Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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दो शिष्य (Kahani)
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दो शिष्य थे- एक गुरु। दोनों रात्रि को गुरुदेव के चरण दबाते। उनने अपने -अपने पैर बाँट लिए थे। एक के हिस्से में बायाँ और दूसरे को दायाँ।
एक दिन एक शिष्य कहीं चला गया। दूसरे ने सिर्फ अपने वाला पैर दबाया। दूसरा पैर पहले के ऊपर आ गया तो उसने पास का डंडा उठा कर जड़ दिया, मुझे दूसरे के पैर से क्या वास्ता? वह मेरे पर इस प्रकार क्यों चढ़े?
गुरु को चोट लगी और तिलमिला गए। उस अनाड़ी को डाँटते हुए बोले। बँटवारा तो तुम लोगों ने किया है। पैर तो दोनों ही मेरे हैं। चोट पहुँचाने से तो मैं ही आहत होता हूँ।
सभी मनुष्य परमेश्वर की संतान हैं। अपने पराए के बीच किसी को भी चोट पहुँचाना स्रष्टा को आहत करना है।
पर दूर-दूर तक कोई व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ा। इस बरसाती रात में अपने झोंपड़े से निकलता भी क्यों। जब कुछ भी अता-पता न चला, तो अन्त में आचार्य ने तेज आवाज लगायी “बेटे आरुणि! तुम कहाँ हो वत्स हम तुम्हें खोज रहे हैं?”
सन्नाटे को चीरती हुई खेत के दूरस्थ कोने से आवाज उभरी “मैं यहाँ हूँ देव!”
वाणी का अनुसरण करते हुए सभी उस दिशा की ओर चल पड़े, जिधर से स्वर निःसृत हुआ था। वहाँ का दृश्य देखा, तो सभी स्तम्भित रह गये। मुनि धौम्य शिष्य की कर्तव्यपरायणता और स्वयं के प्रति आरुणि की निष्ठा देख भाव-विह्वल हो उठे। उन्होंने शिष्य को उठा कर गले से लगा लिया।
यों तो वर्षा थम चुकी थी, पर अब गुरु की बारी थी, उनकी आंखें लगातार मेघ-वर्षा कर रही थी और शिष्य उस निर्झरणी में सराबोर हुआ चला जा रहा था।
दृश्य अत्यन्त कारुणिक था। दोनों देर तक आलिंगनबद्ध रहे। भाव का अतिरेक कुछ कम हुआ, तो गुरु ने भर्राये गले से कहा-
“वत्स! आज मैं तुम्हारी कर्तव्यनिष्ठ से अत्यन्त प्रसन्न हूँ और वह सब कुछ प्रदान करना चाहता हूं, जिसकी विभूति-अनुभूति लोग वर्षों की कठोर साधना के उपरान्त भी कदाचित ही कर पाते हैं।”
इतना कह ऋषि धौम्य ने प्यार से आरुणि के सिर पर हाथ फिराया, एक बार पुनः अपने बाहुपाश में जकड़ लिया, मानो प्राण-प्रत्यावर्तन की क्रिया चल पड़ी हो। थोड़ी देर पश्चात् जब ऋषि की भाव चेतना लौटी, तो शिष्य को संबोधित कर कहा-”आज से तुम आरुणि से उद्दालक हो गये। इस नाम की सार्थकता बनाये रखना।”
स्वीकृति में शिष्य ने सिर हिला दिया और भूमिलुण्ठित होकर प्रणिपात किया।
अब मुनि एक और खड़े यह सब दृश्य देख रहे उपमन्यु और वेद की ओर मुड़े। भूमि में गड़ी मशाल की लौ में उनके चेहरे चमक उठे। गुरु ने देखा कि उनकी आंखें भी अश्रुपूरित हो चली थीं।
“पुत्रों!” गुरु के अवरुद्ध कण्ठ से निःसृत स्वर था- “तुम अपना दिल छोटा न करना। तुममें अभी कुछ कमियाँ शेष हैं। कर्तव्य कर्म निभाते हुए जब तुम जीवन-साधना का अन्तिम चरण पार कर लोगे, तो तुम भी उसके अधिकारी बन जाओगे, जिसका आरुणि बना, पर शायद तब तक मेरा यह स्थूल शरीर न रहे।” देखो न, कभी की यह सुदृढ़ देहयष्टि अब कैसी जीर्ण-शीर्ण और कमजोर हो चली है, किन्तु तुम लोग अपने सौंपे दायित्व में तनिक भी कोताही नहीं बरतना और सिद्धाँतों के प्रति निष्ठ बनाये रखना। इस पंच भौतिक ढकोसले के न रहने पर भी मैं तुम लोगों की काया के साथ छाया की भाँति मौजूद रहूँगा एवं हर प्रकार की सहायता करने के लिए सदा तत्पर बना रहूँगा। फिर जब तुम्हारी जीवन-साधनापूर्ण हो जाये और खरे सुवर्ण की भाँति चमकने लगो तो ऋद्धियों की यह थाती हमेशा-हमेशा के लिए तुम्हारे सुपुर्द कर दी जायेगी, जिसे मैं वर्षों से तुम लोगों के लिए यत्नपूर्वक सँजोये आ रहा हूँ।
अब वेद से न रहा गया। उनने शंका प्रकट की “तात्! क्या ऐसा भी कभी संभव हो सकता है? सूक्ष्म से स्थूल देह में शक्तियों का हस्तान्तरण!” “अवश्य” संक्षिप्त सा उत्तर मिला “यह सर्वथा असंभव भी नहीं है, पुत्र? तुम सबने हमारे लिए जीवन खपा दिया और हम तुम्हारे लिए इतना भी न करें, यह कैसे हो सकता है। पिता-पुत्र का रिश्ता तब करें, तब भी अक्षुण्ण बना रहेगा वत्स, जब मैं इस स्थूल शरीर में न रहूँ। तुम्हें दिखाई भले ही न पड़ूं, पर हमारी उपस्थिति का आभास सदा तुम्हें मिलता रहेगा।”