Magazine - Year 1989 - Version 2
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Language: HINDI
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तर्क की कसौटी पर एक नास्तिकवादी दर्शन
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मानव जाति की प्रगति का इतिहास यदि एक शब्द में कहना हो, तो उसे आपस का “सहयोग” कह सकते हैं। आदमी के रहने-सहने का ढंग, जिन्दगी जीने की व्यवस्थित रीति-नीति उसकी इसी मनोवृत्ति की उपज है। यही वह तथ्य है, जिस पर उन्नति की सारी संभावनाएं टिकी हुई है। यों यह कहते सुना जाता है कि बुद्धिमत्ता के सहारे प्रगति की राह पर बढ़ा गया हैं पर सही बात यही है कि सहयोग के आधार पर एक दूसरे के साथ घनिष्टता स्थापित करते हुए परस्पर आदान-प्रदान का क्रम चला और उससे मानसिक विकास के दरवाजे खुले।
इस चीज का नजर अन्दाज करके कुछ लोगों ने जिन्दगी जीने के तरीके को दूसरी तरह से सोचा है। पिछले दिनों हुई इस सोच को उपयोगितावाद का नाम दिया गया है। नीति शास्त्रियों ने इसे स्थूल सुखवाद भी कहा है। जे.एस.मिल ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है “संसार में सभी सुख की तलाश में हैं। जीवन का ध्येय यही हैं इस कारण स्वाभाविक है कि इसे तलाशा जाय। उनके अनुसार आदमी की चाहते सुख है और वस्तुएँ हैं इसका माध्यम। इसी कारण वस्तुओं को इकट्ठा करने की कोशिश की जाती है। मिल ने अपने इस सिद्धान्त में आचरण की महत्ता पर कोई ध्यान नहीं दिया हैं।
मनोवद्िएरिक फ्राफम अपनी किताब “एनाटॉमी आफ हा्मन-डिस्ट्रक्टिवनेस” में इसे मनोवैज्ञानिक क्रान्ति बतलाते है, हजारों साल के किए कराए पर पानी फरे देना। इससे तो साधन सामग्रियों को अतहाशा इकट्ठे करने के चक्कर में आदमी पशु जैसा हो जाएगा।
बोलना-सोचना, पढ़ना-लिखना खेती पशुपालन तथा समाज व्यवस्था आदि उन्नति के आरम्भिक चरणों को सहयोग-सद्भाव की उपलब्धियाँ हैं।
इन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ते हुए मनुष्य ने आगे बढ़ने और ऊँचा उठने की राह पायी है। यह सब किसी एक के प्रयास का फल नहीं हैं। इसमें बहुत समय लगा है। एक के अनुभव को दूसरे ने लाभ उठाया है। एक की उपलब्धियाँ दूसरों ने सीखी हैं जो मार्ग मिला है, उस पर एक दूसरे को साथ लेते हुए कदम बढ़ाया है।
मिल तथा इसके अनुयायियों ने अपने पक्ष में जो तर्क प्रस्तुत किए हैं, वे प्रकृति के नियम न होकर अपवाद है। बड़ा पेड़ अपने पास वाले पौधों की खुराक खुद-हड़प लेता है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। हिंसक जानवर छोटे-छोटे निरीह पशुओं को खा जाते है। ये उदाहरण प्रकृति की समूची व्यवस्था को भुला कर दिये गये है। परिस्थिति विज्ञान के विद्वान यह बताते हैं कि प्रकृति का हर घटक एक दूसरे के साथ सहयोग का व्यवहार करता हैं प्राणी और वनस्पतियाँ एक दूसरे के साथ मिलकर ही जीवन की गाड़ी चला रहे हैं। एक कार्बन डाइ आक्साइड छोड़ता है दूसरा उसे पचाकर बदल में जाती आक्सीजन देता है। प्रकृति में लगातार चलने वाले नाइट्रोजन-चक्र, जल-चक्र आदि इसी आधार पर समूची व्यवस्था बनाए हुए हैं।
उपयोगितावाद के अनुभव यदि मनचाही इच्छाओं को पूरा करने को ठीक मान लिया जाय, तो समूची समाज व्यवस्था ढह जाएगी। यदि हर मनुष्य सुख-साधनों की छीना झपटी को सही समझने लगे, तो होने वाले परिणाम की कल्पना भी खतरनाक लगेगी। भारतीय तत्वचिन्तक भी सुख की बात कहते हैं। पर प्राच्य दर्शन में मिल की तरह सुख साधनों को अधिकाधिक इकट्ठा करने, उनके लिए छीना-झपटी करने जैसा भाव नहीं हैं इसमें एक समूह का सुख न कहकर सबके सुख की बात कही है। “सर्वे भवन्तु सुखिनः” की कामना की है, जो समता व सद्भाव का घोतक है।
मनुष्य समझदार और श्रेष्ठ प्राणी माना जाता है। इसका कारण उसकी सहयोगपरक सत्प्रवृत्ति ही है। इसी आधार पर परिवार बसाए। उसमें सरसता और उदारता का समावेश हुआ। इससे कुटुम्ब के हर छोटे-बड़े सदस्य को लाभ मिला। यही प्रवृत्ति आगे सामाजिकता के रूप में विकसित हुई। समाज व्यवस्था की संरचना परिवार पद्धति की आचारसंहिता के आधार पर ही बन सकी है। अर्थ तन्त्र का पूरा ढाँचा सहकारिता पर टिका है। वस्तुओं का उत्पादन, और विनिमय वितरण क्रम ही वर्तमान अर्थ व्यवस्था तक बढ़ता आया है। शिल्प, चिकित्सा, शिक्षा, कला कौशल और विज्ञान के लम्बे चरण एकाएक नहीं नहीं उठे। अमुक आविष्कार का श्रेय अमुक व्यक्ति को मिला यह अलग बात हैं पर वस्तुतः सफल खोज की पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही बनने लगी थी। उसमें अनेकों का चिन्तन और प्रयास जुड़ते हुए वह आधार बन सका था, जिसके सहारे उसे अन्तिम रूप में उद्घोषित किया गया। धर्म अध्यात्म जैसी उच्चस्तरीय भावनात्मक चेतनाएँ किसी एक आदमी का काम नहीं है। इनके क्रमिक विकास में अनेक पीढ़ियों के हजारों साल लगे है। यह उन सबके परस्पर सहयोग का ही परिणाम हैं।
जबकि मिल का सिद्धान्त उपरोक्त चिन्तन से विपरीत है। इसके अलावा भी इसमें दो प्रधान दोष है। पहला मनुष्य मनुष्य के बीच बलगाव की दीवार खड़ी करना। क्योंकि हर मनुष्य जब सुविधा साधनों को इकट्ठा करने के लिए जुट पड़ेगा, तो इन्हें कहीं से छीन-झपट कर ही जुटाया जा सकेगा। छीनने वाला शोषक होगा, जिसका छीना गया है, वह शोषित। इन दोनों के बीच की खाई धीरे-धीरे बढ़ती जाएगी। एक स्थिति में इसे पाटने के लिए प्रयास होंगे फिर वे चाहें हिंसात्मक ही क्यों न हों? रूप में हुई बोल्शेविक क्रान्ति इसका जीता-जागता उदाहरण है। इसका दूसरा दोष है सारे भावनात्मक सम्बन्धों का समाप्त कर देना। युवक अपने बूढ़े बाप की क्यों सेवा करेंगे? क्योंकि इसमें दवा से लेकर शारीरिक सेवा करने, पैसा खर्च करने की झंझट उठानी पड़ती है। मिल के अनुसार इससे कोई फायदा तो है नहीं। यही स्थिति छोटे बच्चों की परवरिश करने वाले माँ-बाप की है।
सचमुच, उपयोगितावाद की नीति से समता और सद्भाव खतम हो जाते हैं। विक्टोरिया विश्वविद्यालय के प्राध्यापक लायड गियरिंग ने अपने अध्ययन “फेथ्स न्यू एज” में इसे अच्छी तरह समझाया है। उनके अनुसार आज की सामाजिक समस्याओं का कारण यही है।हर आदमी चालाकी धोखाधड़ी, किसी भी तरह से अपने भोग सुख की पूर्ति चाहता है। फिर भला अस्तव्यस्तता और बरबादी क्यों न हो?
श्री गियरिंग का अपनी पुस्तक में मत है कि इस समस्याओं के निवारण के लिए समाज को एक बड़ा परिवार मान कर चलना होगा। पारस्परिक घनिष्टता से समता व सद्भाव उपज सकते हैं। बात भी सही हैं-अपनी ढपली अपना राग अलापने से काम नहीं चलेगा। यदि हर बाजा अपना अलग-अलग स्वर निकाले तो उससे कानों को बुरा लगने वाला शोरगुल उत्पन्न होगा। यह भला किसे अच्छा लगेगा?
स्थिति को सुधरने सँवारने के लिए हमें अपने में सहयोग व सद्भाव का विकास करना चाहिए। इसी के आधार पर दूसरों का हृदय जीतना और उन्हें अपना घनिष्ट सहयोगी बना सकना सम्भव हो सकेगा। अपनी प्रकृति एकम् ही दूसरों पर भली-बुरी छाप छोड़ती है। उस प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर लोगों का व्यवहार अच्छा या बुरा बनता है। अपना स्तर जिस तरह का होगा, उसी के अनुरूप लोग संपर्क में आएँगे- घनिष्ट बनेंगे। अपने विकास की बात सोचते हुए हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि अभीष्ट सहयोग का संचय कर सकने योग्य विशेषताएँ अपने में संजोयें। इस तरह व्यापक स्तर का प्रयास सामाजिक जीवन में पुनः सहयोग की सद्भाव की प्रतिष्ठा कर सकेगा ओर अनास्था की असुरता से संघर्ष किया जा सकना संभव होगा।