Magazine - Year 1990 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
प्रेम सुध रस बाँटो रे भाई
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भावनाओं में सर्वोपरि गणना प्रेम भाव की होती है। इसी के इर्दगिर्द दिव्य सम्वेदनाओं का सारा परिकर जुड़ा होता है। यह मानवी अन्तरात्मा का रस है, जिसे भक्तियोग की साधना प्रक्रिया द्वारा विकसित किया और दया, करुणा, मैत्री, उदारता, सेवा, सज्जनता, सहृदयता, आदि अन्तःकरण की दिव्य विशेषताओं के साथ विस्तृत एवं परिपुष्ट किया जाता है। यह जहाँ से अद्भुत होता है, वहाँ ऐसी उल्लासभरी किसी पदार्थ से नहीं की जा सकती। प्रेम को अलौकिक रस के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। इस निर्झर का जल जो भी पीता है, असीम तृप्ति अनुभव करता है। प्रेमी अन्तःकरण अपने से सम्बद्ध व्यक्तियों को अतिशय बल प्रदान करता है। वातावरण को परिष्कृत कर सकना भी इस भक्ति भावना के विकास विस्तार से संभव हो जाता है।
अन्न शरीर का आहार है, ज्ञान मस्तिष्क का। अन्तरात्मा की भूख प्रेम से बुझती है। अन्तराल को पोषण उसी सघन आत्मियता से मिलता है जिसे सामान्य व्यवहार में प्रेम और अध्यात्म की भाषा में ‘भक्ति कहते हैं। भक्ति के सम्वर्धन का अभ्यास ईश्वर उपासना के माध्यम से किया जाता है, पर वह इतने तक ही सीमित नहीं रहता। व्यायामशाला में शरीर को परिपुष्ट बनाया जाता है, पर उस पुष्ट शरीर का उपयोग व्यायामशाला तक सीमित न रहकर विभिन्न प्रयोजनों के लिए होता है। जिस तालाब में तैरना सीखते हैं, उसी में आजीवन तैरा जाय, अन्य कहीं उस कला का उपयोग न हो, ऐसा कहाँ होता है? ईश्वर भक्ति की साधना से परिष्कृत अंतःचेतना को अपनी सघन आत्मीयता एवं सहृदयता का परिचय पग-पग पर देना होता है। इससे प्रेमी तो धन्य होता ही है, प्रेम पात्र को भी अति महत्वपूर्ण लाभ होता है। गंगा तो स्वयं पवित्र होती है उसमें स्नान करने वाले भी पवित्र बनने लगते हैं।
प्रेम मानवी अन्तरात्मा की भूख है। इसका नियमित अभ्यास करने के लिए ही मित्र, प्रियजनों का परिवार बसाया, बढ़ाया जाता है। प्रेम का आदान-प्रदान दोनों के ही पक्षों के कारण शरीर को बल प्रदान करता है। जहाँ प्रेम का आदान-प्रदान न हो सका, वहाँ भौतिक सुख साधनों का बाहुल्य होते हुए भी किसी को तृप्ति न मिल सकेगी। इस अभाव के कारण अंतस्तल तृषित और मूर्छित ही बना रहता है।
संसार में कई छोटे बच्चे ऐसे मिल जायेंगे, जिनमें बाल्यकाल से ही विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विकास आयु के अनुपात से कई गुना अधिक देखने को मिल जायगा। पिछले दिनों न्यूयार्क के मूर्धन्य चिकित्सा विज्ञानी डॉ. रंनीस्पिट्ज ने इस संदर्भ में गहन अनुसंधान किया और ऐसे बच्चों की पारिवारिक परिस्थितियों कि जानकारी प्राप्त की। पाया गया कि उनमें 99 प्रतिशत ऐसे थे, जिन्हें अपने जन्मदाताओं का विशेषकर माता का स्नेह-दुलार नहीं मिला था या तो उनकी माँ का देहावसान हो चुका था या सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें अपनी माँ से अलग कर दिया था।
इस आरंभिक अन्वेषण ने डॉ. रेनीस्पिट्ज से प्रेम भावना के वैज्ञानिक विश्लेषण की प्रेरणा भर दी। उन्होंने दो भिन्न सुविधाओं वाले संस्थानों की स्थापना की। एक में उन बच्चों को रखा गया, जिनमें उन्हें माँ का भरपूर वात्सल्य और दुलार प्राप्त होता था। वे जब भी चाहें, जब भी माँ को पुकारे, उन्हें अविलम्ब वह स्नेह सुलभ किया जाता था। दूसरी में उन बच्चों को रखा गया था, जिनके लिए बढ़िया से बढ़िया भोजन वस्त्र, आवास, चिकित्सा, क्रीड़ा के बहुमूल्य साधन उपस्थित किये गये थे, पर मातृप्रेम का अभाव था। माताओं के स्थान पर उन्हें संरक्षिका भी मिली थी, जो अकेले ही बारह बच्चों का नियंत्रण करती थी। प्रेम और दुलार और वह भी वह अकेली नर्स इतने सारे बच्चों को कहाँ से पाती? हाँ कभी-कभी झिड़कियाँ उन बच्चों को पिला देती। उन बच्चों का यही था जीवनक्रम। किया गया। उनकी कल्पना शक्ति की मनोवैज्ञानिक जाँच, शारीरिक विकास की माप, सामाजिकता के संस्कार, बुद्धि चातुर्य और स्मरण शक्ति का परीक्षण किया गया।
जिस प्रकार दोनों संस्थानों की परिस्थितियों में पूर्ण विपरीतता थी, परिणाम भी एक-दूसरे से ठीक उलटे थे। जिन बच्चों को साधारण आहार दिया गया था, जिनके लिए खेलकूद, रहन-सहन के साधन भी उतने अच्छे नहीं दिये गये थे, किन्तु जन्मदात्रियों का प्रेम प्रचुर मात्रा में मिला था, माया गया कि उन बच्चों की कल्पना शक्ति, स्मृति, सामाजिक संबंधों के संस्कार शारीरिक और बौद्धिक क्षमता का विकास 101.5 से बढ़कर एक वर्ष में 105 विकास दर बढ़ गया था। दूसरे संस्थान के बच्चों की, जिन्हें भौतिक सुख-सुविधाओं की तो भरमार थी, पर प्यार के स्थान पर गहन शून्यता मिली थी, उनकी विकास दर 124 से घट कर 62 रह गई थी। इन बच्चों को उसी अवस्था में एक वर्ष तक और रखा गया तो पाया गया कि वह औसत 62 से भी घटकर बहुत ही आश्चर्यजनक बिन्दु 42 तक उतर आया है।
पहली संस्था के बच्चों के शारीरिक विकास के साथ दीर्घ जीवन में भी वृद्धि हुई, क्योंकि देखा गया कि उस संस्थान में जो 236 बच्चे रखे गये थे, उनमें से इन दो वर्षों की अवधि में एक भी शिशु की मृत्यु नहीं हुई, जबकि प्यार-विहीन बच्चों वाले संस्थान के 36 प्रतिशत शिशु असमय ही काल के मुख में समा गये।
क्वींस यूनिवर्सिटी आन्टोरियो -कनाडा के वैज्ञानिकों प्रेम का प्राणियों पर पड़ने वाले भौतिक प्रभाव नामक विषय पर गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया है। इस विश्वविद्यालय के फार्माकोलाँज के विभागाध्यक्ष डॉ. एल्डन वायड के अनुसार सक्त अनुसंधान का कार्य एक महिला कर्मचारी को सौंपा गया, जिसे स्वयं जीवधारियों से, विशेषतया चूहों से बहुत प्यार था। वह उन्हें दुलार भरी दृष्टि से देखती, उनकी सुविधाओं का ख्याल रखती और यथा संभव अपने व्यवहार में प्रेम प्रदर्शन भी करती। इसका प्रभाव चूहों पर आश्चर्यजनक हुआ। वह उसके साथ घनिष्ठता से जुड़ गये। जैसे ही महिला पिंजड़े के पास जाती, चूहे उसके पास इकट्ठा हो जाते और उसे एकटक देखते रहते। जो भी वह तरह-तरह की औषधि मिली रहने से वह भोजन उनकी रुचि और प्रकृति के प्रतिकूल पड़ता था। कई बार जानबूझ कर कष्टकर औषधियां भी उन्हें खिलाई गई जिन्हें जानते अनुभव करते हुए भी चूहे उस महिला द्वारा खिलाये जाने पर इस प्रयोग के लिए खुशी-खुशी उसका सहयोग करते।
इसी तरह उन पर कई बार विषैली दवाओं का भी प्रयोग किया गया। देखा गया कि एक ही प्रकार की दवा का प्रभाव दो महिलाओं द्वारा चूहों के दो अलग-अलग ग्रुपों पर करने पर भिन्न परिणाम सामने आये। उक्त प्रेम भावनायुक्त महिला के हाथ से दवा खाने पर 20 प्रतिशत चूहे मरे जबकि उसी दवा को उतनी ही मात्रा में दूसरी महिला ने खिलाया तो 80 प्रतिशत चूहे मर गये। प्रेम सर्वाधिक प्रभावी अमृत संजीवनी रस है, जिसको पीकर अशक्तों एवं मृत्यु की कगार पर पहुँचे हुओं को भी स्वस्थ, सबल और प्राणवान बनते देख गया है। डॉ. फ्रीट्स टालबोट ने अपने जर्मनी प्रवास के समय वहाँ कार्यरत एक वृद्ध नर्स को देखा। उसका वर्णन करते हुए वे लिखते हैं कि यद्यपि देखने में वह वृद्ध कोई आकर्षक भी नहीं थी फिर भी जितनी बार उसकी ओर देखा उसकी मुखाकृति में एक विलक्षण शाँतिप्रद सौम्यता और मुस्कान दिखी। हर समय उसकी बगल में कोई न कोई बच्चा दबा हुआ होता। टालबोट के मन में उस स्त्री को देखकर उसे जानने की अनायास जिज्ञासा उत्पन्न हो गई उन्होंने अस्पताल के डायरेक्टर से उसका परिचय पूछा तो डायरेक्टर ने बताया कि यह तो अन्ना है, डॉक्टरों की भी डॉक्टर। एक ही औषधि है उसके पास जिसका नाम है ‘प्रेम’। जिन बच्चों को हम असाध्य रोगी घोषित कर देते हैं, अन्ना उन्हें भी प्रेम रस पिलाकर अच्छा कर देती है।
निश्चय ही प्रेम वह निर्झर स्रोत है, जिसकी सृजनात्मक धारा ऊसर, बंजर एवं मरुभूमि को आप्लावित करके उसे भी उर्वर बना हरीतिमा से लहलहा देती है। इस अमृत रस को पीकर सूखे, सूने एवं र्भन हृदय में भी जीवन संचार हो उठता है। मानव समुदाय को आज इसी निश्चल प्रेमभाव को विकसित एवं वितरित करने की आवश्यकता है। अपनत्व का, प्रेम भाव का विस्तार ही सच्चा अध्यात्म है।
पता नहीं कब से दोनों हाथों से सिर थामे वह उकड़ूं बैठा था। चेहरे पर विवशता की रेखाएँ विपन्नता का दैन्य, अन्तर की हताशा-निराशा के भाव एक साथ उभर उठे थे। करे भी क्या? मन ही मन बड़बड़ उठा।वही चाक है, वही साँचे, मिट्टी भी वही, हाथ भी पुराने फिर क्या हो गया? पता नहीं क्या? बुदबुदाते हुए उसने एक वितृष्णा भरी दृष्टि चाक, अधसनी मिट्टी, मटमैले हो रहे सांचों, अधबने, अधरँगे खिलौनों पर डाली। दृष्टि निक्षेप के साथ मानो ये सभी भी विवश हो उसकी ओर निहारने लगे।
इसी बीच आया गोशालक। न जाने क्या उलटी सीधी पट्टी पढ़ाई उसने सब कुछ चौपट हो गया। अब काम धाम में मन ही नहीं लगता। सब भाग्य का खेल है नहीं तो क्या इस तरह सब बिगड़ जाता। घाटे पर घाटा एक के बाद एक नुकसान हद होती है।जब किस्मत ही खराब है तो हो भी क्या सकता है। सोचते-सोचते उसने कपाल ठोक लिया।
अरे! आज सुबह ही सुबह बड़े परेशान लग रहे हो। क्या सोचने लगे सकडाल भाई। अपने घर से बाहर निकल रहे पड़ोसी ने उसकी दीन-दशा का कारण जानना चाहा।
कुछ नहीं भाई किस्मत के फेरे हैं। निराशा भरे स्वर फूटे। अपने नगर के बड़े वाले प्राँगण में एक सन्त आने वाले हैं चलोगे, “क्या होगा चल कर सन्त हो चाहे कोई किस्मत बदलने से तो रही”। “बस वही किस्मत भाग्य एक ही रटन।” “चलो भी! तनिक मन ही बहल जाएगा।”
“तुम्हारी स्थिति अच्छी है तभी तुम ऐसी बातें करते हो, खराब होती तब पता चलता। खैर सब समय का चक्कर है। उसके स्वर में वेदना छलछला रही थी। पड़ोसी ने सहानुभूति के स्वरों में कहा-परेशान न हो सकडाल सन्त के पास चलकर देखो वे किस्मत भी बदल सकते हैं। कम से कम चलने से तो न इनकार करो।”
आग्रह और अनुरोध को वह ठुकरा न सका। कन्धे पर अंगोछा डाल कर चलने को तैयार ही हुआ था, तभी उसने देखा सड़क पर दूर से आता श्वेत-वस्त्र धारियों का जुलूस। धीरे-धीरे जुलूस को समीप आते देख पड़ोसी बोल उठा लगता वही हैं। “वही” तब तो लगता है मेरा भाग्य चेत गया। वह उनके तेजोदीप्त चेहरे की ओर देखता हुआ अपने मानसिक द्वंद्व में झाल रहा था। एक मन तो हो रहा था कि उनके चरण पकड़ ले, दूसरा कह रहा था क्या होगा इससे? सब कुछ भाग्य के ही आधीन है।
क्या करूं क्या न करूं के द्वंद्व में नाचते हुए उसे आश्चर्य तो तब हुआ जब वह उसके समीप रुक गया। रुके ही नहीं पूद भी बैठे इतने सुन्दर खिलौने इतने बढ़िया बर्तन कौन बनाता है इन्हें? इशारा पड़ोसी की ओर था।
पड़ोसी ने उसकी ओर देखते हुए कहा ये सभी सकडाल भाई की कलाकृतियाँ हैं। प्रभु।
अच्छा। उन्होंने तनिक आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
इसमें क्या-सब संयोग-वश होता है महाराज! जब संयोग मिल जाते हैं तब ऐसा हो जाता है।
उनने फिर पूछा अगर तुम्हारे इन खिलौने और बर्तनों को कोई फोड़ दे तो?”
अब की बार वह तमक गया-फोड़ेगा कैसे, इससे मेरा नुकसान जो होता है?” अच्छा ठीक है और जी कोई अत्याचारी तुम्हारी पत्नी का शीलभंग करे तो........?” उनने पूछा।
“कौन माई का लाल है जो मेरे रहते मेरी पत्नी की ओर आँख उठा कर भी देखे” अब की बार सकडाल उबल पड़ा। पर उसका क्या दोष? जो होता है वह तो सब नियति के वश ही होता है।” उनका इतना कहना था कि सकडाल की आंखें फटी की फटी रह गई। उसे भान हुआ वह कैसी गलत मान्यता अब तक बनाए हुए था। तब उनने कहा “पुत्र! भाग्य का बीज पुरुषार्थ है ठीक इस आम की गुठली की तरह। गुठली जब अपने को गलाती है ‘कष्ट’ मिट्टी का दबाव सभी कुछ सहती तब वृक्ष जन्म लेता है जो समय पाकर फूलों फलों से लद जाता है” इशारा पास खड़े आम के फलदार पेड़ की ओर था। भाग्य और कुछ नहीं परिपक्व पुरुषार्थ है। मैं जानता हूँ तुम भाग्य का सृजन करो।” कहकर जैनधर्म के आदि प्रवर्तक भगवान महावीर वहाँ से चल दिये। एक थके हारे निराश व्यक्ति को जीवन का कायाकल्प का संदेश सुनाकर यही तो संतों की अवतारों की कार्यशैली रही है।