Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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सियाराम मय सब जग जानी।
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सूफी संतों के इतिहास में सन्त इब्राहिम बिन अदहम का मूर्धन्य स्थान है। एक बार उनके मन में इच्छा जाग्रत हुई कि मक्का की यात्रा कर काबा के दर्शन किये जायँ। सो, वे विचार करने लगे कि यह किस प्रकार की हो। क्योंकि वे चाहते थे कि यह सामान्य प्रकार की न होकर कोई विशेष तरह की हो, ताकि पैगम्बर मुहम्मद उससे प्रसन्न होकर आशीर्वाद वरदान से उन्हें निहाल कर दें। ध्यान आया कि क्यों न हर कदम पर रकअत (एक विशेष प्रकार की नमाज) का पाठ करते हुए यात्रा सम्पन्न की जाय।
बस, फिर क्या था। विचार को क्रिया रूप दे दिया गया। यात्रा शुभारंभ हुई। पग-पग पर नमाज पढ़े जाने के कारण मक्का पहुँचने में उन्हें काफी विलम्ब हुआ। चौदह वर्ष लग गये। इतनी लम्बी यात्रा के उपरान्त भगवान की इबादत करते हुए गन्तव्य पर जब वे पहुँचे तो हतप्रभ रह गये। काबा अपने स्थान से गायब था। सोचा, शायद दृष्टि में कोई अन्तर आ गया है। कई बार आंखें मलीं, मुलमुलायीं, किन्तु फिर भी काबा नदारद। अभी वे इस संबंध में लोगों से पूछताछ करना चाह ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई कहा गया- अदहम! न तो तुम्हारी आंखों में कोई फर्क आया है, न जो तुम देख रहे हो, वह भ्रम ही है। काबा वस्तुतः इस समय अपने स्थान पर नहीं है। वह अपने एक अत्यन्त प्रियपात्र के स्वागतार्थ गया हुआ है।
इतना सुनना था कि अदहम सोच में पड़ गये कि आखिर वह कौन-सा सौभाग्यशाली है, जिसकी अगवानी करने के लिए काबा को अपना स्थान छोड़ना पड़ा? हमने तो पग-पग पर, कदम-कदम पर भगवान को याद किया, उन्हें एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं किया, फिर भी हम उनके प्रेम भाजन न बन सके।
इन्हीं विचारों में खोये इब्राहीम अदहम अपने भाग्य का रोना रो रहे थे कि चौदह वर्ष हमने बेकार में गँवा दिये। यदि इतना मालूम होता कि पैगम्बर इस तरह के मनुहार से प्रसन्न नहीं होते है, तो भला इतना समय और श्रम क्यों बरबाद करता। इतने में सामने से संत राबिआ आती दिखाई पड़ीं।
आकाशवाणी एक बार पुनः हुई-”ऐ! इब्राहीम! यही खुदा की वह हबीब है, जिसके स्वागत के लिए काबा गया हुआ था। तू अफसोस न कर और राबिआ से वह रहस्य ज्ञात कर कि वह हमारी इतनी प्रिय किस प्रकार बन गई। उपाय जान कर तू भी उसी तरह के कार्य में संलग्न हो जा। तुम्हारी वह सेवा हम ग्रहण करेंगे। फिर तुम भी हमारे उतने ही निकटतम व अजीज होंगे, जितनी राबिआ है।”
संत बीच ही में बोल पड़े-”ऐ बन्दानवाज आप ही क्यों नहीं बता देते कि मेरी बन्दगी में कमी क्या रह गई जिससे आपने उसे कबूल नहीं किया?”
“तो सुन”-इब्राहिम के कानों से आवाज टकरायी तुमने मेरी सच्ची सेवा की जगह प्रदर्शन और आडम्बर को अपनाया, सस्ती वाहवाही लूटनी चाही।