Magazine - Year 1991 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आरुणि से उद्दालक
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
आज प्रातः से ही मूसलाधार बारिश हो रही थी, मानो जेठ की तपन से व्याकुल धरती आज महीनों बाद तृप्त हो रही हो।
मुनि धौम्य अपने तीनों शिष्यों आरुणि, उपमन्यु व वेद समेत कुटिया में विद्यमान थे। ऋषि इस वर्षा को देख गदगद हो रहे थे और सोच रहे थे कि इस वर्ष फसल काफी अच्छी होगी, किन्तु रह-रह कर उन्हें एक चिन्ता भी खाये जा रही थी कि कहीं घनघोर बरसात से खेत की मेंड़ न टूट जाय। फसल बोयी जा चुकी थी। पौधे भी उग आये थे। यदि जल निकल जाता है, तो पौधे सभी सूख जायेंगे और मन की पुलकन कल की सिहरन में बदल जायेगी। इसी द्वन्द्व में वे खो-से गये थे। तभी “आचार्य” शब्द से उनकी चिन्तन-शृंखला टूटी। वे जैसे सोये-से जगे। सम्बोधन आरुणि का था। वे कह रहे थे कि इस खुशी के अवसर पर आपके हृदय में कौन-सा शूल चुभ रहा है, जिसके कारण इतने गंभीर हो उठे हैं।
मुनि धौम्य ने कहा “वत्स! बात ही कुछ ऐसी है, मुझे परेशान कर रही है।”
तात्! आप आज्ञा तो करें मैं आपका कष्ट दूर करने का हर संभव प्रयास करूंगा।” आरुणि का दृढ़ता भर स्वर उभरा।
“अच्छा।” गुरु के चेहरे पर फैले विषाद को चीरते हुए मुसकान की एक हल्की रेखा उभर आयी।
“तो सुनो” गुरु का सम्बोधन था-”मुझे भय इस बात का हो रहा है कि इस तीव्र बारिश में खेत की मेंड़ न टूट जाय। यदि ऐसा हुआ, तो फसल सूख जायेगी। सोचा था इस साल अच्छी बरसात से अच्छी उपज होगी,पर अब संकट दूसरा ही सामने उपस्थित हो गया है।”
“बस इतनी सी बात के लिए आप इतने चिन्तित हैं।” आरुणि का स्वर था- “मैं आपकी परेशानी अभी दूर किये देता हूँ।”
“सो कैसे?” आचार्य ने प्रश्न किया।
“मेंड़ को बाँध कर।” उत्तर मिला।
“वत्स! तीव्र जल-प्रवाह को रोक पाना कोई आसान काम नहीं है।” गुरु मानो शिष्य के अन्तराल में झाँक कर उसके मन को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे।
“सो तो ठीक है, पर प्रयत्न करना भी तो मनुष्य का कर्तव्य है। यदि वह हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाय, तो भी तो बात बनने वाली है नहीं।”
गुरु की परीक्षा जैसे पूर्ण हुई, किन्तु फिर भी उन्हें पूरी संतुष्टि न मिली। एक और पासा फेंक कर शिष्य के मन को उन्होंने टटोलने का प्रयास किया।
“बेटे आरुणि।” धौम्य कह रहे थे -”तुममें उत्साह भी है, लगन और क्षमता भी, पर मेरा मन इस घनघोर वर्षा में तुम्हें बाहर भेजने का हो नहीं रहा है। डर यह लग रहा है कि बरसात में भीग जाने से तुम्हें ज्वर अथवा सन्निपात न हो जाय। हृदय इन्हीं शंका-कुशंकाओं से सम्प्रति भर उठा है।”
आरुणि समझ गये कि उन्हें कसौटी पर कसा जा रहा है। उनकी परख की जा रही है कि शिष्य सौ टंच खरा है या नहीं। धौम्य के प्रति तो उनकी निष्ठ अपूर्व थी ही और विश्वास यह था कि इन महान गुरु के सम्मुख इन क्षुद्र व्याधियों की क्या बिसात, जो अपने पाश में बाँध लें।
उनने कह दिया-”आचार्य! आपके रहते मेरा कौन क्या बिगाड़ सकता है। बस आपका आशीर्वाद चाहिए।”
रहस्यमय हल्की मुसकान के साथ आशीर्वाद की मुद्रा में धौम्य का हाथ उठ गया। शिष्य ने सिर नवाकर प्रत्युत्तर दिया।
वर्षा कुछ थमी, तो तीनों शिष्य अपने अपने कार्य के लिए निकल पड़े। आरुणि ने फावड़ा उठा कर खेत की राह ली। उपमन्यु गौवें चराने निकल पड़े। वेद के जिम्मे लकड़ी लाना और भोजन पकाना था, सो वे भी कुल्हाड़ी लेकर सूखी लकड़ी की तलाश में निकल पड़े।
आरुणि जब खेत पर पहुँचे तो देखा कि एक जगह से मेंड़ टूट कर पानी तेजी से बाहर निकल रहा है। उन्होंने फावड़े से आस-पास की गीली मिट्टी काट-काट कर उस स्थान पर डालना आरंभ किया, पर शायद गुरु की परीक्षा अभी पूर्ण न हुई थी। जब वे एक बार मिट्टी डाल कर दुबारा डालने आते तो पहले की मृत्तिका बह चुकी होती। लम्बे समय तक उनका यह उपक्रम चलता रहा, पर जब तीव्र प्रवाह को रोक सकने में उनका यह प्रयत्न निष्फल रहा तो कुछ क्षण तक खड़े रह कर बहाव को रोकने की कोई दूसरी युक्ति सोचते रहे। अचानक उन्हें एक उपाय सूझा कि क्यों न मेंड़ पर स्वयं लेट कर बहती धारा को रोक दिया जाय। उसके बाद उन्होंने वैसा ही किया।
जल-प्रवाह रुक गया।
इधर रुक-रुककर लगातार वृष्टि हो रही थी, कभी तेज, कभी धीमी सन्ध्या घिर आयी। उपमन्यु और वेद अपने-अपने काम से वापस लौट आये। और अध्ययन में जुट पड़े। उन्हें आरुणि की अनुपस्थिति का आभास तो हुआ, पर यह सोच कर उस ओर अधिक ध्यान न दिया कि आरुणि अपने कार्य से निवृत्त हो हम लोगों से पहले लौट आये हों एवं किसी अन्य कार्यवश आचार्य ने शायद उन्हें बाहर भेज दिया हो।
शाम से रात्रि घिर आयी। मुनि धौम्य ने शिष्यों को भोजन के लिए पुकारा। उपमन्यु और वेद उपस्थित हो गये। आरुणि को वहाँ नहीं देख ऋषि ने उनके बारे में पूछा। अब दोनों को चेतना आयी। वे एक-दूसरे की ओर देखने लगे, जैसे प्रश्न कर रहे हों “तो क्या आरुणि खेत से वापस अब तक नहीं लौटे?”
दोनों को मौन देख कर आचार्य ने प्रश्न किया-”आखिर बात क्या है? तुम दोनों इस प्रकार मौन क्यों हो? आरुणि कहाँ है?”
दोनों साथ-साथ बोल पड़े “देव! आपने ही तो उन्हें प्रातः खेत पर भेजा था।”
“तो क्या तब से वह वापस लौटा ही नहीं?” आचार्य ने विस्मय भरी प्रश्नवाचक दृष्टि उन दोनों पर डाली।
“शायद नहीं।” उपमन्यु का उत्तर था “यदि लौटा होता, तो वह यहीं होता। हम लोगों ने तो यह समझा था कि आपने किसी अन्य कार्य से उन्हें पुनः कहीं बाहर भेज दिया हो। यही सोच कर चुप थे, किन्तु अब ज्ञात हुआ कि वे अब तक सुबह से लौटे ही नहीं हैं।”
“ओह!” मानों आचार्य के हृदय में काँटे चुभ गये हों और मर्माहत दिल से अनायास यह पीड़ा बोधक ध्वनि फूट पड़ी हो।
इस बीच जल-वृष्टि शान्त हो चुकी थी। आचार्य ने हाथ में मशाल ली और दोनों शिष्यों से कहा “चलो उसे ढूँढ़े। बेचारा न जाने कहाँ किस स्थिति में पड़ा होगा। कहीं कुछ अनिष्ट तो नहीं हो गया। मन शंका-शंकित हुआ जा रहा है। ऋषि धौम्य की अकुलाहट भरी वाणी उभरी।
उपमन्यु और वेद भी ऐसी ही चिन्तन-धारा में बहे चले जा रहे थे। अनिष्ट की आशंका से रह-रह कर उनका हृदय काँप उठता। अन्ततः खेत आ पहुँचा। मशाल की रोशनी में सभी ने उन्हें ढूँढ़ना प्रारंभ किया