Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात - श्रद्धाँजलि पर्व चित्रकूट अश्वमेध तक
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परमपूज्य गुरुदेव के समान विराट् बहुमुखी व्यक्तित्व वाले युग पुरुष जिनने आत्मीयता विस्तार के आधार पर इतना बड़ा संगठन विनिर्मित किया था, ने स्थूल काया के बंधनों से मुक्ति लेकर 1990 की गायत्री जयंती के पावन दिवस पर सूक्ष्मशरीर में प्रवेश किया था। यह सूक्ष्म में प्रवेश ऐसा था जिसमें हम उनके सुत-प्रियजनों को उनके स्थूल शरीर के दर्शन पुनः नहीं होने थे। यह एक विराट् पुरुष का लौकिक दृष्टि से महाप्रयाण था-एक अनंत यात्रा पर किंतु उनकी शक्ति अतीव बलशाली सामर्थ्य के दिग्दर्शन परम वंदनीय माताजी के माध्यम से आँशिक रूपों में तथा रामनवमी 1948 से आरंभ किये गये सूक्ष्मीकरण प्रयोगों के रूप में किये जा सकते थे। प्रत्यक्षतः पूज्यवर ने 1971 के हिमालय प्रवास पर जाते समय सारी व्यवस्था का दायित्व वंदनीया माता जी को सँभलवा दिया था। एक वर्ष पश्चात् लौटने पर उनने पृष्ठभूमि से देव परिवार विनिर्मित करने की प्रक्रिया ही चलायी। इसी निमित्त प्राण प्रत्यावर्तन-कल्प साधना संजीवनी साधना के सत्र चले। प्रायः दस लाख से बढ़कर ऋषि युग्म की गोदी में पला यह परिवार अब प्रायः साढ़े पाँच करोड़ की संख्या पार कर चुका है।
सूक्ष्मीकरण जो परमपूज्य गुरुदेव द्वारा 1984 की रामनवमी से आरंभ हुआ अप्रत्याशित दैवी प्रकोपों, दुष्चक्रों, घटनाक्रमों से जन-जन की सुरक्षा के निमित्त था। युग संधि काल में चले बीस वर्षीय महापुरश्चरण ने, जो सारे गायत्री परिजन संपन्न कर रहे थे, के साथ मिलकर उसने वह भूमिका निभाई जो आज देव संसकृति के, विश्व संस्कृति के रूप में विस्तार के दिग्-दिगंत तक विजय दुँदुभि के बज उठने के रूप में दिखाई देती हैं। 1986 की वसंत पंचमी पर वह क्रम जो एकाँत साधना का था, पंचवीर भद्रों के शक्ति जागरण का था, विश्व मात्र की देवात्म शक्ति कुँडलिनी के जागरण का था, एक नया रूप लेकर आया व पूज्यवर ने पंचवर्षीय ‘एक्सटेंशन’ के साथ नई-नई योजनाओं के साथ सार्वजनिक रूप से सबसे मिलने का क्रम आरंभ किया एवं 2 जून 1990 को गायत्री जयंती के दिन अपनी सभी शक्ति परम वंदनीय माताजी को देकर वे महाप्रयाण कर गये।
अंतिम संदेश में पूज्यवर ने कहा- यह स्थूल शरीर के क्रियाकलापों मात्र की इस काया के समापन की प्रक्रिया है। असली कार्य तो सूक्ष्म व कारण सत्ता के रूप में उनके बाद होना है। विराट् श्रद्धाँजलि पर्व जिसमें प्रायः पन्द्रह से बीस लाख परिजन 1 से 4 अक्टूबर 1990 की तारीखों में अपने इष्ट आराध्य को श्रद्धा सुमन अर्पित करने हरिद्वार पहुँचे, स्वयं में इस विशाल गायत्री परिवार की श्रद्धा पर आधारित सामर्थ्य का परिचायक था। तुरंत बाद शक्ति साधना की प्रक्रिया भारत भू के चप्पे-चप्पे में सोये संस्कारों को जगाने की निमित्त संपन्न होना आरंभ हुई तथा विराट् संस्कार महोत्सवों के माध्यम से पूरे उत्तरी मध्य, पूर्वी, पश्चिमी भारत के साथ विश्वभर के सत्ताईस देशों में ये आयोजन सफलता पूर्वक हुए। पंजाब व आसाम समस्या का समाधान प्रत्यक्षतः तो किन्हीं औरों से बन पड़ा होगा, किंतु परोक्ष स्तर पर साधना से शक्ति के उपार्जन की दैवी अनुकूलताओं को आमंत्रित कर अप्रत्याशित विपत्तियों से जूझने व इन्हें निरस्त करने की प्रमुख भूमिका इसी माध्यम से सम्पन्न हुई।
शपथ समारोह (1992 गायत्री जयंती) जो शाँतिकुँज व आस पास के परिसर में सम्पन्न हुआ, में तुमुलनाद हुआ-देव संस्कृति की दिग्विजय का, इसके निमित्त अश्वमेधी पराक्रम का पूज्यवर की “ अश्वमेधादि रचाएँ यज्ञ पर उपकार को” जिसे गायत्री यज्ञायोजन प्रक्रिया की एक अनिवार्य स्तुति घोषित किया गया था, साकार रूप लेने लगी। असुरत्व के निवारण, उत्पीड़कों-शोषकों के दमन तथा सज्जनता देवत्व के जागरण व संगठन, उत्पीड़ितों के संरक्षण व शोषण के प्रति मन्यु जगाकर उससे जूझने का संकल्प अश्वमेधों द्वारा हो एवं इसके लिए परिजन अधिकाधिक समय में अंशदान व समयदान निकालें-यह मार्मिक अपील परम वंदनीया माताजी द्वारा शपथ समारोह के समय परिजनों से की गई। डेढ़ लाख परिजनों का तीन माह का समय दान इस परिमाण में हो गया कि यदि सभी व्यक्ति आगामी 10 वर्षों में मात्र एक बार ही तीन माह का समय समान निमार्ण के निमित्त दे दें तो शाँतिकुँज आने वाले इस समय में वह काम कर सकने की स्थिति में आ गया जो सामान्यतः चार हजार वर्षों में संभव होता।
शेर का बेटा शेर ही होता है परम पूज्य गुरुदेव न अस्सी वर्ष का जीवन एवं उसका एक-एक पल समिधा की तरह विराट् समाज रूपी हवनकुँड में होम कर दिया तो उनके बेटे-अटियाँ प्राणप्रिय शिष्य क्यों पीछे रहते। उनके समयदान, साधन दान, प्रतिभा दान, भावनाओं के विस्तृतीकरण की प्रक्रिया से 108 अश्वमेध यज्ञों की शृंखला आरंभ करने का संकल्प महाकाल की प्रेरणा से उभरा व देखते-देखते इसने भारतीय संस्कृति के विस्तार की प्रक्रिया को अग्रगामी बना दिया। प्रत्येक अश्वमेध जो कलश यात्रा प्रयाज क्रम में ग्राम-प्रदीक्षण, ग्राम तीर्थ स्थापना, रजवंदन से आरंभ हुआ व संस्कार महोत्सव के बाद अश्वमेधी आयोजन के रूप में एक बड़े स्तर के सूर्योपासना क्रमानुसार सूक्ष्म के परिशोधन के निमित्त संपन्न हुआ, ऐ ऐतिहासिक मील का पत्थर बन गया। जब तक युग परिवर्तन न हो, यह सिलसिला चलता ही रहेगा तथा कुल 108 अश्वमेधी आयोजनों-छोटे बड़े स्तर के संस्कार महोत्सवों के माध्यम से देश व विश्व राष्ट्र की भूमि का चप्पा नापता हुआ सतयुग की वापसी का उपक्रम करेगा। यही संकल्प बार बार दोहराया गया।
पहला आयोजन जयपुर राजस्थान का था जो कार्तिक पूर्णिमा 1992 को एक ऐतिहासिक आयोजन के रूप में सम्पन्न हुआ। यह धर्म भीरु व्यक्तियों की भीड़ नहीं थी बल्कि गायत्री व यज्ञ संदेश जीवन में उतार कर जन-जन पहुँचाने वाले श्रद्धा के सूत्रों से जुड़े परिजनों रूपी मणिमुक्तकों की एक माला भी जो विशिष्ट उद्देश्यों को लेकर सवाई मानसिंह स्टेडियम, जयपुर में एकत्रित हुई थी। प्रायः बीस लाख व्यक्तियों ने राष्ट्र को एक समर्थ सशक्त व अखण्ड बनाने की शपथ ली।
इसी कड़ी में सम्पन्न देसरे भिलाई (दुर्ग-म0प्र0) गुना (म0प्र0) तथा भुवनेश्वर (उड़ीसा) यज्ञों से सार भारत में एक विशिष्ट वातावरण बन गया। भारत के इन चार यज्ञों के बाद विश्व के इतिहास में पहली बार मात्र ढाई माह की अवधि में भारत से बाहर तीन अश्वमेध यज्ञ लेस्टर शायर (यू0के0) 9,10,11 जुलाई, टोरोन्टो (कनाडा) 23,24,25, जुलाई तथा लॉस एंजलेस (यू0एस0ए0) 20,21,22, अगस्त 1993 की तारीखों में सम्पन्न हुए। लाखों प्रवासी भारतीयों, युवा भाई बहिनों तथा अमेरिकी, केनेडियन व ब्रिटिश मूल के व्यक्तियों तक गायत्री महाविद्या का ज्ञान पहुँचा। विश्वधर्म संसद जो शिकागो में हुई वह भी इसी वर्ष सितम्बर माह में सम्पन्न हुई तथा उसमें मिशन के प्रतिनिधियों को ऐतिहासिक सफलता हस्तगत हुई।
इन सात अश्वमेधों के साथ अनुयाज क्रम भी चलता रहा व अगले यज्ञों का प्रयाज भी। अक्टूबर 93 में शरद् पूर्णिमा पर लखनऊ उत्तर प्रदेश में आयोजित आठवें अश्वमेध ने पिछले सभी कीर्तिमान जोड़ दिये। नेपाल एवं समूचा उत्तरी भारत इस यज्ञ से लाभान्वित हुआ। प्रेस, मीडिया, टी0वी0 के माध्यम से पूज्यवर का संदेश जन-जन तक पहुँचा। किसी भी प्रकार की राजनीतिक महत्वाकांक्षा से रहित इन यज्ञों में सभी वर्गों के प्रतिनिधि सम्मिलित होकर जाति पाँति संप्रदाय के नाम पर समाज को तोड़ने की दुरभिसंधि रचने वाले व्यक्तियों को अंगूठा दिखाते हुए अपने मूल प्रयोजन में निरत रहे। ‘सतयुग की पुनः वापसी वह भी अति शीघ्र।
नवाँ अश्वमेध बड़ोदरा गुजरात का था। इस भावनाशील प्राँत के चप्पे-चप्पे को प्रयाज क्रम में नापा गया था इस यज्ञ की सफलता तीस लाख व्यक्तियों की भागीदारी एवं राष्ट्र व विश्व के सभी मीडिया प्रमुखों की उसमें दिलचस्पी से आँकी जा सकती है। बहुसंख्य प्रवासी भारतीय भी उसमें सम्मिलित हुए। दसवाँ यज्ञ भोपाल मध्य प्रदेश का था। कार्यकर्ताओं की खदान कहे जाने वाले इस क्षेत्र के यज्ञ ने पूरे पश्चिमी मध्य प्रदेश व मालवा अंचल की ज्ञान गंगा से आप्लावित कर दिया। अनुयाज गोष्ठी में सम्मिलित कार्यकर्ताओं का उत्साह देखते ही बनता था। जो जो भी गतिविधियां भोपाल यज्ञ के बाद अनुयाज क्रम में सम्पन्न हो रहीं हैं, वे आने वाले दिनों में इन अश्वमेधों की महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जायेंगी।
ग्यारहवाँ अश्वमेध नागपुर (महाराष्ट्र) बारहवाँ ब्रह्मपुर (उड़ीसा) तेरहवाँ कोरबा (विलासपुर) म0प्र0 तथा चौदहवाँ पटना (बिहार) का, इस वर्ष के इन प्रथम चार यज्ञों ने चार प्राँतों को 1994 वर्ष के इस पूर्वार्ध में मथा व समूचे जन समुदाय को अश्वमेधिक दिग्विजय के प्रयासों से परिचित कराया। पन्द्रहवाँ यज्ञ मार्च के अंतिम व अप्रैल के प्रथम सप्ताह में कुरुक्षेत्र में तथा सोलहवाँ यज्ञ विगत अप्रैल की नवरात्रि में चित्रकूट (मध्य प्रदेश व उ0प्र0 की सीमा पर) में सम्पन्न हुआ। क्रमशः भगवान कृष्णा की कर्मभूमि कुरुक्षेत्र जहाँ से श्री गीता का उपदेश निस्मृत हुआ था तथा भगवान राम की तपोभूमि चित्रकूट जहाँ उन्होंने पावन कामदारी पर्वत पर साढ़े ग्यारह वर्ष तप कर अपना वनवास बिताया था, इन यज्ञों के बाद ऐतिहासिक मील के पत्थर बन गये हैं।
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक भिण्ड अश्वमेध यज्ञ अपनी पूरी तैयारियों के साथ सम्पन्न होने की स्थिति में था व शिमला महायज्ञ की तैयारियाँ पूरे जोर शोर से प्राँत व्यापी गतिविधियों के साथ गर्मी पर थीं। परम वंदनीया माताजी ने अपने जाने का कार्यक्रम विशिष्ट परिस्थितियों के कारण इन दो यज्ञों सहित आगामी सभी कार्यक्रमों के लिए स्थगित कर अपने प्रतिनिधियों को भेजने का निश्चय किया तथा स्वयं को आँवलखेड़ा की अर्धमहापूर्णाहुति के लिए सुरक्षित रखने का निर्णय लिया। निश्चित ही इन निर्धारणों की पृष्ठभूमि में कोई उसी स्तर के महत्वपूर्ण कारण रहें होंगे, जिन्हें दृष्टिगत रख परम पूज्य गुरुदेव ने क्षेत्रीय पदयात्रा का काम अपने वरिष्ठ प्रतिनिधियों के जिम्मे सौंपकर स्वयं को साधना पुरुषार्थ में संलग्न कर सूक्ष्मीकरण में प्रवेश किया था। कार्य महाकाल की सत्ता करा रही है। निश्चित रूप से वह जो भी निर्धारण करेगी, वह विश्व मात्र के हित में होगा। अगले अश्वमेधों या संस्कार महोत्सवों या छोटे स्तर के यज्ञों-देवस्थापना कार्यक्रमों में कौन जाता है, यह महत्वपूर्ण नहीं क्योंकि शक्ति सतत् अपने अजस्र स्त्रोत से निरंतर बहती रहेगी, निमित्त किसी भी अर्जुन, हनुमान, निषाद, गिलहरी या शबरी को बना सकती है। निश्चित ही दुंदुभि इसी प्रकार बजती रहे सारे विश्व ब्रह्मांड को निनादित करती रहेगी व सन् 2000 के आने की अवधि तक अपने लक्ष्य को समीप लाकर रहेगी।
*समाप्त*