Magazine - Year 1991 - Version 2
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Language: HINDI
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व्यक्तित्व की आधार शिला विचार शक्ति
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मन ही मन लम्बी-चौड़ी योजना बना लेना जितना सरल है, उतना सरल उनको मूर्तिमान करना नहीं है। जहाँ कल्पना में नित्य ही बीसियों योजनाएँ बनकर सरलतापूर्वक कार्यांवित हो सकती हैं, वहाँ यथार्थ में किसी योजना का एक अंश भी सफल हो पाना, मुश्किल हो जाता है। उसके लिए वह कार्य क्षमता, वह सहिष्णुता और दक्षता जो किसी कार्य को करने के लिए आवश्यक होती है, काल्पनिक व्यक्ति में नहीं होती। उसकी तो सारी शक्ति यों ही काल्पनिक योजनाओं में विनष्ट होती रहती है।
यह बात गलत नहीं है कि संसार के किसी भी सृजन की योजना पहले विचार क्षेत्र में ही बनती है। उसकी कल्पना मस्तिष्क में ही उठती है। उसके बाद वह वाह्य क्षेत्र में व्यक्त होती है। किन्तु मस्तिष्क के वे विचार यों ही अपने आप अभिव्यक्त अथवा मूर्तिमान नहीं हो जाते। उनके लिए ठोस कार्य करना होता है। पसीना बहाना, संघर्ष करना होता है। अपने में इतनी सहिष्णुता और धैर्य उत्पन्न करना होता है, जिससे कि असफलता के प्रभाव से बचा जा सके।
यद्यपि संसार के सारे महापुरुष जिन्होंने बड़े-बड़े काम कर दिखाए कल्पनाशील रहे हैं। यदि उनके मानस में अपनी योजना न बनती आगामी कार्यक्रम की रूपरेखा न तैयार होती तो वे व्यवस्थित रूप से किस प्रकार काम कर सकते? पहले योजना बनती है, उसकी रूपरेखा तैयार होती है और तब उसके अनुसार कदम कदम चलकर लक्ष्य तक पहुँचना होता है। यदि ऐसा न किया जाए और बिना सोचे-विचारे किसी ओर चल पड़ा, जाय, तो यह गलती ही होगी। जिस गति का कोई लक्ष्य नहीं, कोई उद्देश्य अथवा निश्चित मार्ग नहीं उसकी यात्रा व्यर्थ ही होती है। किन्तु महापुरुषों के साथ ऐसा नहीं देखा जाता। उनकी यह विशेषता है कि वे सिर्फ कल्पनाशील ही नहीं होते। विचार के साथ क्रिया का समुचित समन्वय करना भी जानते हैं। बैठे-बैठे विचार करते रहने अथवा योजनाओं के कल्पनाचित्र गढ़ते रहने की जगह वे ज्यों ही कोई विचार दृढ़ कर लेते हैं, उसको क्रियान्वित करने के लिए जी-जान से जुट पड़ते हैं। एक विचारणा अथवा योजना को पूरी करने के बाद ही दूसरी मन में लाया करते हैं।
निर्माण का आधार विचार और क्रिया का सम्मिश्रण है, सिर्फ विचार नहीं। शिल्पी का विचार उसे किसी मूर्ति का एक काल्पनिक रूप भर देता है। किन्तु उसको साकार उसके हाथ तथा औजार ही करते हैं। यदि वह अपनी मानसिक मूर्ति को ही देख-देख कर सन्तुष्ट होता रहे और अपने को शिल्पी मानता रहे तो इससे संसार का क्या काम चल सकता है। वह अपने लिए शिल्पी, कलाकार हो सकता है, संसार के लिए वह कुछ नहीं होता। संसार तो उसका मूल्याँकन उसकी उस रचना के आधार पर करेगा, जिसका निर्माण वह