Magazine - Year 1994 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
गायत्री की हंस योग साधना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
शरीर निर्वाह में अन्न और जल से भी अधिक महत्व वायु का है । वायु में प्राण-वायु की-ऑक्सीजन की महत्ता सर्वोपरि है । ऑक्सीजन का महत्व विज्ञान के विद्यार्थी भली प्रकार जानते हैं । रक्त में लालिमा उसी की है ।इसी ईंधन के जलने से शरीर का इंजन गर्म रहता है और सब कुछ पुर्जे अपना-अपना काम सही रीति से करते हैं । ऑक्सीजन का एक नाम प्राण वायु भी है । वह समुचित रूप से मिलती रहे तो शरीर बलिष्ठ बना रहेगा ।
प्राण ऑक्सीजन से अधिक सूक्ष्म स्तर का है जिसे जीवनी शक्ति, प्रतिभा और प्रखरता के रूप में माना जाता है। सूक्ष्म प्राण के रूप में जीवट प्राप्त करने के लिए प्राणायाम किये जाते हैं । इसके अनेकों विधिविधान हैं उन्हीं में से एक सूर्य वेधन, अनुलोम विलोम ब्रह्मवर्चस् साधना में प्राण साधना के नाम से सम्मिलित है ।
इस साधना में मनःस्थिति को ब्राह्मी भूत बनाना पड़ता है । अपने को शरीर और मन से ऊपर की स्थिति में अनुभव कराने वाली ब्रह्मचेतना जगानी पड़ती है । इसकी भूमिका बन पड़ने पर श्वास प्रक्रिया में इतना दिव्य आकर्षण उत्पन्न हो जाता है कि उसके सहारे अनन्त अंतरिक्ष से दिव्य प्राण को अपने लिये आकर्षित करना और उपलब्ध अंश को धारण कर सकना संभव होता है । इसी का नाम सोऽहम् साधना है ।
प्राणायाम से साँस खींचने की प्रक्रिया को पूरक कहते हैं । हंसयोग में साँस खींचने के साथ अत्यंत गहरे सूक्ष्म पर्यवेक्षण में उतर कर यह खोजना पड़ता है कि
वायु के प्रवेश करते समय सीटी बजने जैसी ध्वनि भी उसके साथ ही घुली हुई है । यह ध्वनि प्रकृति गति नहीं वरन् ब्राह्मी है और ईश्वरीय संकेतों,संदेशों तथा अनुदानों से भरी हुई है । साँस के साथ भीतर प्रवेश करती है और संपूर्ण जीव सत्ता पर अपना अधिकार जमा लेती है । सोऽहम् के कुँभक में यही भावना रहती है कि जीवन संपदा पर परिपूर्ण अधिकार ‘सो’ हम-परमेश्वर का हो गया । साँस छोड़ते समय साँप की फुफकार जैसी अहम् की ध्वनि का अनुभव अभ्यास में लाना पड़ता है और भावना करनी होती है कि अहंता को विसर्जित निरस्त कर दिया गया है । अहम् के स्थान पर ‘स’ इस परमेश्वर की प्रतिष्ठापन हो गयी है । वेदान्त योग की यही एकत्व अद्वैत स्थिति है । इसी में पहुँचने में अयमात्मा ब्रह्म-प्रज्ञानब्रह्मा-शिवोऽहम् - सच्चिदानंदोऽहम् मुतत्वमसि आदि बोधक शब्दों में व्यक्त की गई भावनाओं की अनुभूति होती है ।
निरंतर आत्मा और परमात्मा के साथ अपने संबंध को स्मरण करने और संपर्क सूत्र बनाये ‘सोऽहम्’ का अर्थ है- मैं वह परमात्मा हूँ । शिवोऽहम् - सच्चिदानंदोऽहम् आदि शब्दों में सोऽहम् का ही स्पष्टीकरण है । इस तथ्य को हर घड़ी स्मरण रहने और स्मृति सूत्र को सुदृढ़ बनाने की सुविधा इसी ‘अजपा’ जाप में मिलती है ।
गायत्री की यह ब्रह्मवर्चस साधना-पंच कोशों के अनावरण की साधना है उससे ब्रह्म सान्निध्य ब्रह्म साक्षात्कार का लाभ मिलता है । उसके कितने ही आध्यात्मिक क्षेत्र के ऐसे प्रतिफल हैं जिनसे क्रमशः आत्मा का परमात्मा के रूप में विकास होते हुए अपूर्णता की पूर्णता में परिणति होती है ।