Magazine - Year 1990 - Version 2
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Language: HINDI
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क्या ईश्वर पर मुकदमा चलाया जा सकता है?
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कभी-कभी असमंजस होता है परमेश्वर की रीति-नीति को देखकर कि उसने कोटि-कोटि प्राणियों से भरी हुई इस विश्व वसुंधरा में मात्र मनुष्य को ही विशेष प्रकार की समुन्नत स्तर की विभूतियाँ क्यों प्रदान की? जब कि सृष्टि के अन्याय प्राणी उन सुविधाओं से वंचित ही बने रहते हैं। ऐसा लचकदार, हाथ पैरों की असाधारण संरचना वाला, सर्वांग सुन्दर, खड़े होकर चलने वाला ओर अगणित प्रकार के, असाधारण स्तर के कलाकौशल को सम्पन्न करने वाला शरीर और किसका है इसकी खोजबीन करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य के अतिरिक्त और कोई जीवधारी इस स्तर का सजा नहीं गया।
काय कलेवर की परत उधेड़ कर कुछ गहराई तक उतरने पर प्रतीत होता है कि मात्र शरीर ही विलक्षण नहीं, वरन् उसकी भीतरी परत में एक विलक्षण स्तर का मनः संस्थान भी है। खोपड़ी की कड़ी चहारदीवारी के भीतर उसका निवास होने से आँखों द्वारा उसे प्रत्यक्ष तो नहीं देखा जा सकता। पर उसकी चिन्तन परक क्षमताओं को देखते हुए प्रतीत होता है कि यह जादुई पिटारे से कम आश्चर्यजनक किसी भी प्रकार है नहीं। कल्पना, विचारणा, निर्धारणा, भाव संवेदना, मान्यता, आस्था जैसी अगणित परतें इस पिटारी के भीतर विद्यमान हैं। यदि वे प्रसुप्त मूर्छित स्थिति में पड़ी रहें तो बात दूसरी है, अन्यथा यदि उन्हें तनिक भी समुन्नत स्तर तक उठने का अवसर मिल जाय, तो मनुष्य अगणित सफलताएँ अर्जित कर सकने वाला सिद्ध पुरुष बन सकता है। यदि कुछ और उभार आ सके, तो उसे ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी होने में देर न लगे। ज्ञान और विज्ञान से संबंधित उसकी अनेकों विशेषताएँ उभर पड़ें तो मनीषियों दिव्यदर्शियों जैसी उच्चस्तरीय भूमिका निभाते उसे देखा जा सकता है। इंजीनियर, डॉक्टर, आर्कीटेक्ट, योजनाकार, कलाकार स्तर के अनेकों विशेषताओं से सम्पन्न लोग तो मस्तिष्क को तनिक सा विकसित कर लेने भर से बनते देखे जा सकते हैं।
प्रश्न यह है कि ऐसे ही सुविधा सम्पन्न शरीर और मस्तिष्क अन्यान्य प्राणियों को क्यों नहीं मिले? यदि स्रष्टा और समदर्शी और न्यायनिष्ठ कहा जाता है तो उसने ऐसी अनीति क्यों बरती कि एक ही प्राणी को सृष्टि का मुकुटमणि बन सकने जैसी सुविधा प्रदान कर दी और अन्य सभी को अनपढ़ स्थिति में समय गुजारने जैसे तुच्छ स्तर के कलेवर देकर बहका कर भगा दिया गया।
मोटी दृष्टि से विचार करने वाले नास्तिक विचारधारा के लोगों का कहना है कि ऐसे अनेकों प्रश्न उठ खड़े होते हैं, जिनके कारण स्रष्टा में इतनी भर न्याय निष्ठा नहीं दीख पड़ती जितनी कि सामान्य लोगों में अपनी संतानों के बीच एक बड़ी सीमा तक निष्पक्षता के रूप में देखी जाती है। नैतिकता-नीति निष्ठा गँवा बैठने पर तो कोई सत्ता ऐसी नहीं रह जाती, जिसके प्रति निष्ठा उपजे, जिसकी भक्ति करने के लिए विचार बने जिसकी पूजा अभ्यर्थना करने के लिए अन्तःकरण हुलसित हो। वे कहते हैं कि समर्थता ही तो सब कुछ नहीं है अतीव शक्तिसम्पन्न महादैत्यों तक के नमन-वंदन के लिए जब उनका प्रचण्ड दमन सामने रहने पर भी मनुष्यता ने सिर नहीं झुकाया तो फिर ईश्वर का सर्वशक्तिमान होना भी वह निमित्त कारण नहीं बन सकता। जिसके लिए उसे उपास्य या आराध्य ठहराया जा सके। मनुष्य का अपना भी तो विवेक है। उसने स्वयं भले ही अनीति बरती हो, पर समर्थों का अन्याय तो उसने कठिन, प्रबल विरोध किए बिना छोड़ा नहीं है। फिर ईश्वर ही तर्कों के इस आक्रोश से क्यों कर बच सकेगा?
बात यहीं तक सीमित नहीं है। जीवधारियों का पक्ष लेने वाले तथा मनुष्य को मिले अधिकारों को चुनौती देने वाले तो यह कहते हैं कि जो मनुष्य अतिरिक्त रूप से उत्पन्न हुई विभूतियों का पग-पग पर दुरुपयोग करने के लिए उतारू रहता है छल, प्रपंच, अनाचार, शोषण उत्पीड़न जैसे कुकर्मी का ताना-बाना बुनता रहता है, उसी को भगवान ने यह छूट कैसे दे दी कि जिस प्रकार अन्यान्यों को बहका फुसला कर अपना उल्लू सीधा करता रहता है, वही कुचक्र पूजा पाठ का रूप बनाकर ईश्वर को भी वशवर्ती बना सकता है और उससे वैसे ही लाभ वरदान रूप में पा सकता है जैसे कि पालतू पशुओं को बन्धनों से जकड़ कर मन चाहा लाभ उठाया जाता है। ईश्वर इतना भोला कैसे बन गया? उपासना कराने की ऐसी क्या ललक उस पर चढ़ दौड़ी कि वह चाटुकारों की मनुहार के पीछे छद्म को नहीं समझ सका।
यों ये आक्षेप कम वजनदार नहीं हैं। यदि धर्मराज की अदालत में ईश्वर पर दो मुकदमें चलाये जा सकें तो व्यवस्था का दावेदार बनने वाले ईश्वर पर उपरोक्त दोनों ही अभियोगों द्वारा तर्क और तथ्य को आधार बनाने वाला वकील इस प्रकार इल्जाम सिद्ध कर सकता है कि अभियोग की यथार्थता सिद्ध हो सके और भगवान को अभियुक्तों के कटघरे में खड़ा होना पड़े। इस पूरे प्रकरण का किसी नास्तिक की बकवास कहकर टाला भी तो नहीं जा सकता।
इन आरोपों का जवाब देना ईश्वर का नहीं, इसकी सत्ता का प्रतिपादन करने वालों का कर्तव्य है। ईश्वर की सच्ची परिभाषा जिसने समझी होगी, वह इसका वकील सही अर्थों में बनकर यह मुकदमा लड़ सकता है। ईश्वर सत्प्रवृत्तियों का नाम है। ईश्वर अनुशासन का, विधि-व्यवस्था का नीतिमत्ता का, सुव्यवस्था का नाम है। वह निराकार रूप में कहीं है तो इसी रूप में विद्यमान है। मनुष्य को उसने बुद्धि तो दी पर नर पशु का नर पामर का अथवा देवमानव का, ऋषि का जीवन जीने की स्थिति का चयन करने की स्वतंत्रता भी दे दी। यह मनुष्य की विवेक बुद्धि पर निर्भर है कि वह किस मार्ग का अवलम्बन करता है।
अन्यान्य प्राणियों में चेतना है, अतीन्द्रिय क्षमता है, इस्टींक्ट्स हैं, साथ ही भावनाएँ भी। यदि उन्हें मनुष्य की तरह बुद्धि मिलती तो वे भी कुटिलता के षड़यंत्रों के शिकार हो कर एक दूसरे के लिए दूरभिसन्धियाँ रच रहे होते। इस प्रकार प्राणियों में भी मानवी सद्गुण हैं एवं मानव में भी पाशविकता के सभी लक्षण। जो भी उस सृजेता द्वारा प्रदत्त विभूतियों का सुनियोजन करता है, वह आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करता चला जाता है एवं जो दुरुपयोग करता है वह पतन के गर्त में चला जाता है।
निष्ठुरता-सहृदयता, दुर्बुद्धि-सद्बुद्धि -सद्विवेक, दुष्कर्म सभी अपने चयन पर निर्भर हैं। इस तरह दोषी ईश्वर नहीं उसकी वह कृति है जो मनचाहा दुरुपयोग करने की उच्छृंखलता बरतने लगती है। पात्रता का ध्यान किये बिना उपासना का ढोंग रचकर उपहासास्पद विडम्बना रचती है। मुकदमा ईश्वर पर नहीं मनुष्य पर चलाया जाना चाहिए जिसने अपने हाथों इस विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने के स्थान पर भग्नावशेषों में बदल डाला है। जिस दिन यह मर्म समझ में आजाएगा व्यक्ति मनःस्थिति बदलकर सही अध्यात्म पर चलने का मार्ग सीख जाएगा। फिर वह परिस्थितियों पर दोष न मढ़कर अपने चिन्तन को बदलने का कला को जीवन में स्थान देगा।