Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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पहला सुख निरोगी काया
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शक्तियों में नीरोगता को पहली प्रत्यक्ष शक्ति माना गया है। नीरोग है वह रोटी कमाने से लेकर,विद्या पढ़ाने और कला-कौशल क्षेत्र में प्रवेश करने तक कहीं भी सफलता प्राप्त कर सकता है। जो रोगी है वह स्वयं तो कष्ट भुगतता ही है, अपनी सेवा परिचर्या में औरों को भी लगाये रहता है। यह अनुत्पादक श्रम है। इसमें मित्र कुटुंबी जो भी लगता है, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खीजता है। रोगी कमाता तो क्या है औषधि, पथ्य, परिचर्या आदि में दूसरों की शक्ति का उसके लिए नियोजन होता है। अस्वस्थ व्यक्ति का मन, मस्तिष्क, स्वभाव सभी अस्त−व्यस्त हो जाता है। वह कोई योजन बनाने और उसे सफल बनाने की स्थिति में भी नहीं रहता। अपने लिए और दूसरों के लिए भारभूत बन कर ही वह दिन गुजारता है। ऐसी जिन्दगी न अपने को प्रसन्नता देती है न दूसरों को। किसी से झगड़ा झंझट हो जाय तो प्रतिवाद करने ी सामर्थ्य भी नहीं होती। दबकर मन मार कर रहना पड़ता है। जो कमाऊ नहीं है, प्रसन्नता दे नहीं सकता, उसके प्रति दूसरों के मन में सम्मान भी नहीं रहता। इसलिए नीरोग रहना जीवन की प्रथम आवश्यकता मानी गई है। हर किसी को इसी स्थिति में रहना चाहिए। गरीब होते हुए भी यदि व्यक्ति नीरोग है तो अपनी प्रसन्नता बनाये रह सकता है और उसे दूसरों को भी बाँट सकता है।
नीरोग रहने के लिए क्या करना चाहिए? इसे लोग रहस्यमयी विधा समझते हुए भ्रांतियों में भटकते रहते हैं। वे बहुमूल्य दवाएँ खरीदते हैं, पौष्टिक खाद्य खरीदते हैं और जो भी बनता है करते हैं गुणी योगीजनों से राह पूछते हैं। इतने पर भी सुनिश्चित और चिरस्थायी आरोग्य किसी-किसी के ही हाथ आता है। यह तथ्य विरलों को ही विदित है कि स्वास्थ्य अति सरल है। नीरोग रहने के लिए ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता जो रहस्यमय है। केवल प्रकृति का अनुसरण करने वाले थोड़े से नियमों का पालन करने भर से इस प्रयोजन की पूर्ति बिना किसी कठिनाई के हो जाती है। बीमारी अस्वाभाविक है। इस असंयम की दुष्परिणाम भी कह सकते हैं। यह नियम बहुत नहीं है। थोड़े से ही हैं, जो सर्वविदित है।, सर्वसुलभ हैं, जिनका पालन करने में निभाने में-किसी को भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। मूर्खता या उद्दंडता वश मनुष्य इन्हें तोड़ता, बिगाड़ता है तो बीमारी चढ़ दौड़ती है। थोड़ा अपने ऊपर संयम रखा जाय। थोड़ी सावधानी बरती जाय तो बीमार होने का अभिशाप न भुगतना पड़े। यह नियम संयम भी ऐसे नहीं हैं, जिनके लिए योगाभ्यास जैसी कठिन प्रक्रिया रोज ही अपनानी पड़े।
स्वस्थ बने रहने के लिए जिन मर्यादाओं का पालन करना पड़ता है। वे मात्र पाँच हैं। इन्हें नीरोगता के पंचशील कह सकते हैं।(1) सात्विक भोजन (2)उपयुक्त (3) समय पर गहरी नींद (4) स्वच्छता (50) मन को हलका रखना। इन पाँच नियमों के पालन करने से स्वास्थ्य अक्षुण्ण बना रहता है। यदि किसी कारणवश बिगड़ गया है तो भूल सुधार लेने से प्रकृति क्षमा कर देती है ओर खोया हुआ स्वास्थ्य फिर वापस लौटा देती है।
सात्विक भोजन से तात्पर्य है बिना भूख के कभी न खाना। खाने की मात्रा इतनी सीमित रखनी चाहिए जिसमें आधा पेट आहार से भरे, चौथाई पानी के लिए और चौथाई हवा के लिए खाली रहे। आम तौर से लोग जायके के फेर में पड़कर आवश्यकता से प्रायः दूना खा जाते हैं। पीछे पेट की थैली चौड़ी की गई थैली, जब तक तन नहीं जाती, तब तक ऐसा लगता है मानों हम भूखे हैं। आमाशय आँतें जिगरी से रिसने वाला पाचक रस इतना कम होता है कि औसत खुराक की तुलना में प्रायः आधा ही पच सके। लोगों को यह भ्रम है कि ज्यादा खाया जायगा तो ज्यादा रक्त माँस बनेगा। ज्यादा ताकत आयेगी। लोग यह भूल जाते हैं कि जो पच सके वह अमृत और जो बिना पचा पेट में पड़ा रहे वह विष होता है।
खाने के संबंध में एक और बुरी आदत लोगों में पाई जाती है। जल्दी जल्दी बिना चबाए निगलना। यह भुला दिया जाता है कि जिस प्रकार पेट में पाचक रस निकलता है, उसी प्रकार मुँह के स्राव भी महत्वपूर्ण है। यदि पूरी तह भोजन के ग्रास को चबाया गया है। तो ही वे ठीक तरह पचेंगे अन्यथा दाँतों का काम आंतों को करना पड़ेगा और अपच उत्पन्न होगा।
क्या खाया जाय? इसका उत्तर एक शब्द में यह है कि हमारा खाद्य जीवित हों जीवित का अर्थ है उसे भुना तला न गया हो। यदि मजबूरी हो तो उसे उबाला भर जा सकता है। मिर्च मसाले, नामक, शक्कर की जितनी आवश्यकता है, उतनी फलों में, शाक भाजियों में होती है। ऊपर से जो मिलाया जाता है वह नुकसान के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता। अत्र लेना आवश्यक हो तो उसे अंकुरित कर लेना चाहिए। यही जीवित खाद्य की व्याख्या। छिलके हटाकर बनायी दाल तथा बिना बोकर का आटा (मैदा) एक प्रकार से निर्जीव हो जाते हैं। छिलके में बहुमूल्य जीवन तत्व होते हैं। । उन्हें दलने उपराँत, भूनने तलने के बाद एक प्रकार से खाद्य का कोयला ही पेट में जाता तो वह साधारण होते हुए भी मेवा मिठाइयों की तुलना में कही अधिक पौष्टिक होगा। यही है खाद्य के सादे नियम। इनका पालन करते रहा जाये तो पेट कभी खराब न होगा और बीमारी से बचाव की आधी समस्या हल हो जायगी।
खाने के बाद पचाने के लिए श्रम की जरूरत है। अंग अवयवों को पुष्ट रखने के लिए शारीरिक श्रम की निताँत आवश्यकता है। पशु पक्षियों को अपना आहार जुटाने के लिए दिनभर भाग दौड़ करनी पड़ती है। यह व्यवस्था इसलिए है कि भोजन पचता रहे और भीतरी तथा बाहरी अवयवों को उस परिश्रम द्वारा मजबूती हस्तगत होती रहे। यदि वे मनुष्य की तरह आराम तलबी का जीवन बितायें, बैठे ठाले रहें तो न उनका भोजन पचे, न अंग अवयवों में पुष्टाई रहे। न अंग अवयवों में पुष्टाई रहे। मनुष्यों में अनेक अब बुद्धि जीवी बनते जाते हैं। मस्तिष्कीय काम लिखा पढ़ी रहते हैं। श्रम के अभाव में उनका पाचन तंत्र गड़बड़ा जाता है और हाथ पैरों से लेकर हृदय फेफड़े गुर्दे, जिगर आदि में कमजोरी घुसती जाती है। होना यह चाहिए कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम नियमित रूप से किया जाय। मानसिक श्रम में कोताही कदापि न हो। यही कारण है कि किसान, मजदूर जैसे श्रमजीवी शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ रहते हैं और बैठे ठाले समय गुजारने वाले, क्लर्क, मुनीम, वकील आदि अपना स्वास्थ्य गँवाते चले जाते हैं। न ठीक तरह भोजन पचता है न अन्य अवयवों की श्रम जन्य मजबूती हाथ लगती है। जिन्हें ऐसी परिस्थितियों में रहना पड़ता है। व्यायाम अपनाना चाहिए। तेज चलना तथा टहलना, मालिश, अंग संचालन के कोई तरीके ऐसे निकालने चाहिए, जिससे अंग अवयवों को पसीना निकाल देने वाला श्रम करने का अवसर मिल सके। ड्रिल के कई तरीके अंग संचालन की दृष्टि से उपयोगी सिद्ध होते हैं। वयोवृद्धों को भी चारपाई पर पड़े-पड़े प्रत्येक अवयवों की उठाने, गिराने, फैलाने , सिकोड़ने का व्यायाम करना चाहिए। जो स्वयं यह करने की स्थिति में न हों उन्हें दूसरों की सहायता से यह फैलाने, सिकोड़ने की व्यायाम पद्धति अपनानी चाहिए। नियमित मालिश भी व्यायाम की आवश्यकता पूरी करती है। कमजोरों, बीमारों,वृद्धों का काम इससे भी चल सकता है।
इसके अतिरिक्त पूरे समय नींद लेने की आवश्यकता पूरी करनी चाहिए। मध्यम श्रेणी के आयु के व्यक्ति को सात आठ घटें सोना चाहिए। इसके लिए ऐसा कार्यक्रम बनाना चाहिए जिसमें जल्दी सोने और जल्दी उठने का क्रम सतत् बना रहे। बहुत रात बीतने तक जागते रहना और सबेरे देर से उठना स्वास्थ्य पर बुरा असर डालता है। जिन्हें रात में कम समय सोने को मिलें उन्हें दोपहर को नींद लेने का क्रम बनाना चाहिए। थकान को दूर करने के लिए नींद से बढ़कर और कोई खुराक नहीं है। रात में दिन में कुल मिलाकर कम सोना बुढ़ापा जल्दी बुलाने का ढंग है। कई व्यक्ति शौक मौज में गपबाजी में सिनेमा आदि देखने में रात का बहुत सा भाग गुजार देते हैं। ग्यारह बारह बजे तक सोने का तुक बिठाते हैं। देर तक दुकान खोले बैठे रहने वाले और घर आकर गरम रसोई की फरमाइश करने वाले घर की स्त्रियों का स्वास्थ्य चौपट कर देते हैं। जिन्हें देर में घर आना हो उन्हें गरम रोटी की फरमाइश नहीं करनी चाहिए। शाम को बना हुआ भोजन अपने लिए उठाकर रखना लेना चाहिए। उसी के काम चलाना चाहिए। ताकि इस कारण घर की स्त्रियों की देर तक जागना न पड़े। जिन घरों की स्त्रियों का स्वास्थ्य चौपट कर देते हैं। जिन्हें देर में घर आना हो उन्हें गरम रोटी की फरमाइश नहीं करनी उन्हें गरम रोटी की फरमाइश नहीं करनी चाहिए। शाम को बना हुआ भोजन अपने लिए उठाकर रखवा लेना चाहिए। उसी से चलाना चाहिए ताकि इस कारण घर की स्त्रियों को देर तक जागना न पड़े। जिन घरों की स्त्रियाँ देर से सोती और जल्दी उठती हैं, वे अनेक बीमारियों से घिर जाती हैं।
कभी-कभी सिर भारी होने ,कई दिन नींद अधूरी आने, पेट में कब्ज रहने, शरीर के किसी अंग में पीड़ा होने आदि कारणों से नींद अधूरी आती है। सपने दिखते रहते हैं। ऐसी अनिद्रा से मिलती जुलती स्थिति में भी आँखें बद करके चुपचाप पड़े रहना चाहिए। कोई विचार मस्तिष्क में चक्कर काटते रहने या ग्रंथि बनने पर भी अनिद्रा जैसी स्थिति बन जाती है। ऐसी दशा में विचार दिमाग में घूम रहा हो, उसे भिन्न प्रकार का विचार मस्तिष्क में लाना चाहिए। शरीर का विचार मस्तिष्क में लाना चाहिए। शरीर के अंग प्रत्यंगों को शिथिल करने का अभ्यास “शवासन” या शिथिलीकरण कहलाता है। अभ्यास किया जाय और यदि रात की नींद में विक्षेप पड़ रहा हो तो अंग शिथिल करने के अभ्यास का प्रयोग किया जाय। अपनी ओर से शक्ति भर प्रयत्न यही किया जाय कि सोने का समय जागने में न बीते। स्मरण रहे, दिन भर की शारीरिक और मानसिक थकान दूर करने के लिए नींद से बढ़कर और कोई उपचार नहीं है। उसमें जो भी विक्षेप पड़ते हों, उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए।
स्वास्थ्य की बिगाड़ने में एक कारण गंदगी है। शरीर, वस्त्र, घर उपकरण, आहार आदि के माध्यम से विषाणु शरीर में प्रवेश लगता है। पानी के बर्तन साफ सुथरे रहने चाहिए। कुएँ या नल से पानी निकालने के बाद उसे कई परत वाले कपड़े से छान लेना चाहिए। भोजन की सामग्री एवं पकाने के बर्तनों की सफाई भी आवश्यक है। छोटे-छोटे कीड़े मकोड़े खाद्य सामग्री में घूस जाते हैं। बारीकी से न देखा जाय तो वे दिखते भी नहीं। यह सभी स्वास्थ्य के शत्रु हैं। इसलिए इनसे बचने इन्हें हटाने का हर संभव उपाय करना चाहिए।
जिन स्थानों पर हवा का, धूप का आवागमन नहीं होता। ऐसे सीलन भरे स्थानों में भी रोग के कीटाणु पलते हैं। रहने के घर यथासंभव ऐसे होने चाहिए, जिनमें धूप और हवा का आवागमन होता रहे। मजबूरी हो तो ऐसे घरों को आग जलाकर गरम कर लेना चाहिए। कपड़े ढीले पहने जायँ, की आग जलाकर गरम कर लेना चाहिए। कपड़े ढीले पहने जायँ, कम पहने जायँ ताकि शरीर से धूप और हवा जो कपड़े रोज नहीं धोये जा सकते, उन्हें कड़ी धूप में कई घंटे नित्य सुखाना चाहिए। मुँह ढ़ककर सोने की आदत बुरी है। इससे साँस की गंदी हवा ही बार बार भीतर जाती है और जहरीले तत्व शरीर में बढ़ाती है।
स्वास्थ्य रक्षा का पांचवां आधार है विचार तंत्र। मस्तिष्क पर कुविचारों का अनावश्यक तनाव न पड़ने देना चाहिए। चिंता, क्रोध, आवेश,भय निराश आदि के हीन विचार जिस मस्तिष्क में जमा होते रहेंगे वह शरीर तंत्र का संचालक है। हृदय रक्त संचार करता है।, फेफड़े शुद्ध वायु को शरीर में पहुंचते हैं। ठीक इसी प्रकार प्रकार मस्तिष्क ज्ञान तंतुओं द्वारा समस्त अंग अवयवों पर शासन करता है। यदि मस्तिष्क उत्तेजित आवेश ग्रस्त रहेगा तो सारे शरीर पर उसका बुरा असर पड़ेगा। अनैतिक विचारों के संबंध में भी यही बात है। ईर्ष्या,डाह, चोरी-बेईमानी प्रतिशोध, आदि से दूसरों को हानि पहुँचाने वाले विचार भी ऐसे ही है। उनकी प्रतिक्रिया जीवन संतुलन पर तो बुरी होती ही है। साथ ही स्वास्थ्य को भी बिगाड़ती है। अनैतिक अथवा रहकर कोई व्यक्ति शरीर को स्वस्थ नहीं रख सकता। उत्तेजक विचारों विचारों में कामुकता प्रधान है। कितने ही लोग कामुकता प्रधान है। कितने ही लोग वासनात्मक कुकल्पनाएँ करते रहते हैं। काम सेवन का अवसर न मिलने पर भी जिस तिस के साथ कामसेवन-विलास की कल्पना करते रहते हैं। यह भी एक उत्तेजनात्मक प्रक्रिया है। इससे तनाव बढ़ता है। और मानसिक शक्तियों का बेतरह क्षरण होता है।
जिन्हें स्वस्थ रहना हो उन्हें मस्ती भरे दिन गुजारने चाहिए, हँसते-मुसकाते रहना चाहिए। प्रसन्न रहने की आदत न केवल स्वभाव को लोकप्रिय बनाती है, वरन् स्वास्थ्य को भी सुस्थिर-सुदृढ़ बनाये रहती है। मिल-जुलकर रहने, मिल−बांट कर खाने,हँसती-हँसाती जिन्दगी गुजारने से मनुष्य देखने में आकर्षक सुन्दर लगता है, लोकप्रिय बनता है। इतना ही नहीं, उसका स्वास्थ्य भी परिपुष्ट, नीरोग एवं दीर्घजीवी बना रहता है।
स्वास्थ्य को अच्छा बनाये रहने के उपरोक्त पाँच नियमों को यदि सतर्कता पूर्वक पालन किया जाय तो शरीर ऐसा बना रहेगा जिस पर दुर्बलता और रुग्णता का आक्रमण ही न हो सके। कदाचित् कोई व्यक्ति किसी कारण रुग्णता की चपेट में भी आ जाय तो इन पाँच नियमों का पालन करने पर अपने खोये हुए स्वास्थ्य को वापस लौटा सकेगा। यह प्रक्रिया के नियमों का परिपालन हैं जो जीव-जन्तु मनुष्य के शिकंजे में नहीं बंधे हैं, जिन्हें स्वेच्छापूर्वक जीवन जीने का अवसर मिलता है, उनमें से कदाचित् ही कोई बीमार पड़ता है। मौत बुढ़ापा तो स्वाभाविक है। पर बीमारी अस्वाभाविक है। यह तो प्रकृति के अनुशासन की अवज्ञा करने का दंड है। दंड का भाजन उसी को बनना पड़ेगा। जो करेगा। खुली हवा पक्षी तक सदा नीरोग रहते हैं। फिर बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्य को आये दिन बीमारी का दंड भुगतान पड़े, इसका कारण जीवन के सरल नियमों को अवज्ञा करना भर है। यदि वह सही रास्ते पर चलें तो निश्चय ही नीरोग और दीर्घजीवी बना रह वह सब कुछ कर सकता है, जिसके लिए इस धरती पर वह आया है।