Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राणशक्ति से अनुप्राणित होने की विधा
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साधारण श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया से उत्पन्न ऊर्जा से मनुष्य की सामान्य जीवनचर्या चलती रहती है। शारीरिक अंग-अवयवों के अपने-अपने प्रयोजन सम्पन्न होते रहते हैं, किन्तु अधिक सशक्तता प्राप्त करने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। बड़ा कारखाना चलाने के लिए बड़ी मशीनें बना सकने वाली बड़ी मोटर फिट करनी पड़ती हैं। छोटी मोटरें तो छोटी मशीन ही चला पाती हैं।
महत्वपूर्ण शारीरिक, मानसिक या आध्यात्मिक कार्य करने के लिए जिस उच्चस्तरीय ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, वह खाने-पीने या आग तपाने जैसे प्रयत्नों से नहीं, वरन् वहाँ से प्राप्त करने होती है जहाँ चेतना और पदार्थ दोनों को प्रभावित करने वाली क्षमता का उद्गम है। यह उद्गम ब्रह्माण्डव्यापी ‘प्राण’ है। प्राण ही वह तत्व है जो अन्तरिक्ष में जीवन और पदार्थ दोनों की संयुक्त शक्ति के रूप में प्रवाहित रहता है। प्राणायाम प्रक्रिया द्वारा उसी महाप्राण के लहलहाते महासमुद्र में से अभीष्ट द्वारा उसी महाप्राण के लहलहाते महासमुद्र में से अभीष्ट परिमाण में प्राणतत्व को आकर्षित करने और अपने में धारण कर महत्चेतना से परिपूर्ण बनने की प्रक्रिया अपनाई जाती है।
विविध प्रयोजनों के लिए प्राण प्रक्रिया के अनेकों भेद-उपभेद किये गये हैं। सम्बद्ध अनेकों प्रकार के प्राणायामों का वर्णन योग ग्रन्थों में आता है। विविध प्रयोगों के लिए विभिन्न प्रकार के प्राणायामों का अवलम्बन लिया जाता है, किन्तु ध्यान मिश्रित प्राणयोग दिव्य प्राण चेतना के संवर्धन की एक ऐसी सरल किन्तु बहुआयामी सशक्त विधा है जो जोखिम रहित भी है और सर्व साधारण के लिए उपयोगी भी। इस प्राणाकर्षण प्राणायाम के नियमित अभ्यास से आन्तरिक प्राण सम्पदा क्रमशः बढ़ती जाती है ओर उससे भौतिक सफलताओं एवं आत्मिक विभूतियों का अवरुद्ध मार्ग खुलता है। जीवात्मा का क्षुद्र प्राण ब्रह्म चेतना के महाप्राण से जुड़कर उसी के समतुल्य बन जाता है।
इस प्राणायाम को चित्त लेटकर शिथिलीकरण मुद्रा में आरंभ करना होता है। शिथिलीकरण मुद्रा का तात्पर्य हैं शरीर के प्रत्येक अवयव को इतना ढीला कर देना जितना वह नींद आ जाने पर होता है। प्रयत्न यह होना चाहिए कि किसी अंग पर तनाव न आने पाये। सभी अवयव इस स्थिति में हों मानो इनमें से जान निकल गई हो। मन को भी अर्ध निद्रित स्थिति में ले जाना चाहिए। गहरी नींद तो अपने समय पर ही आती है, किन्तु खुमारी जैसी स्थिति प्रयत्नपूर्वक भी क्या आ सकती है, इस स्थिति को योगनिद्रा कहते हैं। विचारों की भागदौड़ एकदम समाप्त कर दी जाती है। नशे की गहरी खुमारी जैसा अनुभव करना पड़ता है। शरीर और मन को पूरी तरह शिथिल करने में प्रायः पाँच मिनट का समय लग जाता है। इसमें स्व सम्मोहन जैसा प्रयोग करना होता है। अपने ही संकल्प बल से अपने को तंद्रा स्थिति तक पहुँचाया जा सकता है। यह समाधि का आरंभिक अभ्यास है। मनोबल अधिक सुदृढ़ होने पर इसी आधार पर गहरी और लम्बी समाधि भी लग सकती है।
यह कहने को तो प्राणाकर्षण प्राणायाम है, पर वस्तुतः इसे “ध्यान योग” कहना चाहिए। इसमें एक नथुना बंद करने दूसरा खोलने जैसा झंझट नहीं है और न श्वास को उलट-पुलट, रेचक, कुँभक, पूरक की क्रिया करनी पड़ती है।
इस प्रक्रिया में शरीर को शिथिल करते ही यह ध्यान करना पड़ता है कि अपने चारों ओर प्राण तत्व का सागर लहलहा रहा है। अपना शरीर उसके बीच इसी प्रकार रह रहा है, जैसे जलाशय में मछली रहती है। प्राण मात्र हवा नहीं है। उसमें मिला हुआ ऑक्सीजन भी नहीं, वरन् एक चेतन तत्व है, जिसमें जीवट, साहस, पौरुष, पराक्रम, प्रतिभा, प्रखरता, संकल्प आदि चेतन पक्ष को प्रभावित एवं उत्तेजित करने वाले गुण प्रचुर परिमाण में भरे हुए हैं। सर्वव्यापी उस प्राण चेतना में प्रकाश की चमक और ऊर्जा भी घुली हुई है। यह प्राण ही जीवन है। उसी के कारण जीवन को सुसंचालित रख सकने वाली प्राण ऊर्जा मिलती है।
शिथिलता के उपरान्त अपने सब ओर वायु की तरह प्राण भरा होने की भावना प्रगाढ़ करनी पड़ती है तत्पश्चात प्रयोग आरंभ होता है। दोनों ड़ड़ड़ड़ से धीरे धीरे साँस खींची जाती है और भावना की जाती है कि उसमें वायु के साथ प्राण भी बड़ी मात्रा में शरीर एवं मस्तिष्क के भीतर भर रहा है। श्वास धीमी गति से लेनी चाहिए। जब फेफड़े और पेट हवासे लेनी चाहिए। जब फेफड़े और पेट हवा स पूरी तरह भर जाएँ तो इस प्रथम चरण को रोक देना चाहिए। साँस खींचते समय यह धारणा बलवती होनी चाहिए कि शरीर में प्राण ने प्रवेश किया और उसके कण कण को जीवट से भर दिया है।
साँस रोकने की भीतर ही भरे रहने की क्रिया इस उपक्रम का दूसरा चरण है। इसे साधारणतया कुँभक कहा जाता है। थोड़ी देर इस स्थिति में रह कर भावना करनी चाहिए कि शरीर का प्रत्येक कण उस ऊर्जा को सोख रहा है। जिस प्रकार मिट्टी के ढेले पर पानी डालते है तो मिट्टी पानी को सोख लेती है ठीक उसी स्तर का अनुभव करना चाहिए कि जो ग्रहण किया गया था उसे अवशोषित भी कर लिया गया और काया में अभिनव चेतना का संचार हो चला।
इसके उपरान्त साँस को धीरे धीरे दोनों नासिका छिद्रों से बाहर निकालना चाहिए और भावना यह करनी चाहिए कि प्राण के प्रवेश से पूर्व शरीर में जो दुर्बलता रुग्णता थी मन में जो कुछ कुविचार कुसंस्कार भरे हुए थे उन्हें निष्कासित होना पड़ रहा है। उदाहरणार्थ किसी गिलास में पानी भरा हो और उसमें मिट्टी भरनी शुरू कर दी जाय तो स्वभावतः पहले का भरा पानी बाहर निकल कर फैलने लगा। यही स्थिति अपनी भी अनुभव करनी चाहिए कि शरीर में जा प्राण तत्व भरा गया है उसने पूर्व संचित रोग शोक एवं कषाय कल्मषों को निकाल बाहर कर दिया है।
इस प्रकार पूरी साँस धीरे धीरे बाहर निकला देनी चाहिए और अशुभ के निष्कासन की ध्यान धारण परिपक्व प्रखर करनी चाहिए। इसके बाद कुछ देर बिना हवा के रहना चाहिए। साँस रोक लेनी चाहिए और भावना करनी चाहिए कि निष्कासित दोष दुर्गुणों को वापस न लौटने देने के लिए कपाट बन्द कर दिये गये है। इस अवधि में धारणा यही रहनी चाहिए कि अन्तराल का हर कोना न केवल निर्दोष कलुष रहित हो गया है वरन् उसमें सर्वत्र दिव्य चेतना का सांर हो रहा है।
ध्यानयोग परक यह एक प्राणाकर्षण प्राणायाम हुआ। इसकी आरंभ में पाँच बार पुनरावृत्ति करनी चाहिए और फिर एक सप्ताह बाद एक की संख्या बढ़ाते चलना चाहिए। दस पर आकर रुक जाना चाहिए और अधिक मात्रा ग्रहण करने की गुँजाइश है या नहीं।
प्राण धारणा से शरीर में ऊष्मा एवं उत्तेजना बढ़ने लगती है। आलस्य प्रमाद छूटता है और आनन्द उत्साह की अनुभूति होने लगती है। दर्पण में मुँह देखने पर चेहरा चमकता हुआ प्रतीत होता है। आँखों में आनन्द और होठों पर प्रसन्नता दौड़ती है। साथ ही मस्तिष्क पर छाई हुई उदासी दूर होती है और काम करने का उत्साह उभरता है। तनाव से छुटकारा पाने में इससे बढ़िया और कोई दूसरा उपाय नहीं।
अति सर्वत्र वर्जित है। अधिक मात्रा में खाया हुआ पौष्टिक भोजन भी अपच उत्पन्न करता है। अति की ठण्ड और अति की गर्मी भी बुरा असर डालती है। ठीक इसी प्रकार प्राण की अधिक मात्रा भी उपरोक्त प्राणाकर्षण प्राणायाम के माध्यम से उतनी में ग्रहण और धारण करनी चाहिए जो अनावश्यक ऊष्मा या उत्तेजना न पैदा करने लगे।
सर्दी के दिनों में यह प्राणाकर्षण प्राणायाम धूप में अरुणोदय काल में किया जा सकता है किन्तु कपड़े भारी और मोटे किसी भी ऋतु में नहीं पहनने चाहिए क्योंकि प्राण का प्रवेश मात्र नासिका द्वारा ही नहीं रोम कूपों तथा अन्यान्य छिद्रों द्वारा भी होता है। उसी मार्ग से दूषित तत्व भी निकलते है। इसलिए मोटे कपड़े पहनने या बन्द घर में क्रिया करने की अपेक्षा खुले वातावरण में इसे करना और लज्जा ढकने लायक हलके वस्त्र ही शरीर पर रहने देना चाहिए। गर्मी के दिनों में इसके लिए सर्वोत्तम समय प्रातः काल का ब्रह्ममुहूर्त हे। उस समय अन्तरिक्ष में प्राण तत्त्व प्रवाह अत्यन्त तीव्र होता है तथा विशिष्ट प्रकार की चैतन्य धाराएँ सूक्ष्म केन्द्र से समूचे ब्रह्मांड में प्रवाहित होती है। अतः प्राण योग के लिए सबसे श्रेष्ठ समय वही है।
इच्छा भावना एवं संकल्प का पुट जुड़ने से ही क्रियाएँ प्राणवान बनती तथा अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत करती है। ध्यान प्राण योग की प्राणाकर्षण प्राणायाम की सफलता भी इन्हीं की दृढ़ता के ऊपर निर्भर करती है। इस विशिष्ट साधना प्रक्रिया को अपना कर हर कोई ओजस तेजस वर्चस सम्पन्न बन सकता है।