Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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अपना व्यक्तित्व प्रभावशाली बनायें
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वाँछनीय सफलता के लिए अपेक्षित गुणों में प्रभावशीलता एक बड़ा ही आवश्यक गुण है। इस गुणों में प्रभावशीलता एक बड़ ही आवश्यक गुण है। इस गुण के अभाव में अनेक साधन, सुविधायें होते हुए और शरीर आदि से पुष्ट होने पर भी मनुष्य, समाज में अपना वाँछित स्थान नहीं बना पाता। बहुत बार देखा जाता है कि कोई व्यक्ति धन के आधार पर किसी काम को बनाना चाहता है लेकिन व्यक्तित्व की प्रभावहीनता के कारण असफल रह जाता है। बहुत से पढ़े-लिखे लोग अप्रभावी व्यक्तित्व के कारण साक्षात्कार आदि परीक्षाओं में असफल हो जाते हैं और यदि किसी प्रकार वे कोई स्थान पा भी लेते हैं तो भी उनकी प्रभावहीनता आए दिन आड़े आती रहती है। संसार में सफलता पाने और सफल जीवन बिताने के लिए प्रभावशीलता की बहुत बड़ी आवश्यकता है। प्रभावहीन जीवन का अर्थ है अरुचिकर-बेमजा जिंदगी काटना।
सार्थक प्रभावशीलता न तो हृष्ट−पुष्ट शरीर से मिलती है न सुन्दर आकृति अथवा रूप-स्वरूप से और न धन-दौलत और साधन सुविधाओं से। इस प्रभावशीलता के आधार कुछ गुण और व्यवहार हुआ करते हैं जो मनुष्य के व्यक्तित्व और आचरण में चमकते रहते हैं। जो जब चाहे उन्हें पाया, सीखा और अपने अन्दर उपजाया भी सकता है। जो जब चाहे उन्हें थोड़ी सी सावधानी रखकर अपने अन्दर उत्पन्न कर सकता है उनमें से कुछ गुण इस प्रकार हैं।
पहला है-दूसरों उचित मूल्याँकन करना और उन्हें मान्यता देना, संसार में प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई अवश्य होती है। किसी का शतप्रतिशत बुरा होना असंभव है। प्रायः लोग करते यह है कि किसी व्यक्ति की बुराई की ओर ही देखना और उसी की ओर संकेत करते रहते हैं उसके प्रकट होने वाले गुण की उपेक्षा करे देते हैं। उसकी बुराइयों की विवेचना और चर्चा करने में तो गाड़ियों उत्साह दिखलाते हैं लेकिन उसके गुण के प्रति मृतक की तरह मौन और कृपण की तरह संकीर्ण रहते हैं। जब इंसाफ और ईमान की बात यह है कि जिस उत्साह से किसी की बुराई देखी और कही जाती है उसकी अच्छाई की अधिक नहीं तो कम से कम उतने ही उत्साह से चर्चा की जाये।
बुद्धिमान व्यक्तियों का सहज स्वभाव होता है कि वे किसी की बुराई की अपेक्षा अच्छाई पर अधिक दृष्टि रखते हैं। यथासंभव बुराई को अदृष्टिगोचर ही कर जाते हैं और यदि उसके प्रकाशन की आवश्यकता भी पड़ती है तो उसकी चर्चा निंदा के रूप में नहीं असावधानी के रूप में करते हैं। वह भी इस ढंग से कि पात्र पर उसका प्रतिक्रियात्मक नहीं सृजनात्मक प्रभाव पड़े। गुणों को आगे रखकर किसी के अवगुणों की की गई चर्चा व्यक्ति को सुधार की ओर प्रेरित करत है। इस प्रकार सुधरा हुआ व्यक्ति सब से पहले उस सज्जन व्यक्ति का ही भक्त बन जाता है। अपनी जीवन नीति में इस नियम का पालन करने वाले अपने व्यक्तित्व में प्रभावशीलता का अर्जन करते हैं दूसरा गुण है सार्वजनिक सद्भावना को अर्जित करना। यह मनुष्य की प्रभावशीलता बढ़ाने में बहुत सहायक होती है। प्रायः लोग सद्भावना का क्षेत्र अपने लोगों तक ही सीमित रखते हैं। ऐसे संकीर्ण सद्भावना वाले लोग परोक्ष रूप से स्वार्थी होते हैं। अपने को दी हुई सद्भावना लौट फिर कर अपने पास ही आ जाती है यह कोई विशेषता नहीं। विशेषता तो तब है अपनों के अतिरिक्त भी सद्भावना का अजनबियों को भी वितरित किया जाए और हो सके तो शत्रुओं और विरोधियों तक में।
सद्भावना का प्रतिपादन सद्भावना के रूप में मिलना स्वाभाविक है जो व्यक्ति इसको जितना व्यापक और विस्तृत बना लेता है वह उतनी ही अधिक सद्भावना पाता है। कोई अपनी सद्भावना देता तो अकेला ही बहुतों को है पर बदले में पाता बहुतों की सद्भावना है। इस प्रकार सद्भावना के इस आदान-प्रदान में सद्भावुक के बहुत लाभ में रहता है वह एक अकेला बहुतों का प्रिय पात्र बन जाता है ऐसे एक अकेले व्यक्ति को सैकड़ों हजारों हाथ उठाने में लग जाते हैं। इस प्रभाव से किसी का ऊँचे से ऊँचा उठ जाना स्वाभाविक ही है। जिसको बहुत से लोग चाहें और प्यार करें उसका प्रभाव एक बड़ी सीमा तक फैल जाता है उसका व्यक्तित्व चुम्बक की तरह आकर्षक और सोने की तरह चमक उठता है।
समाज में उदार व्यवहार मनुष्य की प्रभावशीलता को बड़ी सीमा तक क्या धनी और क्या निर्धन, उदार व्यक्ति की व्यवहार सबके साथ प्रेम, है। वह सब से मीठा बोलता है। सबका यथायोग्य सम्मान करता है किंतु उसका यह व्यवहार अपने स्वार्थ के लिये नहीं होता। वह उदारता सबको सुख पहुँचाने के लिए करता है। स्वार्थ प्रेरित उदार व्यवहार का पता लगते देर नहीं लगती है। उसको एक बच्चा तक पहचान लेता है। मिथ्या उदारता स्वार्थ सिद्ध की आशा न रहने से समाप्त हो जाती है। वह विमुखता, उपेक्षा और निरपेक्षता में बदल जाती हैं। मिथ्या उदारता के प्रकट होते ही उपार्जित प्रभाव तो नष्ट हो ही जाता है साथ ही पिछले और अगले प्रभाव को भी वह नष्ट कर देती है।
वास्तविकता उदारता में सेवा और सहानुभूति का भाव रहना अनिवार्य है। उदार व्यक्ति जहाँ किसी के साथ नम्रता प्रेम और शिष्टता का व्यवहार करता है वहाँ सेवा करने के लिए भी तत्पर रहता है। वह किसी की दुःख सहानुभूति ही नहीं दिखलाता बल्कि यथा संभव सेवा भी करता है। किसी रोगी से उदार व्यवहार करने का यथार्थ रूप है कि उसकी पीड़ा तो पूछी ही जाए साथ ही यदि उसे परिचर्या की आवश्यकता हो तो उसकी भी उपेक्षा न की जाए। हो सके तो उसे डाक्टर को दिखला दे, दवा ला दे, और आर्थिक सहायता भी करे। तात्पर्य यह कि रीती सहानुभूति और संवेदना के साथ जितनी सेवा और सक्रियता जोड़ दी जायेगी उदारता उतनी ही सार्थक और प्रभावशाली बन जाएगी। ऐसे उदार और आत्मीयपन को संसार में सभी लोग प्यार करने लगते हैं। जो अपनी सेवाओं द्वारा दूसरों का स्नेह और प्रेम लेगा उसके प्रभाव की कोई सीमा न रह जायेगी।
तीसरे गुण के रूप में प्रभावशीलता का एक सुन्दर आधार “सत्य” माना गया है। जो सत्यवादी हैं, समाज में सबके साथ सत्यपूर्ण व्यवहार करता है, जैसा वह अपने को प्रकट करता है वैसा ही अन्दर से भी होता है वह समाज का विश्वास और आस्था का पात्र बनता है। जरा-जरासी बात के लिए लोगों उससे अपना दुःख सुख और समस्याओं को कहते संकोच नहीं होता। उसको परामर्श और पथ-प्रदर्शन के लिये बुलाते हैं। अपने विवादों और झगड़ों में पंचायत करते हैं। और आदर पूर्वक उसका दिया हुआ निर्णय शिरोधार्य करते हैं। इतना ही क्यों यदि कभी विश्वास पर संकट आपदा आ जाती है तो बड़ी संख्या में लोग उसकी सहायता के लिये दौड़ पड़ते हैं और हाथों-हाथ उसका संकट दूर करने में अपनी सेवायें समर्पित करते हैं। यह प्रभावशीलता का बड़ा श्लाघ्य स्वरूप है। ऐसी प्रभावशीलता किसी सत्यवादी और सत्याचरण करने वाले विश्वास पात्र को ही प्राप्त होती है।
चौथा गुण हैं -दूसरों के सम्मान की रक्षा। यह भी समाज में प्रभावशीलता बढ़ाने का एक श्रेष्ठतम उपाय है। यह बात कुछ प्रकृति की ओर से ही निश्चित होती है कि संसार के सारे आदमियों में कुछ न कुछ अहंभाव रहता है। वह चाहे स्वाभिमान के रूप में हो या अभिमान के रूप में। लेकिन कुछ न कुछ अहंभाव होता जरूर है। गरीब हो चाहे अमीर निर्बल हो चाहे बलवान सबकी इच्छा रहती है कि उसका अपेक्षित आदर अवश्य किया जाए। यह बात सही है कि धनवानों और बलवानों में सराहना, प्रशंसा और चाटुकारिता पाने की दुर्बलता होती है। लेकिन सामान्य व्यक्ति में यदि यह दुर्बलता नहीं होती तो भी वह यह तो चाहता ही है कि उसके साथ किया जाने वाला व्यवहार किसी प्रकार भी असम्मानपूर्ण न हों।
पाँचवें क्रम में समाज में प्रभाव बढ़ाने के लिए वाचालता के दोष से बचना चाहिए। कितनी ही विद्या, बढ़ाने के लिए वाचालता के दोष से बचना चाहिए। कितनी ही विद्या, बुद्धि और ज्ञान क्यों न हो तथापि बहुत व निरर्थक बोलने का स्वभाव विकसित न करना चाहिए। अल्प और उपयुक्त भाषण वाणी में प्रभावशीलता उत्पन्न कर देता है। अपनी कहने के बजाय दूसरों की सुनने के लिए अधिक तत्पर रहिए। जो लोग दूसरों की सुनते तो कम और अपनी ही कहते रहते हैं उनका प्रभाव नष्ट हो जाता है। लोगों का प्रभाव नष्ट हो जाता है। लोगों का स्वभाव होता है कि वे आप बीती दूसरों को सुनाने के लिए बड़े उत्सुक रहते हैं। समाज में बहुतायत ऐसे लोगों की ही होती है जो यह समझते हैं, उनकी समस्यायें और उलझनें दूसरों की अपेक्षा अधिक हैं और वे उन्हें प्रकट भी करना चाहते हैं। जो व्यक्ति मनुष्यों की इस सहज धारणा की रक्षा करते हुए व्यवहार करते हैं वे अपने मित्रों और सुहृदयों की संख्या में वृद्धि कर लिया करते हैं।
जो अपना दुःख सुनाए उसको सहानुभूतिपूर्वक ध्यान से सुन लेना चाहिए और अपनी संवेदना प्रकट करने में भी कृपणता न करनी चाहिए। किसी की वेदना सुनकर उपहास करना अथवा उसकी उपेक्षा कर देना एक नैतिक दोष है। इस से ग्रस्त लोग समाज में अपने विरोधियों तथा आलोचकों की वृद्धि कर लेते हैं ऐसी दशा में प्रभावशीलता के बढ़ने की आशा नहीं करनी चाहिए।
प्रभावशीलता की वृद्धि धन संपत्ति, विद्या, बुद्धि अथवा शक्ति के आधार पर नहीं होती। उसकी वृद्धि इस प्रकार के नैतिक गुणों के आधार पर ही होते है। इन गुणों को ग्रहण कर लेने पर मनुष्य साधन हीन होने पर भी प्रभाव शील बन जाता है और यदि साथ में विद्या और अन्य संपन्नतायें भी हों तब तो उसका प्रभाव समाज के नेतृत्व तक पहुँच जाता है। समाज में प्रभावशीलता की वृद्धि सद्भावों व्यवहारों और सत्कर्मों द्वारा होती है केवल साधन और संपन्नता के द्वारा नहीं जिसका व्यवहार और आचरण जितना अच्छा होगा वह उतना ही अधिक प्रभावशील बन जायेगा।