Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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लोक सेवा की सबसे बड़ी पूँजी।
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हाथों में थमी लेखनी कुशल शिल्पी के यंत्र की भाँति कृष्णार्जुन युद्ध नाटक को अन्तिम रूप दे रही थी। शिल्पी निमग्न था अपनी रचना में द्वार खटका निमग्नता में बाधा पड़ी। कौन? इतनी रात में। रुक रुक कर मन में ये शब्द उभरे। अभी दो ही दिन पूर्व तो यह अपने साहित्यिक गुरु आचार्य सप्रेजी के साथ इस स्थान पर आया हैं किसी से कुछ खास परिचय भी नहीं।
कौन? इस छोटे से प्रश्न के उत्तर में खट खट खट का दीर्घ नाद। भला यह भी कोई मिलने का समय है। मुख से निकलते अस्फुट स्वरों में झल्लाहट का पुट था। उठ कर द्वार गुना बढ़ गई। उनके ठीक सामने एक सुन्दर युवती खड़ी थी। वह सोचने लगे क्या परेशानी आ पड़ी है इस पर जिसके कारण इतनी रात्रि को द्वार खटखटाना पड़ा। यदि यह परेशान हे तब इतने अधिक श्रृंगार की आवश्यकता क्यों कर हुई? यदि नहीं..........तो? वह निश्चय नहीं कर पा रहे थे, क्या कहें? फिर भी जैसे तैसे वह बोले देवि मैं इस समय अपने काम में व्यस्त हूँ। यदि तुम्हारी कोई समस्या है तो सुबह मैं तुमसे बात कर लूँगा।
दिन में जमींदार के यहाँ भोजन करते समय चतुर्वेदी जी ने इस युवती को भोजन परोसते हुए देखा थ। पर बात ही ऐसी है कि इसी वक्त की जा सकती है युवती ने कहा।
ऐसी क्या बात है। उन्होंने पूछा ओर फिर तनिक तीखे स्वर में बोले खैर जैसी भी बात हो मैं सुबह ही करूंगा। क्यों क्या भला आपका पुरुष इस समय बात करने में घबराता है। आप इतने कच्चे आदमी है।
युवती ने जैसे उनकी सच्चरित्रता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया सुन कर उन्होंने दरवाजा छोड़ दिया और युवती ने अन्दर प्रवेश किया। फिर स्वयं ही बोले तुम चाहे जो समझो पर मैं यहाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के काम से आया हूँ। उसी काम में व्यस्त हूँ। किसी अन्य काम के लिए मरे पास क्षण भर का भी समय नहीं है।
फिर अपने दुखियों की सेवा करने का ढोंग क्यों रच रखा है? सामने खड़ी स्त्री की वाणी में व्यंग का पुट था। ओह तो तुम दुःखी हो। बोलो मैं तुम्हारी इस वक्त क्या सेव कर सकता हूँ। उनके स्वरों से कोमलता टपक रही थी।
दरअसल बात यह है कि मैंने इण्टर पास किया है। मेरे पति विलायत से आई.सी.एम पास करके आए थे। लगभग डेढ़ साल पहले उनका स्वर्गवास हो चुका है। मैं विधवा हूँ मेरे पास दस हजार रुपया है। मैं आश्रय चाहती हूँ क्या आप मुझसे शादी करेंगे।
परन्तु मैं तो छठी पास हूँ और विवाह की बात तुम्हारे माता पिता क्यों नहीं करते? और तुम भी करती हो तो इस वक्त क्या तुक है?
बात यह है कि मैं आपको पसंद करने लगी हूँ। कहकर उसने निर्लज्ज मुसकान बिखेरी।
वह बोल पड़े अच्छा हो तुम यह विचार त्याग कर अपना धन किसी सेवा कार्य में लगाओ। विवाह करना कोई बड़ा अर्थपूर्ण कार्य नहीं है और मुझसे तो विवाह कर तुम वैसे भी पछताओगी। दस हजार रुपये दस साल भी चल गए तो उससे क्या होगा? तुम मेरे साथ बड़ी दुःखी रहोगी।
उनने उस युवती को कई तरह से समझाया और अन्ततः उसके मस्तिष्क में सेवावृत्ति जाग्रत करने में सफल रहे। समझा बुझा कर उसे वापस भेजा। जब वह युवती वापस लौट गई तो वे ऊपर आए। उन्होंने विवाह की बात छोड़कर शेष सब कुछ बता दिया। परंतु सप्रेजी तो पहले से ही सब कुछ जानते थे। युवती के आने की आहट पाकर वे भी दबे पाँव ऊपर आ गए थे और बाहर से सब कुछ सुन रहे थे। उन्होंने उनकी पीठ थपथपाते हुए कहा माखनलाल! चारित्रिक दृढ़ता ही जीवन का प्राण है। यही वह पूँजी है जिसका प्रयोग करके मनुष्य हरेक दिशा में सफलता के चरम शिखर पर पहुँच सकता है। विशेष रूप से मनीषा को तो दृढ़ चरित्र का होना ही चाहिए ओर हुआ भी यही कालान्तर में माखनलाल चतुर्वेदी हिन्दी साहित्याकाश में सूर्य की तरह उद्भासित हुए। काश! श्रृंगार की अश्लीलता की रचनाएँ लिखने वाले आज के साहित्यकार इस कालजयी से कुछ सीख ले पाते।