Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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लालच की हथकड़ी-व्यामोह की बेड़ी
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वन्य पशु झुँड बनाकर साथ-साथ रहते, एक दूसरे का अनुकरण करते हुए जीवन भर भटकते और विचरते रहते हैं । उनका कोई निश्चित लक्ष्य नहीं होता । पक्षियों का भी यही हाल है । जिन साथियों के साथ घुल मिल जाते हैं उनके समीप घोंसला बनाते हैं एक साथ चलते और उड़ाने भरते हैं । उन्हें यह विदित नहीं होता है कि वे कहाँ और क्यों जा रहे हैं । चींटी, दीमक जैसे कीड़े-मकोड़े भी साथियों का अनुकरण करते रहने की आदत में ही मजबूर होते हैं । लक्ष्य सोचने के लिए दूरदर्शिता भी विवेकशीलता और परिष्कृत सूझ-बूझ चाहिए । उनके अभाव में जीवधारी भी किसी उद्देश्य का निर्धारण और उसे प्राप्त करने का नियोजन नहीं कर पाते ।
भेड़े इस आदत के लिए बुरी तरह बदनाम है । आगे चलने वाली भेड़ का मुँह जिस भी ओर उठ जाता है उसी दिशा में उनका पूरा समूह चल पड़ता है । किसी गड्ढे में अगली भेड़ गिरते ही पीछे वाली सब उसी में गिरती चली जाती हैं । किसी को यह नहीं सूझता कि यह अनुकरण उचित है या नहीं । अंधानुकरण में विचारशीलता का प्रयोग करने की आवश्यकता तो नहीं पड़ती, पर उस झंझट से बचने वाले दूसरे अनेक प्रकार के खतरे उठाते और अंततः भारी घटे में रहते हैं । घुमंतू गाड़ी लुहारिया बड़ी संख्या में होते हुए भी अपने समुदाय का परंपरागत कार्य ही अपनाए रहते हैं । यों इस प्रकार जीवनयापन में उन्हें कम कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता और उन सुख-सुविधाओं से वंचित ही बने रहते हैं जो सूझ-बूझ से काम लेने पर नए मार्ग दिखा सकती थी । नए उपाय सुझा सकती थी । प्रगति के पथ पर चल सकने का सहज ही पथ प्रशस्त होकर सकती थी ।
मनुष्य का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही विचित्र है जो अपने से भारी भरकम लगने वाले लोगों की नकल बनाता है और उस मार्ग पर चल पड़ता है जिस पर चलने वाले लोग समझदारी का दावा करते और अपेक्षाकृत अधिक सफलता अर्जित करने की बात कहते हैं । स्वतंत्र चिंतन के नीर-क्षीर विवेक की प्रतिभा किन्हीं विरलों में ही पाई जाती है । अधिकतर लोग उसी दिशा में चल पड़ते हैं जिस पर कि समीपवर्ती लोगों को चलते देखते हैं ।
इन दिनों लोगों पर फयली बुखार की तरह आवेश सवार है कि जितनी जल्दी जितना अधिक वैभव कमाया और मजा उड़ाया जा सके वही कर गुजरना चाहिए । ऐसे ही होता देखा भी जाता है । इसलिए सामान्य मनोबल वाले औसत दर्जे के आदमी उसी मार्ग पर चल पड़ते हैं । बिना इस बात का विचार किये कि यह रास्ता कहाँ पहुँचता है और लाभ की लालसा में कहीं विपत्तियों के दलदल में तो नहीं फँसा देगा । उतावले लोग सुविधा संपन्नता के प्रलोभनों में कुमार्ग अपनाने में भी नहीं चुकते, पर नासमझी इतनी ही रहती है कि क्षणिक लाभ के लोभ में फँसकर कहाँ चिरस्थाई मुसीबत के कटघरे में पैर फँसा देने की भूल तो नहीं हो रही है । उतावली का आवेश ऐसा होता है, कि दूरगामी परिणामों के संबंध में विचार करने की फुरसत ही नहीं मिलती । ऐसी रीति-नीति अपनाली जाती है जिसके कारण कुछ क्षण शौक-मौज के लाभ सफलता के सपने देखते रहने के उपराँत जब आँख खुलती है, तब प्रतीत होता है कि भटकाव के कुचक्र में फँस कर कितना अनर्थ कर लिया गया । समझदार समझे जाने वाले मनुष्य की अदूरदर्शिता ही उसके लिए विपत्ति का सबसे बड़ा कारण बनती है । अधिकाँश इसी प्रकार के दुष्परिणाम भुगतते, रोते-कलपते किसी प्रकार मौत के दिन पूरे करते हैं । अंधानुकरण करने वाले भी इस मुसीबत से बच नहीं पाते
बरगद का बीज समय पर उगता है और विशालकाय वटवृक्ष बनने में लंबा समय लेता है । नारियल के पेड़ भी लंबे समय उपराँत फलते हैं पर जिन्हें इतना ठहरने के लिए धीरज नहीं, वे हथेली पर सरसों जमाकर दिखा देने वाले बाजीगरों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते हैं कुछ हाथ नहीं लगता तो यह नहीं समझ पाते कि इस दुनिया के बाजार में उचित मूल्य देकर ही सब कुछ खरीद सकने की प्रथा है । जो बिना मूल्य या कम मूल्य में बहुत कुछ बटोर ले चलने की मानसिकता बनाए होते हैं , वे चोरों और उठाईगीरों की तरह पकड़े जाते हैं और प्रताड़ना, भर्त्सना सहने के साथ-साथ उस प्रामाणिकता को भी गवाँ बैठते हैं, जिसके सहारे आज नहीं तो कल बहुत कुछ पाये, कमाये जाने की आशा संभावना तो बनी भी रह सकती थी ।
जल्दी धनवान बनने के लिए अनाचार पर उतारू होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग है भी नहीं । उचित श्रम करके उचित पारिश्रमिक उपलब्ध करना और उसमें से मितव्ययितापूर्वक खर्च चलाने के उपराँत जो बचता है उसमें से श्रम, समय और साधना को इस विश्व उद्यान को सुरम्य बनाने वाले परमार्थ में ही खपाना पड़ता है । ऐसे लोग औसत नागरिक स्तर के निर्वाह में संतुष्ट रहने और धनाध्यक्ष बनने के सपने नहीं देखते । ऐसे लोगों को आत्म संतोष, लोक सम्मान का लाभ तो प्रचुर मात्रा में मिलता है, पर उस स्तर की संपदा संग्रह करना बन नहीं पड़ता जिसके सहारे मनमर्जी गुलछर्रे उड़ाए जा सकें और उत्तराधिकारियों के लिए सात पीढ़ी तक बैठ कर खाते रहने के लिए दौलत के भरे हुए भंडार छोड़कर विदा हुआ जाय ।
नासमझी की लंबी शृंखला की प्रथम कड़ी है-लोभ लिप्सा । गुजारा तो थोड़े से साधनों में भी हो सकता है । उतना कमाने के लिए थोड़े समय का श्रम पर्याप्त होना चाहिए । पशु पक्षियों को पेट भरने के लिए दिन भर खोज तलाश में भागना-दौड़ना पड़ता है । पर मनुष्य के कई फुट लंबे दो हाथ और जादुई कुशलता से भरा-पूरा मस्तिष्क मिल जुलकर एक फुट आकार के पेट को भरने के लिए आधा किलो खाद्य सामग्री थोड़े ही समय में सहज कमा सकता है । फिर उसके पास समय श्रम, कौशल और साधन इतनी मात्रा में बनते रहने चाहिए जिसका उपयोग मानवी गरिमा के उपयुक्त पुण्य-परमार्थ में कर सकने के लिए पर्याप्त फुरसत और सुविधा रहनी चाहिए । पर देखा गया है कि बहुसंख्यक लोग निर्वाह मात्र में संतुष्ट न होकर संपदा संचय के सपने ही देखते रहते हैं । इसी उधेड़बुन में सारा समय खपाते रहते हैं । इन दिनों कुछ अपवाद जैसे क्षेत्रों को छोड़कर शेष संसार में ऐसी सुविधा है नहीं कि ईमानदारी और परिश्रम की कमाई स्वीकार करने वाला व्यक्ति धनाढ्य बन सके । जो इस मर्यादा पालन से संतुष्ट नहीं रह सकते उन्हें कुछ न कुछ ऐसे तरीके अपनाने पड़ते हैं जिन्हें अनाचार की श्रेणी में गिना जा सके । ॐ ची दीवार उठाने के लिए कहीं दूसरी जगह से मिट्टी उठाने के लिए खाई खोदनी पड़ती है । एक की अमीरी भोगने के लिए असंख्य को गरीब रहने के लिए विवश होना पड़ता है । स्रष्टा के इस संसार में इतने ही साधन पैदा किये हैं कि सब लोग मिल बाँटकर खाते हुए प्रसन्नता और सहकार का जीवन जी सकें । इस व्यवस्था का व्यतिरेक करने पर मनुष्य स्वयं कष्ट उठाता और दूसरों को भी ऐसी कठिनाइयों में रहने के लिए विवश करता है । इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए धर्म अनुबंधों में ‘अपरिग्रह’ को प्रमुख माना गया है । नीति पूर्वक कमाया तो अधिक भी जा सकता है, पर उसमें से उतना ही खर्च निजी प्रयोजनों में करने की छूट है जितने में औसत नागरिक को संतोष करना पड़ता है । बचत को तो विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य बनाने के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन में ही लगाते रहा जा सकता है ।
मनुष्य को अन्य प्राणियों की तुलना में जो अधिक सुविधा-साधन अर्जित करने का मौका मिलता है, वह सब उसका निजी पुरुषार्थ ही निमित्त कारण नहीं, वरन् असंख्यों का उदार सहयोग उसमें जुड़ा होता है । भोजन, वस्त्र तथा दैनिक उपयोग में काम आने वाले उपकरण मनुष्य के अपने बनाये कहाँ होते हैं ? इन हर उपयोगी पदार्थों के पीछे असंख्यों का श्रम कौशल जुड़ा होता है । भाषा-लिपि पर आधारित शिक्षण का ढांचा भी पीढ़ी दर पीढ़ी अनेक विचारशीलों के सहयोग से ही खड़ा हो पाया । गृहस्थ बनाने वाली जीवन संगिनी पत्नी भी तो किसी दूसरे परिवार से ही आई होती है । इस प्रकार सम्पदा संचय तो दूर दैनिक निर्वाह के लिए भी मनुष्य असंख्यों के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष सहयोग पर पूरी तरह निर्भर है । जबकि पशु-पक्षी अपने ही बलबूते अपनी जिंदगी पार कर लेते हैं । वस्तुस्थिति को समझने वाले जानते हैं कि मनुष्य मात्र सामाजिक प्राणी ही नहीं है, वह समाजगत ऋणों से भी लदा है और उससे उऋण होने का एक ही तरीका है कि उसकी उपलब्धियों का एक बड़ा भाग लोककल्याण के लिए नियमित रूप से नियोजित रहे । किंतु यह ऋण मुक्ति का कर्तव्य पालन उनसे बन ही नहीं पड़ता । जो लोभ लिप्सा के निविड़ बंधनों में सिर से पैर तक जकड़े पड़े है, उनको इन बंधनों को ढीला करने की इच्छा नहीं होती । ऐसी दशा में लालची के लिए यह असंभव ही बना रहता है कि सामाजिक ऋण मुक्ति की दृष्टि से जीवन संपदा को सार्थक बनाने की दृष्टि से अपने को लोक मंगल के निमित्त किये जाने वाले परमार्थ प्रयोजनों में कुछ भूमिका निभा सके । कदाचित कुछ इच्छा उठे भी तो यह सदा अतृप्त रहने वाली तृष्णा ही ऐसी रोक लगा देती है जिसे व्यस्तता और अभावग्रस्तता का नाम देकर आत्म प्रवंचना करने और लोगों को बहकाने वाले बहाने बनाने के कितने ही तर्क सूझ पड़ते हैं ।
धन का संचय तो कितनी ही बड़ी मात्रा में बिना उचित-अनुचित का विचार करते हुए किया जा सकता है, पर उसके उपयोग के लिए एक छोटी सीमा मर्यादा निर्धारित है । कोई अमीर भी एक मन भोजन नहीं कर सकता । सौ फुट लंबे पलंग पर सोने और उतना ही बड़ा बिस्तर बिछाते किन्हीं धनिकों भी नहीं देखा जा सकता । अधिक उपार्जन और अधिक संग्रह मन बहलाने भर का है अंततः वह इसी धरती पर पड़ा रह जाता है जिस पर कि वह अनादि काल से पड़ा हुआ है । और अनंत काल तक पड़ा रहेगा । संपदा का इस हाथ से उस हाथ तक हस्तान्तरण तो हो सकता है, पर इसमें शरीर निर्वाह में काम आने वाले साधनों को छोड़कर शेष को इसी दुनिया की सुरक्षित पूँजी के रूप में जहाँ का तहाँ छोड़ना पड़ता है । यह तथ्य सामान्य समय में समझ में नहीं आता पर जब हिसाब बन्द कराने का समय आता है कि कमाने के नाम पर आत्म प्रवंचना और पापों का पिटारा सिर पर लादे जाने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं लगता । बादशाह सिकन्दर ने मरते समय अपने दोनों हाथ ताबूत से बाहर निकाल दिये थे कि अपार धन संपदा का स्वामी होते हुए भी बिना एक पाई साथ लिये खाली हाथ चला गया ।
भोजन के रस को आंतें निचोड़ लेती है । जो कचरा बनता है उसे मल रूप से बाहर निकालना पड़ता है यदि कोई खाता तो रहे पर मल विसर्जन से इनकार कर दे, तो उसे पेट फूलने, शूल उठने, उल्टी, दस्त चल पड़ने जैसी मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा । धन संचय के संबंध में ठीक यही बात लागू होती है । वह अनावश्यक रूप से जहाँ भी जाना होता है वहाँ किसी न किसी प्रकार की विकृति खड़ी करता है । इनमें से अपव्यय और दुर्व्यसन मुख्य है । रोका हुआ पानी कहीं न कहीं से बाहर निकलने के लिए रास्ता बनाता है । यदि उसके लिए उचित मार्ग उपलब्ध न हो तो फिर अनुचित मार्ग अपनाने की एक मात्र मजबूरी ही सामने रहती है । बाद में होने वाली हानियाँ जिसने देखी हैं वे जानते हैं कि रुकावटों से बाधित होकर जल संपदा जैसी विभूति कितने अनर्थ करने पर उतारू हो जाती है । अनावश्यक मात्रा में जमा हुए धन के संबंध में भी यही बात शतप्रतिशत लागू होती है ।
पेट में जमा अनावश्यक कचरा यदि सही रीति से बाहर न निकले तो उल्टी दस्त चल पड़ने पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए । दुर्व्यसन ही वे कृमि कीटक हैं जो गंदगी को चाटकर सफाई का रास्ता बनाते हैं । शेखी खोरी के उन्माद में व्यक्ति कितने प्रकार के अपव्यय करता है । पैसे की जगह दस पैसे खर्च होते देख कर किसी प्रकार उसे राहत मिलती है । इस लिए जहाँ धन जमा होता है वहाँ नोटों से बनी फुलझड़ियाँ जलाकर चित्र-विचित्र प्रकार के कुतूहल दर्शाते दीखते हैं । नाली में से जब तक गंदगी साफ नहीं कर दी जाती तब तक उसके प्रवाह में अवरोध बने रहने से दुर्गंध भरी कीचड़ की कुरूपता ही बिखरती रहती है ।
विपुल मात्रा में धन कमाने की परिस्थितियाँ सर्वसाधारण के सामने इस व्यवस्थित संसार में हैं ही नहीं । ललचाते रहने वालों में से अनुकूलता न मिलने पर निराश ही रहना पड़ता है । इस दैनिय स्थिति में फँसे हुए लोगों की मुसीबतें और भी अधिक है जो कमा तो लेते हैं पर उसकी सुरक्षा रखने और सदुपयोग करने में समर्थ नहीं है ।
धनाढ्य बनते ही पड़ोसी, संबंधी तक ईर्ष्या से जलने लगते हैं और अपहरण करने से लेकर बरबादी करने तक षड्यंत्र रचते हैं । वफादार समझे जाने तक जान के ग्राहक होते हैं । ऐसों के मित्रों को दगाबाजी करते देर नहीं लगती । संबंधित लोगों में से हर कोई चाहता है कि छत्ते में जमा शहद लूट लेने में किसी प्रकार उसकी घात लग सके । किसी की बढ़ोत्तरी को देखकर प्रसन्न होने वाले संसार में हैं कहाँ ? जमा पूँजी पर घात लगाने के लिए चोर-डाकुओं से लेकर चापलूसों और दबोचने वाले मित्र वर्ग, मरी लाश पर मँडराने वाले गिद्ध कौओं की तरह मँडराते और कुत्ते, सियारों की तरह चट करने की तरह झपट ही पड़ते हैं । चंदे के नाम पर आग्रह करने वाले, रिश्वत के नाम पर खून निचोड़ने वालों की कमी नहीं रहती । इसके अतिरिक्त बीमारी, मुकदमेबाजी, ऐयाशी, नशेबाजी जैसे दुष्प्रवृत्तियाँ भी अपने ढंग से गन्ने का रस पाने के लिए कुछ न कुछ दाँव घात लगाते ही रहते हैं ।
कहते हैं अमीरों को नीति-अनीति का भेद छोड़कर अधिकाधिक कमाई के लिए बुरी तरह पिसते-खटते हुए जिंदगी बितानी पड़ती है । उत्तराधिकार जमाने वाली पीढ़ी उस मुफ्त के माल को बेदर्दी से खर्च करती और दुर्व्यसनों में उसे जल्दी से खर्च डालने के लिए आकुल रहती है और थोड़े ही समय में बिना मेहनत की कमाई कपूर की डली की तरह हवा में गायब हो जाती है । तीसरी पीढ़ी के समर्थ होते-होते माल-असबाब खतम हो चुका होता है, जैसे आलस्य, प्रमाद, अपव्यय, दुर्व्यसन जैसे दुर्गुणों पूर्वजों की विरासत रूप में यथावत् बने रहते हैं । ऐसी दशा में गाड़ी धकेलने के लिए उन्हें दादागीरी करने के लिए चोरी, उठाईगीरी जैसे छल-प्रपंचों का आश्रय लेना पड़ता है । जेल जाने से बच भी जाये तो उन्हें इतना जलील होना पड़ता है कि कोई भला आदमी उन्हें पास बैठने देने तक में कतराता है । धन संचय की ललक अक्सर उत्तराधिकारियों के प्रति अपनी मोह-ममता जताते हुए , अपनी कर्म पद्धति की आवश्यकता जताते हुए देखे जाते हैं । पर होता ठीक उलटा है । गरीबी और कठिनाइयों से जूझने वाली पीढ़ी प्रतिभावान बनती और कई प्रकार की परिश्रम जन्य सफलताएँ प्राप्त करती देखी जाती है जबकि अमीरों की पीढ़ियां अपने दुर्भाग्य को कोसते हुए आम तौर से देखी जाती हैं । उपकार समझकर बढ़ाये हुए हाथ वस्तुतः परिणाम अपकार जैसे ही होते हैं ।
बाहर से चमकने वाली हर वस्तु भीतर से वैसी ही हो, यह आवश्यक नहीं । साँप, बिच्छू, काँतर, गोह जैसे रेंगने वाले जंतुओं की संरचना देखने में कैसी सुहावनी लगती है, पर उनके भीतर जो विष भरा रहता है वह समीप आने वाले को बेहतर सताता है । धन की अपनी उपयोगिता हो सकती है, पर उसे अनावश्यक मात्रा में जमा करते रहना या बढ़ाते रहना ऐसा बुद्धि विपर्यय है जिसमें बाहरी आकर्षण कितना ही क्यों न हो, पर अन्ततः उस कुचक्र में बेतरह उलझने की परिणति ऐसी है जिसके लिए खेद और पश्चाताप ही सहना पड़ता है।
कहा जा चुका है कि यदि औसत नागरिक निर्वाह स्तर से अधिक जमा भी है, तो उसका एक ही उपयोग है कि उसे परमार्थ प्रयोजनों में हाथों हाथ लगाते रहा जाय । पिछड़ों के बढ़ाने-बिगड़ों को बनाने, गिरों को उठाने और उठों को अच्छाई के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन के पक्षधर ऐसे अनेकों काम करने के लिए पड़े हैं जिसमें भामाशाह, कर्ण, अशोक जितना वैभव भी कम पड़ता है । उनके लिए उदारता अपनाई जा सके तो ही समझना चाहिए कि धन, उपार्जन में लगा श्रम, सार्थक हुआ । अन्यथा उसे अनावश्यक संचय निष्ठुरता का प्रतीक ही समझा जाएगा । जिसमें सद्भावना का तिरस्कार और अपने लिए तृष्णा का जलन उत्पन्न करने वाले अनर्थ का आह्वान ही कहा जा सकता है ।
जीवन-संपदा महत्वपूर्ण कार्यों के लिए धरोहर रूप में मिली है, उसे उन्हीं प्रयोजनों में खर्च किया जाना चाहिए जिसके निमित्त विश्वस्त अधिकारी समझकर नियंता ने सौंपी है । विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य और अधिक सुविकसित करने के लिए ही वे विभूतियाँ मनुष्य को सौंपी गई हैं जिससे स्रष्टा के अन्य सभी प्राणी वंचित हैं । इसमें न तो न्याय की सर्वव्यापी, व्यवस्था समझे जाने वाले स्रष्टा एक जीव विशेष के साथ बरता गया पक्षपात है और न मनमर्जी बरतने के लिए अनायास ही हाथ लगा अनियंत्रित अधिकार । जो जीवन का उसके वास्तविक स्वरूप एवं उद्देश्य को न समझकर लोभ-लालच जैसी विडंबना में उसे गवाँ देते हैं उनके लिए यही कहा जा सकता है कि असीम अनुग्रह के रूप में मिला दैवी अनुदान का मूल्य महत्व न समझा जा सका और हीरक हार को टूटे काँच के अकड़ों की तरह कौड़ी मोल बेच दिया गया ।
वासनाएँ इतनी और ऐसी हैं जिन्हें एक जन्म में पूरी कर सकना किसी भी तरह संभव नहीं । तृष्णा की खाई इतनी गहरी है कि उसमें कुबेर के खजाने उड़ेल देने पर भी भरा जा सकना संभव नहीं । अहंकार किस बात का किया जाय ? जब सृष्टि में एक से एक बढ़कर संपन्न-समर्थ और विशिष्ट भरे पड़े है, तब राई जैसी उपलब्धियों को पाकर इतराने-इठलाने का क्या तुक ? अहंकार रावण तक का टिक न सका, तब सामान्य जन यदि यह सोचने लगे कि उनका बड़प्पन जन मान्यता पर छाया रहेगा तो उस चिंतन को उपहासास्पद होने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है ?
मानव जीवन को सुन दुर्लभ अलभ्य अवसर माना गया है । इसका श्रेष्ठतम सदुपयोग बन पड़ना ही दाता और ग्रहीता के लिए गर्व-गौरव की बात हो सकती है । स्रष्टा का युवराज कहाने वाला मनुष्य यदि उसके विराट वैभव विशाल विश्व की सर्वतोमुखी प्रगति में सहयोगी बने तभी उसके पद एवं गौरव की सार्थकता है अन्यथा पेट और प्रजनन की आपूर्ति तो कृमि-कीटक भी करते रहते हैं । यदि उतने भर के लिए इस अलभ्य अवसर को कोल्हू के बैल की तरह पिसते और पीसते गवाँ दिया गया तो समझना चाहिए कि समझदार कहलाने और समझे जाने वाले मनुष्य ने परले सिरे की नासमझी का परिचय दिया ।
जीवन संपदा पाने पर गर्व गौरव अनुभव करने का अधिकार मात्र उन्हीं को है जो उपलब्ध क्षमता साधन, संपदा और लंबी अवधि का उपयोग मानवीय गरिमा को अक्षुण्ण रखने में ही नियोजित करते रह सकें अन्यथा दुरुपयोग की नीति अपनाने पर तो अमृत भी विष बन जाता है । लालच की हथकड़ी, व्यामोह की बेड़ी, और अहंकार की तौक से अपने आपको अपने हाथों कस कर बाँध लेने और दुर्व्यसनों की विषम परिस्थितियों में सांसें पूरी कर जाना दुःखदायी दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है ।