Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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शब्द तरंगों में निहित विलक्षण शक्ति
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मंत्र-शक्ति की सामर्थ्य सर्वविदित है। रामायण एवं महाभारत काल में आग्नेयास्त्र, पाशुपतास्त्र, वायवास्त्र, वरुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र जैसे कितने ही दिव्य अस्त्रों के प्रयोगों का वर्णन शास्त्रों में मिलता है। यह सभी मंत्रशक्ति एवं मनः संस्थान की संकल्पित ऊर्जा से परिचालित होते थे। आधुनिक परमाणु आयुधों एवं लेसर अस्त्रों की तुलना में वे कहीं अधिक सटीक निशाने पर निरत और निर्धारित लक्ष्यवेधन में सफल रहते थे। मंत्रशक्ति द्वारा उद्भूत यह मनुष्य की प्राणशक्ति का, पराशक्ति का चमत्कार है।
अब विज्ञानवेत्ताओं का ध्यान भी मानव में अन्तर्निहित ‘पराशक्ति’ की ओर आकृष्ट हुआ है। वे शत्रुपक्ष के गोपनीय क्रिया-कलापों की जानकारी प्राप्त करने से लेकर ‘माइण्डवार’- ‘पराशक्ति-युद्ध’ तक में इसे प्रयुक्त करने की योजनाएँ बना रहे हैं। संभावना व्यक्त की जा रही है कि मनुष्य मंत्रशक्ति से उद्भूत अपनी संकेन्द्रित ऊर्जा द्वारा गुप्तचरी कर सकता है। समुद्र के गर्भ में छिपी लड़ाकू पनडुब्बियों, प्रक्षेपास्त्रों को अपने प्रचण्ड प्राणशक्ति से उन्हें नष्ट कर सकता है। ऐसा भी हो सकता है कि शत्रु पक्ष के लिए प्रहार प्रयोजन के लिए उस शक्ति को काम में लाया जाय। आग्नेयास्त्र स्तर का विकास करके प्रचण्ड शक्ति से किसी को जीवित जलाया जा सकता है, या अग्निकाँड जैसी दुर्घटना खड़ी की जा सकती है।
तंत्रशास्त्र ऐसे ही विधानों से भरा पड़ा है। उसमें मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तंभन आदि के कितने ही प्रयोगों का विस्तृत उल्लेख है, साथ ही उनका प्रयोग करने की हिदायत भी है। कारण कोई अनाड़ी बंदूक चलाए तो उसका धक्का चलाने वाले की छाती को भी तोड़ सकता है। ताँत्रिक प्रयोगों में जिन विशिष्ट मंत्रों का उपयोग किया जाता है, उनका प्रभाव परिणाम भी अप्रिय होता है। उससे उपलब्ध शक्ति का उपयोग दूसरों को प्रताड़ित करने और हानि पहुँचाने में किया जाता है। यद्यपि उसे जाग्रत करने वाले विशेषज्ञ इस शक्ति का श्रेष्ठ सत्कार्यों में भी प्रयोग कर सकते हैं।
परन्तु मंत्रशास्त्र में ऐसी बात नहीं है। इस विधा से उद्भूत शक्तियाँ सत्प्रयोजनों में ही प्रयुक्त होती हैं। उसमें मंत्रों का उच्चारण जिस विशेष लय, ध्वनि और सुर के साथ किया जाता है, उसकी परिणति सुखद सात्विक शक्तियों के उद्भव के रूप में सामने आती है। एक निश्चित क्रम, लय और सीमा में बँधे मंत्रों के जप एवं उनके अर्थों के ध्यान का प्रभाव अवश्य होता है। अध्यात्मशास्त्रों में उल्लेख है कि प्रत्येक मंत्र का अपना विशिष्ट अर्थ, प्रयोजन और मूल्य होता है। उसमें सन्निहित शक्ति का प्रस्फोट उसके शुद्ध उच्चारण पर तो निर्भर करता ही है, साथ ही लय, ध्वनि एवं प्रयोक्ता की भावना, आस्था की भी प्रमुख भूमिका होती है। इन्हीं के सम्मेलन से प्रभावकारी शक्ति उद्भूत होती और तरह-तरह के प्रतिफल प्रस्तुत करती है। इस आधार पर मुँह से उच्चारित प्रत्येक शब्द मंत्रमय और सामर्थ्यवान बनता है। मंत्रवेत्ता आचार्यों का कहना है कि क्रमबद्ध एवं लयबद्ध शुद्ध मंत्रोच्चार से उत्पन्न ध्वनि पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाती है। उसके परावर्तन से चारों ओर तथा लक्षित क्षेत्र तक शक्तिशाली प्रकम्पन्नों का जाल सा बिछ जाता है। उसकी जितनी सघनता होगी, उतनी ही अधिक चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करेगी। मंत्रित ध्वनि तरंगों से उच्चारण कर्ता के मन-मस्तिष्क और प्राण में नवीन शक्ति प्रवाहित होने लगती है और वह क्रमशः शक्तिपुँज बनता चलता जाता है।
मंत्र विद्या पर अनुसंधानरत वैज्ञानिकों का कहना है कि मंत्रों में इन्फ्रासोनिक एवं कम आवृत्ति वाली अल्ट्रासोनिक स्तर की ध्वनियों का समावेश होता है। उन इन्फ्रासोनिक ध्वनि तरंगों को शाँत, सात्विक प्रकृति का माना है और कहा है कि इसमें नवजीवन प्रदान करने वाली प्रचण्ड ऊर्जा का भण्डार सन्निहित है। उच्च आवृत्ति वाली अल्ट्रासोनिक ध्वनियों की प्रकृति विनाशकारी होती है। तंत्रविज्ञान में इसी का प्रयोग होता है। इनसे प्राणी और पदार्थ को उसी तरह तबाह किया जा सकता है जैसे- शक्तिशाली शस्त्रास्त्रों से। सर्वविदित है कि परा ध्वनियों के माध्यम से धातु खण्डों को काटा या गलाया तथा इमारतों को क्षणमात्र में ध्वस्त किया जा सकता है। सोवियत संघ के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक बी. कूद्रायवत्सेव ने इस बात की गवेषणा कर ली है कि अश्रव्य ध्वनियाँ मंत्रोच्चारण से निकली ध्वनि तरंगें पृथ्वी के अयन मण्डल को घेरे विशाल भू चुंबकीय प्रवाह से टकराती और परावर्तित होकर संपूर्ण वायुमंडल में छा जाती हैं। इसका प्रभाव न केवल प्रयोक्ता पर होता है, वरन् जड़-चेतन सभी उससे प्रभावित और लाभान्वित होते हैं।
ध्वनि की इस प्रचण्ड सामर्थ्य से प्राचीन काल के ऋषि-मनीषी अच्छी तरह परिचित थे। उनने कुछ ऐसे शब्द या शब्द समूहों का आविष्कार किया, जिन का प्रभाव असामान्य स्तर का होता है। इन्हें ही ‘मंत्र’ के नाम से पुकार गया। मंत्र विद्या के इन ज्ञाताओं ने अपने अनुसंधानों और अनुभवों के आधार पर यह पहले ही सुनिश्चित कर दिया था कि किस मंत्र का कितना अथवा किस प्रकार जप करने से कौन सी शक्ति उत्पन्न होगी और उसका मन पर या शरीर के किस अंग अथवा चक्र-उपत्यिका पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ेगा। मंत्राक्षरों के गुँथन और उनमें सन्निहित ध्वनियों का महत्व मंत्रार्थ की तुलना में अनेकों गुना महत्व रखता है।
वर्जीनिया के प्रख्यात चिकित्सा मनोविज्ञानी एवं एसोसियेशन फॉर रिसर्च एण्ड इनलाइटेनमेण्ट के निदेशक डॉ. हर्बर्ट बी. पेरियर का कहना है कि पवित्र मंत्रों में मानव मन एवं अन्तराल को मथ डालने की आश्चर्यजनक क्षमता है। उन्होंने इसे अन्तर्निहित, प्रसुप्त पड़ी पराशक्तियों के जागरण एवं उन्नयन का शक्तिशाली माध्यम बताया है। मंत्र शक्ति का सही उपयोग किया जा सके तो प्रयोक्ता का संबंध, परमात्म सत्ता एवं उसकी सहायक शक्तियों से हो जाता है। मंत्र की सत्यता उसमें सन्निहित शक्तियों के प्रकटीकरण में सन्निहित है और यह प्रयोक्ता की निर्मलता सुदृढ़ आस्था एवं लक्ष्य की उत्कृष्टता पर निर्भर करता है।
मंत्र जप वस्तुतः एक विशिष्ट अभ्यर्थना है, जो अपनी परिपूर्णता या चरम सीमा पर पहुंचने पर इष्ट को शक्तिशाली चुम्बक की तरह अपने पास खींच बुलाने में ऊर्जा के उच्चस्तरीय रूपांतरण का यह एक सर्वोत्तम साधन है। मंत्र जप के साथ, मंत्रार्थ का, उसमें सन्निहित दिव्य भावों-प्रेरणाओं का ध्यान चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत करता है। मंत्रों में गायत्री मंत्र को बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसमें शब्दों का गुँथन कुछ इस प्रकार हुआ है कि यह शरीर की चक्र-उपत्यिकाओं को आँदोलित-उद्वेलित करके रख देता है। इससे प्रसुप्त क्षमताएँ उभरती-विकसित होती देखी जाती हैं। ब्रह्मवर्चस् की सिद्धि गायत्री मंत्र से ही प्राप्त होती है। यदि भावार्थ से जोड़ते हुए मंत्र शक्ति का सुनियोजन किया जा सके तो वे सभी लाभ उठा पाना संभव है, जिनकी महिमा सामगान में, वेद-उपनिषदों में गाई गई है।