Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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एक मनःचिकित्सक के रूप में पूज्य आचार्यश्री
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महायोगी का बहुआयामी व्यक्तित्व सागर में डूबी बर्फ शिला की भाँति होता है। सर्वसाधारण उसे देख और समझ ही कितना सकता है? कभी-कभी तो उसे यह भ्रम होने लगता है कि यह भारी भरकम जहाज को चकनाचूर करने की क्षमता वाली विशालकाय चट्टान न होकर बर्फ का एक छोटा सा टुकड़ा भर है। किन्तु दोष भ्रमित का भी नहीं वह अपनी सीमित दृष्टि के बूते जाने भी कितना? कुछ भी हो इनका शीतल स्पर्श अनेकों संतप्त जीवनों में नव प्राण तो भरता ही है। व्यथा उद्वेग, विक्षोभ, चिन्ता तनाव आदि न जाने कितने मनोविकारों से ग्रसित व्यक्ति उसके पास आकर मनःसन्तापों से छुटकारा पा स्वस्थ सन्तुष्ट जीवन की ताजगी पहले से भी अधिक महसूस करते हैं।
उपनिषद् प्रसंग, वेद मीमाँसा ग्रन्थों के रचनाकार मनीषी अनिर्वाण ने कहा था कि योगी मानव जाति का चिकित्सक होकर जीता है। चिकित्सक वही होगा न जा मनुष्य प्रकृति का पूर्ण जानकार हो, उसकी संरचना व क्रियापद्धति में निष्णात् हो। जिसे विकृति की क्रिया और उसके स्थान की भली प्रकार जानकारी हो। इस सबके बिना तो ‘नीम हकीम खतरे जान’ वाली उक्ति ही चरितार्थ होगी। शरीर शास्त्री सिर्फ शारीरिक गतिविधियों की जानकारी भर रखते हैं। फिर उनने यह भी भ्रम पाल रखा है कि मन भी शरीर का ही कोई टुकड़ा है। रही मनोचिकित्सकों की बात तो उनके अध्यवसाय से इन्कार नहीं किया जा सकता। पर अपने अधूरेपन को वह स्वयं स्वीकारने लगा है। मन तो मानव चेतना का एक छोटा सा हिस्सा भर है। समग्र की जानकारी प्रवीणता हासिल किए बगैर क्या उसके एक अंग को सुधारा जा सकता है?
“मेण्टल हेल्थ एण्ड हिन्दू साइकोलॉजी” के लेखक स्वामी अखिलानन्द ने स्पष्ट किया है कि एक योगी ही सफलतम मनोचिकित्सक हो सकता है। क्योंकि यह मानव प्रकृति की सूक्ष्मताओं और विचित्रताओं से भिज्ञ होता है। लूबाँर्स्की ने एक सफल मनोचिकित्सक के व्यक्तित्व के गुणों की सन् 1952 में अमेरिकन एसोसियेशन की एक मीटिंग में चर्चा करते हुए कहा “मात्र मनोविज्ञान की विधियों तथा तकनीकों में प्रशिक्षण पाने वाले व्यक्ति मनोचिकित्सक नहीं हैं। अधिकतम उसे मनोवैज्ञानिक तकनीकीशियन भर कहा जा सकता है। अच्छे मनोचिकित्सक अधिक संवेदनशील तथा चिन्तन एवम् निर्णय लेने में स्वतन्त्र होते हैं। वे व्यक्तियों से अधिक सम्मान पाते हैं व्यक्ति उन्हें पसन्द करते हैं” . .। परम पूज्य गुरुदेव ऐसे ही मनोचिकित्सक थे। उनके इस रूप का परिचय, अनुभव यों दो-चार, दस, सौ, हजार नहीं बल्कि लाखों को हुआ है। पर शायद वे उन्हें इस तरह न पहचान सके हों।
उन्होंने स्वयं इसे स्वीकारते हुए “हमारी वसीयत और विरासत” में एक स्थान पर लिखा है “हमारे पास कितने ही रोते हुए उद्विग्न विक्षिप्त आए हैं और हँसते हुए गए हैं।” यद्यपि उनके बहुमुखी जीवन को मनःचिकित्सक के छोटे से दायरे में तो किसी भी तरह नहीं समेटा जा सकता, किन्तु फिर भी उनके व्यक्तित्व का वह आयाम जिसने मार्गदर्शन दिया जो लोगों से मिला मिलने वालों की अन्तराल की गहराइयों में घुस कर उसे सँवारा, निश्चित रूप से ‘मनःचिकित्सा’ वाला पक्ष उजागर करता है।
वैज्ञानिक मनोविज्ञान की कसौटी पर उनके इस काम को परखें तो परिणाम को देखकर एक सुखद् आश्चर्य की अनुभूति हुए बिना न रहेगी। एरिकफ्राम ने आज के युग को मनःसन्ताप के युग के रूप में स्वीकारा है। आज के व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन की दशाओं को देखने पर उसकी यह बात सौ टंच खरी दिखाई देती है। मनोरोग कितने होते हैं इसकी पूरी गणना के बारे में विशेषज्ञ अभी एक मत नहीं हो पाए। हाँ शैफर और लाँजरस जैसों ने इन सबको तीन हिस्सों में बाँट दिया है।
मनोस्नायु विकृतियाँ और व्यक्तित्व विकार। पहले में चिन्ता, तनाव, अति संवेदनशीलता भय, आदि आते हैं, दूसरे में हिस्टीरिया, भय, उद्विग्नता आदि की गणना होती है। इसे सरल ढंग से समझाते हुए पूज्य गुरुदेव ने लिखा है कि मनोरोगी अपनी दब्बू या आक्रामक प्रकृति के अनुसार घुटन या उन्माद में जीता है। इन्हीं दोनों की अन्तर्क्रिया व्यक्तित्व की अनेकानेक गड़बड़ियों के रूप में सामने आती हैं।
मनोरोग होते क्यों हैं? इसका कारण मनोवैज्ञानिक कितना स्पष्ट कर पाए यह तो विवाद का विषय है। पर आचार्यश्री स्वयं एक स्थान पर अवश्य लिखते हैं कि मनोरोग और कुछ नहीं कुचली, मसली, रौंदी गई भावनाएँ हैं। इनकी यह दशा हमारे अपने अथवा परिवेश के दूषित चिन्तन के कारण होती है। ‘सतयुग की वापसी’ पुस्तक में वह कहते हैं। “विकृतियाँ दिखती भर ऊपर हैं। इनकी जड़ें गहराई में कुसंस्कारिता के रूप में छिपी हैं। भावनाओं की यह टूट-फूट कब और कैसे हुई? इसके भेद के अनुसार मनोरोगों के अनेकों भेद हो जाते हैं।”
जहाँ ता इनके ठीक करने का सवाल है, संसार भर के क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट चार विधियाँ सुझाते हैं। रेचन, सुझाव, प्रत्यायन और पुनर्शिक्षा। बाकी प्रणालियाँ किसी न किसी तरह इनकी सहायता की हैं। इनमें से कोई एक विधि का प्रयोग करता है कोई दूसरी। उन्होंने इनमें से सभी विधियों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया। रेचन-अर्थात् किसी के अन्दर दमित भावों को उगलवाना कोई सरल काम नहीं। मनोचिकित्सकों के इस हेतु सम्मोहन जैसी कितनी ही विधियों का प्रयोग करना पड़ता है। पर उनके सम्मोहक व्यक्तित्व के सामने आकर उनके विश्वास से अनुप्राणित होकर वह सारा हाल कह देते थे जिसे उन्होंने अभी तक अपनी पत्नी-पति जैसे घनिष्ठतम सम्बंधियों से छुपाए रखा।
इसके बाद वह आने वालों के जीवन के लिए हितकारी सुझाव देते। अब इस स्थिति में क्या करना है? न केवल इसका ब्यौरा बताते बल्कि आगे सहायता करने का वचन देते। उनके सुझाव में सिर्फ मनोरोग का शमन ही नहीं अपितु उच्चतर जीवन के लिए पर्याप्त मार्गदर्शन भी होता। यों उनके सामने आकर हर कोई अपने दिल का हाल खुशी-खुशी बखान देता। फिर भी ऐसे नए लोग भी होते, जिन्हें पहली बार आने के कारण झिझक होना स्वाभाविक था। उनके रेचन के लिए उन्हें वह विधि प्रयोग करनी पड़ती जिसके लिए श्री माँ ने मातृवाणी में कहा है कि “मैं सामने खड़े व्यक्ति की आँखों से उतर कर उसकी समग्र सत्ता की सूक्ष्मातिसूक्ष्म बातें पकड़ लेती हूँ।” इस सक्षम विधि से वे सारी बातों को जान हँसते-हँसाते ऐसी बातें सुना देतीं जो न केवल चिकित्सा रूप होतीं बल्कि व्यक्ति उनको अपना मान बैठता।
मनोवेत्ताओं ने मनःचिकित्सा को दो वर्गों में बाँटा है। पहली वैयक्तिक दूसरी सामूहिक। वैयक्तिक में रोग की तीव्रता होती है। यं सब विकट उन्माद या घुटन में जकड़े होते हैं। सामूहिक चिकित्सा में उन लोगों की गणना की जा सकती है जिन्हें चिन्ता, अनिद्रा, स्नायविक दौर्बल्य जैसी व्याधियाँ होती हैं। आध्यात्मिक सेनेटोरियम के रूप में विकसित शाँतिकुँज में प्रारम्भ के दिनों स अब तक के शिविरों का विश्लेषण इस संदर्भ में किया जाय तो उपलब्धियाँ चमत्कृत कर देने वाली होंगी। प्राण प्रत्यावर्तन, अनुदान, जीवनसाधना, कल्प साधना जैसे शिविरों में अपनी बीती बातों को उन्हें लिखकर देना, साधनात्मक उपचार, औषधि कल्प जैसी विधाओं से व्यक्तियों के जीवन में अकल्पनीय परिवर्तन घटित हुआ।
उनके द्वारा आरंभ की गयी सामूहिक मनोचिकित्सा का एक और सशक्त पक्ष है “गायत्री मंत्र”। “ऑकल्ट साइकोलॉजी ऑफ हिन्दूज” में एन. शुभनारायनन ने वैयक्तिक एवम् सामूहिक मनोचिकित्सा की उत्तम विधा के रूप में इसे स्वीकारा है। संक्षेप में इसे व्यक्तित्व समायोजन की उन्नत विधि के रूप में माना गया है। इसका जप अपने आप में पूर्ण प्रयोग है। जिसका यथाविधि पालन करने पर शब्द शक्ति का शरीर पर पड़ने वाला प्रभाव, जप की लब के द्वारा प्राण का परिमार्जन और एकाग्रतापूर्ण चिन्तन के द्वारा अचेतन का रूपांतरण घटित होता है। इतना ही नहीं इन तीनों का समायोजन सत्ता के उस मूलभूत केन्द्र के आस पास होता है जिसे कार्लगुस्ताव जुंग ने अपनी भाषा में ‘सेन्टर’ कह कर सम्बोधित किया है। इसमें प्रयोगकर्ता साधक का चेतन मन एकाग्र और हलचल रहित होने से सम्प्रेषित किए जा रहे मंत्र के दिव्य भाव उस स्तर का पुनर्गठन करने लगते हैं जिसे मनोवैज्ञानिकों ने मनुष्य में बालकः बर्बर, दमित वासनाओं का पिटारा कहा है। यह अपने आपमें मनःचिकित्सा क्षेत्र की अभूतपूर्व उपलब्धि है।
पू. गुरुदेव की भूमिका महज एक मनोचिकित्सक भर की नहीं रही। बल्कि उन्होंने सैद्धान्तिक व प्रायोगिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी अद्भुत काम किया है। इस सम्बन्ध में यदि उन्हें भारतीय मनोविज्ञान का पुनर्जीवन करने वाला कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। यद्यपि डॉ. यदूनाथ सिन्हा की “इण्डियन साइकोलॉजी” स्वामी अखिलानन्द की “हिन्दू साइकोलॉजी” आदि गिने-चुने ग्रन्थों में भारतीय ऋषि चिन्तन में यत्र-तत्र बिखरे मनोवैज्ञानिक तत्वों का सुन्दर संकलन किया गया है। इन मनीषियों का कार्य प्रशंसनीय होते हुए भी प्रायोगिक कसौटी पर न कसे जाने के कारण अधूरा ही कहा जाएगा।
सिद्धान्तों को प्रयोग की कसौटी पर सिद्ध करने के लिए उन्होंने ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की संस्थापना की। ताकि शाँतिकुँज के आध्यात्मिक सेनेटोरियम में व्यक्तित्व की अनगढ़ता को उचित मार्गदर्शन में सँवार रहे व्यक्तियों का आधुनिक विधियों से सूक्ष्म व व्यापक परीक्षण किया जा सके। वैज्ञानिक कसौटी पर कसी जा रही इस पद्धति को उन्होंने दो विधाओं का एकीकरण कर पूर्णता दी। साइकियाट्रिस्ट सामान्यतया कुछ गिनी चुनी औषधियों पर निर्भर रहते हैं और साइकोलॉजिस्ट कुछ तकनीकों पर। इन औषधियों का स्नायु संस्थान पर कितना खराब असर पड़ता है इसे कोई भी डेविड जॉन इंग्लेबी द्वारा संपादित कृति “क्रिटिकल साइकियाट्री” पढ़ कर जान सकता है और मनोवैज्ञानिक भी अपनी तकनीकों का अधूरापन उस समय अनुभव करने लगते हैं जब रोग तीव्र होता है। पूज्य गुरुदेव ऋषि प्रणीत आयुर्वेद की प्रभावकारी औषधियों एवम् उपनिषद् योग आदि शास्त्रों में वर्णित विभिन्न तकनीकों का एकीकरण कर मनःचिकित्सा की ऐसी समग्र पद्धति तैयार कर गए, जो भावी मनःचिकित्सकों के लिए आधार भूमि प्रस्तुत करेगी।
सैद्धान्तिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में उनकी गवेषणाओं का विस्तार कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं। फिर भी मानव की मूल प्रवृत्ति के रूप में व्यक्तित्व संदर्भ में उनकी अवधारणा का स्पष्टीकरण करने से काफी कुछ झलक मिल जाती है। उन्होंने फ्रायडवादियों की कामुकता के स्थान पर महानता, उल्लास और सहकारिता को मूल प्रवृत्तियों को प्रामाणित कर एक नया सोपान रचा। इसी प्रकार व्यक्तित्व के केन्द्रों की जगह तीन वर्ग किए-सामान्य, असामान्य और अतिसामान्य। पहले में औसत व्यक्ति दूसरे में मनोरोगी, तीसरे में महामानवों को रखा। इसके पहले मनोरोगियों एवम् महामानवों दोनों को असामान्य करार करने की प्रथा थी साथ ही व्यक्तित्व को पर्सोना अर्थात् मुखौटा के स्थान पर गुणों के समुच्चय के रूप में मान्यता दी।
इसी तरह उनकी अनेकों मौलिक गवेषणाएँ हैं जो मनोवैज्ञानिक चिन्तन को एक नई दिशा सुझाने वाली हैं। इनका निकट भविष्य में उसी तरह प्रकटीकरण होगा जैसी मनःचिकित्सक ए. एस. दलाल ने “लिविंग विद इन” व मनोवैज्ञानिक डॉ. इन्द्रसेन ने “इनटीग्रल साइकोलॉजी” में श्री अरविन्द के चिन्तन में व्याप्त मनःचिकित्सा व सैद्धान्तिक मनोविज्ञान के तत्वों को भली प्रकार स्पष्ट किया। इनसे भी कहीं अधिक व्यापक और शोधपरक संकलन अगले दिनों जिज्ञासुओं के समक्ष आएगा। जो अपनी उपादेयता मनोविज्ञान के नूतन आयाम के रूप में प्रस्तुत करने के साथ पूज्य गुरुदेव का परिचय मनोविज्ञान के दिशादर्शक के रूप में देने में समर्थ होगा।