्तःकरण में उनके जो रेखाँकन होते हैं वे ही कुछ समय उपरान्त फलित होने लगते हैं। बीज को वृक्ष बनने में जिस प्रकार थोड़ा समय लग जाता है उसी प्रकार कर्मफल की सुनिश्चितता पर आस्तिक जन सहज ही विश्वास कर सकते है।