Magazine - Year 1990 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भविष्य दर्शन महाकाल के अग्रदूत द्वारा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
“यह है अपना भग्न भारत।” उनमें से एक ने अपने बीच खड़े व्यक्ति से खण्डहरों की ओर इशारा करते हुए सम्मानजनक किन्तु क्षुब्ध स्वर में कहा। इन सभी नवयुवकों पर उनके व्यक्तित्व ने गहरा असर डाला था। अभी थोड़े ही दिन पहले इनका मद्रास आना हुआ। पता नहीं कैसे इन सब को उनका पता चल गया। फिर क्या! जैसे-तैसे करके उन्हें राजी कर लिया अपनी “त्रिपलीकेन साहित्य सभा” में उद्बोधन देने मार्गदर्शन करने हेतु। उनके द्वारा दिए गए उद्बोधन का प्रत्येक शब्द सुनने वालों के दिलों में गहरे अतरता चला गया। सभी हतप्रभ थे नवयुवक ही नहीं मद्रास के गणमान्य नागरिक भी जिसने सुना वही। कारण कि सामाजिक, साँस्कृतिक, नैतिक, आध्यात्मिक विधियों की इतनी सारगर्भित सरल और हृदयस्पर्शी विवेचनाएँ और कहाँ सुनने को मिलतीं। संस्कृत अँग्रेजी की मिली-जुली काव्यात्मक भाषा सुनकर सभी अकल्पनीय मनोदशा में तैरने लगे।
उस दिन से आज तक ये सभी उनके साथ थे। सभी के दिलों में एक गहरी टीस थी, दर्द की अनुभूति थी देश जाति के प्रति। सब के मनों की साध थी-खोया सौंदर्य वापस लाने की। पर कैसे? इन सब की दशा महासागर में डोल रही नाव में बैठे उन यात्रियों की भाँति थी जो जाना तो चाहते थे गन्तव्य का भी पता था पर मार्ग और केक्ट के अभावों की बेचैनी इनके अन्तर को मथ रही थी। इन्हें पाकर सभी यह महसूस कर रहे थे यही वह खिवैया है जिसकी चिरअतीत से तलाश थी। उन्हें लेकर आज ये सब महाबलीपुरम आए थे। एक ओर थे चोल और पाण्ड्य नरेशों द्वारा विनिर्मित वास्तुकला के अनोखे नमूने। जो सागर के थपेड़े, इतिहास के झटके खाकर जराजीर्ण हो रहे थे। दूसरी ओर था महासागर जिसके गर्भ से सूर्य उदय हो रहा था ठीक मानव जाति के सौभाग्य सूर्य जैसा। रश्मियों से जल राशि स्वर्णिम हो उठी थी। अपने इन स्वर्णिम जलकणों को सागर लहरों की अंजलि बना इन देव पुरुषों के चरणों में अर्पित कर कृतार्थ हो रहा था।
वह निर्निमेष दृष्टि से उस ओर ताक रहे थे जिसकी ओर उसने इंगित किया था। एक क्षण के पश्चात् पलकें नीचे झुकाई एवम् उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले-”आलसिंगा निराश मत हो एक दिन इसी भग्नता के अन्दर से वह सौंदर्य प्रकट होगा कि जिससे विश्व की आंखें चौंधिया जाएँगी। वर्तमान दशा के कारण देश की साँस्कृतिक विरासत पर कटाक्ष और व्यंग करने वाला जनसमूह भविष्य के रुपहले-सुनहले रूप को देख दाँतों तले अँगुली दबा लेगा।” सिर पर पगड़ी बाँधे माथे पर वैष्णव तिलक लगाए अपने कलेवर को धोती-कुर्ते में समेटे वह उनकी ओर आंखें फाड़े आश्चर्य से देखने लगा। प्रायः सभी की यही दशा थी और वह गठा हुआ सुदृढ़ गौर शरीर, मुसकान को सर्वदा सँजोए रखने वाला मुख मण्डल अधख्ली स्वप्निल दीर्घ आंखें, जो बाहर की अपेक्षा अन्दर की ओर देखती हुई प्रतीत होती थी गैरिंक वसनों में ऐसे लग रहे थे जैसे अग्नि शिखाओं का परिधान पहने भारत का गौरव स्वयं आखड़ा हुआ हो।
एक इशारे से उन्होंने सभी को और नजदीक बुलाया और सबके साथ पास पड़ी पाषाण शिक्षा पर बैठ गए। “स्वामी जी! एक अन्य नवयुवक प्रस्तर खण्ड पर बैठते हुए कह रहा था-मैं अपनी बातों पर अविश्वास तो नहीं करता आप भला निराधार बात कहेंगे भी क्यों? फिर भी मेरे मन में सन्देह है?
“निःसंकोच कहो बंधु “। उन्होंने इस साँवले तरुण की आंखों में देखते हुए कहा।
कौन करेगा यह सब? कैसे होगा यह? उस दिन की बात याद है न आपको जब आपने “हिन्दू” में प्रकाशित समाचार को पढ़ते हुए.....। “वही समाचार न जिसमें कि बताया गया था कि कलकत्ता में भाषण देते समय एक मिशनरी महिला ने हजारों शिक्षित युवकों के सामने हिन्दूधर्म को ठोस अनैतिकता और पागलपन बतलाया था। सुनकर सभी ने सिर तो झुका लिया पर किसी के मुख से चूँ तक न निकली।
हाँ हाँ वही!
और मैंने इन्हें चूहा कहा था जो दूसरों की घुड़की पर बिल में दुबके रहते हैं जबकि अपनों की जीवन सम्पदा को कुतरने नष्ट करने में इन्हें मजा आता है। यही कहना चाहते थे न। तो क्या अब यही चूहे....। अविश्वास की मुद्रा में उसने देखा।
“शान्त हो सुनो!” इन शब्दों ने जादू का सा असर डाला। सब मौन हो उनकी वाणी की प्रतीक्षा करने लगे। उन्होंने अपनी अधखुली आँखों को पसार कर एक गहरी दृष्टि सब पर डाली। आँखों से निकलती नीली लहरें सभी को एक अनजाने प्रदेश की ओर ले जाने लगीं। “आज मैं तुम सबके सामने एक रहस्य उद्घाटित करता हूँ। यह रहस्य जिसे मेरे गुरु ने मुझे दिया था। वह रहस्य!! जो कठोर साधनाओं के द्वारा मेरे अन्तराल में उतरा है। वह रहस्य!!! जिसे हिमालय की ऋषि सत्ताओं ने मेरे सामने उद्घाटित किया है।”
सभी के मन एकाकार हो रहे थे हृदयों में जिज्ञासा की दीपशिखा प्रकाशित हो चुकी थी। एक शाँति थी, अचंचल नीरवता महासागर भी इसका सहभागी बनने लगा था। शायद वह भी इस रहस्य को आत्मसात् करने का इच्छुक हो उठा था। रहस्य! प्रकृति के गूढ़ गर्भ का अनमोल रत्न! सूक्ष्म चेतना की हलचलों का प्रकटी करण!
“वर्तमान युग समाप्त होने को है। इसके स्थान पर सत्य युग पुनः प्रतिष्ठित होगा। विश्व की प्राण शक्ति अकुला कर जाग रही है। विश्व कुण्डलिनों के इस जागरण का केन्द्र बनेगा भारत। ऋषियों की चिर पुरातन गौरव भूमि पुनः जगत गुरु का मुकुट पहनेगी।” आवाज किन्हीं अतल गहराइयों से उभर रही थी। वह वैश्व चेतना से एक हो बोल रहे थे। निस्तब्धता स्वरों को धारण कर रही थी।
वह कह रहे थे “नवयुग का निर्माण व्यक्ति जाति प्रशासन, जनसमूह की नहीं स्वयं ईश्वर की योजना है। उसी सृजेता का संकल्प है यह जिसके संकेत मात्र से निहारिकाओं की सृष्टि होती, सैकड़ों लाखों, करोड़ों ब्रह्मांडों को उदय अस्त, होता है। अनेकानेक सृष्टि संरचनाएं अभ्युदय और विस्तार पाती हैं। उसकी योजना के प्रायः अन्तिम चरण में उपयुक्त समय पर एक शक्तिपुँज महामानव बन जाएँगे।”
शब्द सभी की रगों में लहू के साथ दौड़ने लगे थे। रोमाँच का अनुभव होने लगा। सबको उनकी वाणी गतिशील थी “जब कभी कोई महापुरुष आता है, तो परिस्थितियाँ पहले से उसके पैरों के नीचे तैयार रहती हैं। वह ऊँट की पीठ को तोड़ देने वाले बोझ का अन्तिम तृण साबित होगा। हम उसके लिए भूमि तैयार कर रहे हैं।”
“नवयुग का निर्माण ईश्वर की योजना” है हमें उसके लिए भूमि तैयार करना है मेरे बच्चों!” सभी जैसे सोते से जगे। चेतना के अतल सागर से सभी के मन एक-एक करे उबरने लगे। थोड़े क्षण सभी मूक हो गए।
भूमि की तैयारी? पर किस तरह? कई कण्ठों से आतुर वाणी निकली।
“यह एक दिन का काम नहीं, एक शताब्दी में यह होगा। रास्ता भी कंटकों से आकीर्ण है। परन्तु पार्थ सारथी हमारे भी सारथी होने के लिए तैयार हैं। उनका नाम लेकर और उन पर अनन्त विश्वास रखकर भारत के युगों से संचित पर्वतकाय अनन्त दुःख राशि में आग लगा दो। हम लोग साधनहीन भले दिखें तो भी हम अमृत पुत्र और ईश्वर की सन्तान हैं। विश्वास सहानुभूति दृढ़ विश्वास और ज्वलंत सहानुभूति चाहिए। जीवन तुच्छ है, मरण भी तुच्छ है। आगे कूच करो- प्रभु ही हमारे सेना नायक हैं। उनकी योजना वे ही पूरा करेंगे। किन्तु हमें निमित्त मात्र बनने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखनी है।”
युवकों के चेहरे पर उल्लास और विश्वास की रेखाएँ उभर उठीं। सभी की अंतर्चेतना भविष्य की उज्ज्वल झलक पा पुलकित हो उठी थी। ईश्वरीय योजना की इस पृष्ठभूमि के निर्माता गैरिक बसन से आवेष्ठित महाकाल के अग्रदूत थे विवेकानन्द। उनके द्वारा निर्देशित पल अब इस संधि बेला में आ पहूँवे हैं। योजना का अन्तिम चरण कारण और सूक्ष्म की गहराइयों से उबर कर प्रत्यक्ष हो रहा है। साथ ही हर ओर से एक ही ध्वनि गुँजित हो रही है- “निमित्त मात्र भव्य सव्यसाचिन”। जाग्रत सुसंस्कारित इसे सुनकर भग्न देश की सँवारेंगे नया जमाना लायेंगे।