Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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सच्चा सुख अंततः है कहाँ ?
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स्त्री-पुरुष, राजा-रंक, धनी-निर्धन, अशक्त-सशक्त सभी की यह कामना होती है कि उन्हें सुख मिले । सुख का सच्चा स्वरूप और उसकी वैज्ञानिक आवश्यकता पर बहुत थोड़े से व्यक्तियों ने विचार किया होता है । अधिकाँश तो शरीर की स्थूल उपयोग सामग्रियों को ही सुख का साधन मानते हैं और इन्हीं के पीछे अंधी दौड़ लगाते रहते हैं । यह साधना और ये सुख इतने निर्बल होते हैं कि उनसे व्यक्ति की आँतरिक पिपासा शाँत नहीं होती । क्षणिक सुख का-सा जो आभास होता है वह भी अंततः अग्नि में घी डालने का ही काम करता है । इससे सुख प्राप्ति की कामना प्रबल होती है और उनके प्रति राग या आसक्ति बन जाती है ।
यह भाव सुख न रहकर दुःख बन जाता है क्योंकि शारीरिक सुख अधोगामी होते हैं उनसे शक्तियों का पतन होता है- और यह अशक्तता ही दुःख का कारण होती है । इसलिए इन्द्रियों की वाह्य लिप्सा को सुख नहीं मानते ।
धन-दौलत जिसे सुख का साधन मानते हैं वह भी सुख कहाँ दे पाता है । ऐसा रहा होता तो हेनरी फोर्ड, राकफेलर आदि प्रमुख धनपति महासुखी रहते । धन के कारण उत्पन्न होने वाला भय, आलस्य भोग आदि से मनुष्य का हृदय हर घड़ी काँपता रहता है । धनिकों को थोड़ा घाटा लगा कि हार्टफेल हुआ । यह बात बताती है कि धन का साहसी भावनाओं से पूर्णतया संबंध- विच्छेद है अतः भयदायक परिस्थितियों में रहकर विपुल धन संपत्ति का स्वामी होकर भी मनुष्य सुखी रह सकेगा इसमें संदेह ही है ।
शारीरिक दृष्टि से बहुत मोटा या बलवान होने में भी स्थिरता नहीं है । संसार की अन्य वस्तुओं की तरह शरीर में भी परिवर्तन होता रहता है आज की स्वस्थ अवस्था सदैव इसी तरह बनी रहेगी इसकी कहीं निश्चितता नहीं है ।
एक बात यह भी है कि शरीर की दृष्टि से संपन्न व्यक्ति भी कई बार अहंकार, प्रदर्शन और दूसरों पर अपनी धाक जमाने की भावना से कुत्सित और नृशंस कर्म करने लगते हैं । अपराधों के वैधानिक दंड से मनुष्य बचाव कर सकता है किंतु पाप की प्रक्रिया जब मस्तिष्क में विद्रूप उत्पन्न करती है तो मनुष्य के वाह्य और आँतरिक जीवन में अशाँति की आँधी छा जाती है । ऐसे व्यक्तियों का अंत सदैव ही बड़ा निर्मम, निर्दय और भयानक हुआ है ।
तब फिर क्या सौंदर्य को सुख मान लें ? अपने पास भरा-पूरा परिवार है उससे क्या सुख मिलता है । बहुत पढ़ लिख लिया है इससे क्या सुखी हैँ ? सोचते चले जाइये । एक-एक परिस्थिति पर पूर्णतया विचार कर लीजिये । वाह्य साधन सुख नहीं दे सकते । सौंदर्य का आकर्षण मनुष्य को पतित बना देता है, फिर वह सदैव साथ रहने वाला भी तो नहीं है । परिवार में संख्या तो अधिक है किंतु बेटे-बाप में नहीं बनती । बच्चियों की शादी की समस्या सताती है । बेटे दुष्ट और दुर्गुणी हों, स्त्रियाँ फूहड़ हों तो नारकीय यंत्रणायें देखने के लिए दूर जाने की आवश्यकता न होगी ।
तथाकथित अर्थकरी विद्या भी मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सकी । आज शिक्षा का प्रसार हुआ है पर उसी अनुपात में बेकारी भी बढ़ी है । दिखावट, बनावट, फैशन-परस्ती, फिजूलखर्ची आदि बुराइयाँ आज अधिकाँश पढ़े लिखे लोगों में ही दिखाई देती हैं । फलस्वरूप अशिक्षितों से भी अधिक दुखी रहते देखे जाते हैं । ऐसी दशा में शिक्षा को भी सुख का मूल कैसे मानलें।
मनुष्य के दुःख का प्रमुख कारण उसके निजत्व की अज्ञानता है । इस कारण मनुष्य का दृष्टिकोण ही भिन्न हो जाता है । जिस स्थिति में हैं उसी का मानकर जीवन का सारा क्रिया व्यापार चलता है । इन व्यवसायों में जब विघ्न उत्पन्न होते हैं तो भाग्य को दोष देते हैं । भगवान को कोसते, रोते बिलखते रहते हैं ।
हमारी स्थिति ठीक उस नाटक के राजा की सी है जो नाटक समाप्त होने पर भी इस बात पर अड़ जाता है कि मेरा वह खजाना, रानी, सेना, सिपाही लाओ नहीं तो घर नहीं जाऊँ गा । तब नाटक कंपनी का मालिक उसे समझाता है कि भाई तुम्हें राजा तो इस नाटक की सफलता के लिए बनाया था । तुम सचमुच राजा तो नहीं हो। एक निर्धन व्यक्ति हो जिसे पारिश्रमिक देकर इस कंपनी में भरती किया था ।
ऐसे बावले राजा पर लोग हँसते हैं, कहते हैं वह बिलकुल बुद्धिहीन है । पर हम सब ठीक उस राजा जैसे ही हैं जो अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर हाड़-माँस की इस दानव देह पर अभिमान कर बैठे हैं । प्रत्येक बात, सुख और सुविधाओं का चिंतन इस पंचभौतिक शरीर की दृष्टि से ही करते हैं । पर जब इस जीवन का नाटक खतम होता है और हम शरीर के स्टेज से उतार दिये जाते हैं तो कितने दुःखी हो सकते हैं इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
इस संसार में वही परमात्मा विभिन्न रूपों में रूपाँतरित होकर अपना प्रकाश फैला रहा है । वह कण-कण में समाया है । वह साक्षी है, वह नित्य, अविनाशी, परमात्मा ही सच्चे आनंद का स्रोत है, उसी को जानने की प्रेरणा देते हुए उपनिषद्कार ने लिखा है - - -
भूर्भुवः स्वस्त्रयो लोका व्याप्त भोम्ब्रह्मतेषुहि ।
स एव तथ्यतो ज्ञानी यस्तव्देति विचक्षणा ॥
“अर्थात् इस पृथ्वी, आकाश और पाताल में जो सर्वत्र विद्यमान परमात्मा है वही जानने योग्य है । उसे जाने बिना मनुष्य दुःख क्लेश और संताप से विमुक्त नहीं हो सकता ।”
मनुष्य जीवन में सात्विकता की ॐ ची प्राप्त कर लेना ही सर्व सुलभ और सहज उपाय है इसके लिए कहीं जटिल ऊहापोह की आवश्यकता नहीं । निष्काम भावना से संसार के संपूर्ण कर्मों का पालन करते हुए मनुष्य अपनी भौतिक सात्विकता प्राप्त कर सकता है ।मनुष्य सत्याचरण करे इसमें कौन सी कठिनाई है । परमात्मा की उपासना, सद्व्यवहार, सहृदयता, उदारता, निष्कपटता, ये कौन-से वजनदार पत्थर हैं जो उठाये नहीं उठते । मनुष्य इन सद्गुणों को अपने जीवन में विकसित करने का साहस करे तो ऐसी कोई भी बाधा नहीं जो उसे सुख प्राप्ति से रोक सके । मनुष्य जीवन की सरल समुचित और सात्विकता की त्रिशक्ति के आधार पर ही उसके भौतिक भावनात्मक और पारलौकिक सुख विकसित होते हैं ।
हमारे श्रेष्ठ अंतःकरण का जो दिव्य पुरुष इस शरीर में विद्यमान है अपना धन, शक्ति, विद्या तथा सौंदर्य सब कुछ वही है । वाह्य साधनों में जो सुख दिखाई देते हैं वे रेगिस्तान की मरीचिका के समान ही हैं । उनमें भटकता हुआ इंसान मृग की भाँति धोखा ही खाता है ।
इस तथ्य को जितना ही विचार सकें उतना ही अच्छा है, जितना अपने जीवन में समावेश कर सकें उतना ही श्रेयस्कर है । सत्य और न्याय के साँचे में विनिर्मित मनुष्य जीवन को इन्हीं की प्राप्ति में ही संतोष मिल सकता है ।