Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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सिद्धपीठों से जुड़ी गुह्य विज्ञान की विधा
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बात उन दिनों की है, जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। दो जर्मन पर्यटक भारत-यात्रा पर आये हुए थे। इसी मध्य युद्ध छिड़ गया । उन्हें इस बात की चिंता सताने लगी कि भारत पर शासन कर रही ब्रिटिश सरकार कहीं बंदी न बनो ले, अस्तु हिमालय होते हुए तिब्बत भाग जाने का दोनों ने फैसला किया और सम्पूर्ण युद्धकाल वहीं बिताने की सोची । जब वे सुदूर हिमालय के तिब्बत वाले क्षेत्र में पहुंचे, तो वहाँ उन्होंने एक साधन संपन्न मठ देखा, जहाँ विज्ञान जगत की समस्त सुविधाएँ मौजूद थीं। आश्रमवासी इस शर्त पर उन्हें रहने देने को राजी हुए कि लड़ाई समाप्ति के तुरंत बाद वे वहाँ से चले जायेंगे। अनुबंध मिल गई वे आराम से रहने लगे। कुछ काल पश्चात् जब लड़ाई समाप्त हुई, तो पैदल वे भारत भटक जाने के कारण बरमा जा पहुँचे वहाँ चर्चा मध्य जब उन दोनों ने मठ और वहाँ के विकसित विज्ञान की बातें बतायी, तो लोगों को सहसा विश्वास नहीं हुआ। कुछ ने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की, तो दानों जर्मन वहाँ ले चलने को तैयार हो गये।
जब वहाँ पहुँचे, तो वे आश्चर्यचकित रह गये। वही वृक्षावली वही पर्वत शिखर, वही झरना और वही शिला-खण्ड, जहाँ वे अपना अधिकाँश समय बातें करते बिताते। सब कुछ वही था, पर वह विशाल मठ गायब था। न जाने इस अल्प अंतराल में वह कहाँ अंतर्ध्यान हो गया था।
यहाँ चर्चा किसी जादू या तिलिस्म की नहीं, वरन् उस विज्ञान की, की जा रही है, जिसे सर्वसाधारण “गुह्य विद्या” के नाम से जानते हैं। यह विद्या “ के नाम से जानते हैं। यह विद्या वस्तुतः क्या? संक्षेप में कहें, तो वह विज्ञान, जिसके द्वारा असंभव को संभव कर दिखाने का अनोखा कौशल प्रदर्शित किया जाता है। योगियों में जब यह विद्या संपूर्ण रूप में प्रकट होती है, तो उनमें ऐसी अनेकों क्षमताएँ मूर्तिमान होने लगती हैं, जो सामान्य बुद्धि को आश्चर्य और अचंभे में डाल देती हैं। यह सिद्धावस्था है। इस अवस्था की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें अनेक सिद्धियों के अतिरिक्त साधक में इच्छानुसार दृश्य-अदृश्य होने की अपूर्ण क्षमता पैदा हो जाती है।
उपरोक्त प्रसंग के संदर्भ में यहाँ यह संदेह पैदा हो सकता है कि सिद्ध संतों के जीवन में आविर्भाव-तिरोभाव की घटना तो सर्वविदित है, पर सर्वथा जड़ कहलाने वाली भूमि में यह विशेषता कैसे पैदा हो सकती है? यह कैसे पैदा हो सकती है? यह कैसे शक्य है कि पृथ्वी का कोई खण्ड, विशेष अथवा उस पर निर्माण आवश्यकता पड़ने पर इंद्रियग्राह्य हो जाय और अन्य समय में अदृश्य स्तर का बना रहे? इस संबंध में “ज्ञानगज” नामक हिमालय स्थित गुह्य स्थान के विषय में अपनी पुस्तक में स्पष्टीकरण हैं कि सिद्धाश्रम साधारण लौकिक आश्रमों जैसा नहीं होता, न तो सभी को सब समय दिखाई पड़ता है। यदि कभी किसी को यह दृष्टिगोचर हो जाय, तो इसे आश्रमवासी परमहंसों की परम कृपा ही समझनी चाहिए, अन्यथा बाकी समय में यह भूतियाँ सामान्य स्तर और स्थिति वालों के लिए कारण है कि साधारण पर्यटक से लेकर तीर्थयात्री तक कोई भी इसका पता नहीं पा पाते। वे कहते हैं कि स्थूल भूमि में अवस्थित रहने पर भी वह ठीक भौतिक स्थान नहीं है, अथवा यों कहा जाय कि वह न तो स्थूल है, न सूक्ष्म, जबकि एक साथ स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही हैं, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
अपने देश में इस प्रकार की कितनी ही भूतियाँ है। एक ऐसी ही सिद्ध भूमि का उल्लेख कर्नल आलकाँट ने अपनी रचना” ओल्ड डायरी लेवेस” में किया है। घटना बम्बई की है। एक बार आलकाँट और थियोसोफी की संस्थापिका मैडम ब्लैवट्स्की घूमने निकले। कुछ दूर चलने के उपराँत ब्लैवट्स्की ने अचानक एक स्थान पर गाड़ी रुकवायी। कर्नल से गाड़ी पर रुकने को कहकर स्वयं उतर पड़ी। और यह कहते हुए सामने के मठ में चली गई कि “अभी आती हूँ”।
आलकाँट ने देखा कि पास ही एक विशाल मठ है। ब्लैवट्स्की मठ के अन्दर चली गई। थोड़ी देर पश्चात् बाहर निकलीं तो हाथ में फूलों की कई मालाएँ थीं, उनमें से एक उनने आलकाँट को दी।
अगले दिन आलकाँट अकेले घूमने निकले और घूमते हुए उसी स्थान की ओर निकल पड़े। उन्हें यह दे, कर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि एक दिन पूर्व जिस भव्य मठ को स्वयं अपनी आँखों से देखा था, आज वह नहीं था। मठ के स्थान पर मात्र एक उद्यान दिखाई ड्राइवर से इस बारे में पूछने पर इनकार कभी कोई मठ था ही नहीं। आपको आलकाँट ब्लैवट्स्की द्वारा ही समझ सके।
एक अन्य घटना की चर्चा ”साधु दर्शन तथा सत्प्रसंग (प्रथम-खण्ड) ग्रन्थ में पं. गोपीनाथ ने की है। प्रसंग केदार नामक एक बालक से संबंधित है। वे लिखते हैं कि एक शाम केदार के पीस एक योगी पुरुष आये और एक स्थान का पता बताते हुए दूसरे दिन वहाँ आकर मिलने को कहा। मार्ग के बारे में पूछे जाने पर विस्तारपूर्वक बालक को बात दिया और यह भी कहा कि आगे का रास्ता वहाँ से स्वतः मालूम हो जायेगा।
अगले दिन नियत समय पर निश्चित स्थान विश्वेश्वर गंज तक बालक निर्देशानुसार आ पहुँचा। वहाँ विश्वेश्वरगंज से मैदान की ओर किसी अज्ञात प्रेरणा से उसी ओर मुड़ गया। समीप पहुँचा, तो देखा कि मैदान मध्य एक बड़ी शिला है। उस पर एक दिव्य पुरुष विराजमान है। उनके दर्शन से केदार के मन में यह भाव आया कि इन्होंने ही बुलाया । पहुँचा, तो देखा कि मैदान मध्य एक बड़ी शिला है। उस पर एक दिव्य पुरुष मन में यह भाव आया कि इन्होंने ही बुलाया है। उनके दर्शन से केदार के मन में यह भाव आया कि इन्होंने ही बुलाया है। समीप जाने पर उन महापुरुष ने उसे बैठने का इशारा किया और कुछ रहस्यमय प्रसंग समझाने लगे। चर्चा देर तक चलती रही। काफी समय हो जाने पर महापुरुष ने केदार से यह कहते हुए प्रस्थान करने को कहा कि उसके घर के लोग उसकी अनुपस्थिति के करण चिंतित हो रहे हैं। इसके साथ ही उनके सामने की ओर अपनी भुजा बढ़ा दी। तत्क्षण दूरदर्शन के दृश्य की तरह उसका घर, माँ, बहन, भाई एवं उनने हाथ हिलाया और दृश्य तिरोहित हो गया। केदार के यह पूछने पर कि इस समय वे किस स्थान पर हैं? भव्य पुरुष ने जवाब दिया कि यह एक ऐसा स्थान है, जहाँ से समस्त विश्व अत्यन्त निकट है।
इसके पश्चात् केदार ने प्रणाम किया और चल पड़ा। उसका विश्वास था कि मैदान पार करते ही वह विश्वेश्वरगंज पहुँच जायेगा, पर ऐसा न हो सका। पगडंडी समाप्त करने पर उसने स्वयं को इलाहाबाद रोड पर पाया, जहाँ से विश्वेश्वरगंज लगभग तीन मील दूर था। गया था पूर्व की ओर, पर लौट रहा था पश्चिम की ओर से। इतना ही नहीं, हर बार उसके लौटने के स्थान और दिशा भिन्न-भिन्न से समीप जिस मैदान की चर्चा की गई है, उसे केदार ने इससे पूर्व कभी नहीं देखा था, यद्यपि वह इस ओर कई बार आ-जा चुका था। कदाचित् चह भी कोई सिद्ध भूमि हो और अधिकार-भेद के हिसाब से दृश्य-अदृश्य बनने की उसमें सामर्थ्य हो, इस बात से सर्वथा इनकार नहीं किया जा सकता।
ऐसी ही एक विलक्षण स्थान का वर्णन ”ब्रह्मांडोनो भेद” नामक गुजराती ग्रन्थ में मौजूद है। उसमें “सत्यज्ञानाश्रम” नाम के हिमालय के तिब्बत वाले भाग में स्थित एक सिद्धाश्रम का उल्लेख है। बताया जाता है कि यहाँ ज्ञान-विज्ञान की अद्भुत उन्नति हुई है। एक रोम पर्यटक ने इस मठ का वर्णन किया है। एक रोम पर्यटक ने इस मठ का वर्णन अपनी पुस्तक में किया है। एक अन्य ग्रीक पुस्तक में किया है। एक अन्य ग्रीक यात्री ने भी इस गुप्त स्थान के बारे में लिखा है। कि ऐसा विलक्षण स्थान शायद पृथ्वी में अन्य? न हो। आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व फेंग्लियान नामक एक चीनी विद्वान ने इस दुर्गम हिमालय का वृत्ताँत प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि यहाँ के एक रहस्यमय मठ में अद्भुत यौगिक क्रियाएँ होती हैं, जिनके बल पर वहाँ के योगी दिव्य शक्ति संपन्न बन सके है। इन सभी विवरणों से ज्ञात होता है कि हिमालय का वह अलौकिक आश्रम अनेक प्रकार की परा-अपरा विद्याओं का अनुपम भाण्डागार है। कायाकल्प की अनूठी प्रक्रिया द्वारा वृद्ध देह को तरुण बना लेना, समूचे संसार को एक स्थान पर बैठे-बैठे हस्तामलकवत् देख लेना, वैज्ञानिक यंत्रों के बिना दुःसाध्य रोगों, अंग-भंगता एवं विकलाँगता को दूर कर देना, भोंडे शरीर गठन को रूपलावण्यमय बना देना जैसी कितनी ही लौकिक-अलौकिक विद्याएँ वहाँ अब भी संरक्षित हैं। यह भी उल्लेख मिलता है कि वायु दुर्ग जैसी अदृश्य संरचनाओं के निर्माण में वहाँ के योगीगण सिद्धहस्त है।
हिमालय स्थित एक इसी प्रकार कील सिद्धपीठ का उल्लेख काशी के प्रसिद्ध संत स्वामी विशुद्धानन्द परमहंस अपनी वार्तालापों में अक्सर किया करते थे, जिसका उल्लेख यत्र-तत्र पं. गोपीनाथ कविराज ने अपनी पुस्तकों में किया है। इस आश्रम का विवरण देते हुए वे कहते थे कि इसका दर्शन प्रायः वही लोग प्राप्त कर पाते हैं, जो वहाँ के महापुरुषों का अनुकंपा अर्जित करने में सफल होते अथवा वैसे लोग जो स्वयं योग विज्ञान में गूढ़ गति रखते हों। उनके अनुसार वहाँ योग के अतिरिक्त नाना प्रकार के प्राकृतिक विज्ञान की शिक्षा योगार्थियों को दी जाती है। आचार्यगणों में शताब्दियों लम्बी उम्र वाले योगी और दीर्घायुष्य प्राप्त विज्ञानवेत्ता वहाँ के उपाध्याय और संरक्षक है। इनके अतिरिक्त अनेक ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी, संन्यासी परमहंस, भैरवी, और कुमारियाँ वहाँ रहते हैं। सभी लम्बी वय वाले हैं। इसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में वे कहा करते थे कि हिमालय में यह स्थल कैलास मानसरोवर से भी दूर है। इसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में वे कहा करते थे। सभी लम्बी वय वाले है। इसकी भौगोलिक स्थिति के बारे में वे कहा करते थे कि हिमालय में यह स्थल कैलास मानसरोवर से भी दूर है। ठीक-ठीक स्थान का पता होने पर भी सामान्यजन इसका संधान नहीं कर सकते, क्योंकि सर्वसाधारण की दृष्टि से यह सदा ओझल बना रहता है।
बंगाल के विख्यात संत राम ठाकुर भी बातचीत के दौरान हिमालय स्थित कितने ही सिद्ध स्थलों के बारे में बताया करते थे। अपनी चर्चा में वशिष्ठाश्रम एवं योगेश्वर आश्रम जैसे सिद्ध स्थानों का अक्सर वे उल्लेख किया करते थे। योगेश्वर वे उल्लेख किया करते थे। अपनी चर्चा में वशिष्ठाश्रम एवं योगेश्वर आश्रम के संबंध में उनका कहना था कि वहाँ स्फटिक निर्मित एक विशाल शिवलिंग है, जिसके चारों ओर एक अपार्थिव शुभ्र ज्योति फैल कर उसे आलोकित करती रहती है। उस सुन्दर शिवलिंग पर ध्यान जमाये एक रूप सुन्दरी न जाने कबसे ध्यानस्थ है। कौशिकी सिद्धाश्रम के विषय में वे बताते थे कि वह बड़ा ही रसमय आश्रम है। संपूर्ण मठ शिला निर्मित है। वहाँ दस महा तापस सदियों से तपस्यारत हैं, जबकि वहाँ के शेष तीन योगी जागृतिक कल्याण के निमित्त भ्रमण कर रहे हैं। उनका कहना था कि सामान्य कल्याण के निर्मित भ्रमण कर रहें हैं। उनका कहना था कि सामान्य लोगों की दृष्टि में यह आश्रम अगोचर बने रहते हैं और सिर्फ अधिकारी पुरुषों को ही दृश्यमान हो पाते हैं। राम ठाकुर के इन प्रसंगों का जिक्र बंगाल के प्रसिद्ध लेखक नवीन चन्द्र सेन ने “आमार जीवन” नामक अपनी आत्मकथा के “प्रतारक ना प्रवर्चक“ नामक चतुर्थ अध्याय में किया है।
चटगाँप (अब बँगला देश में) स्थित जगतपुरा आश्रम के प्रतिष्ठिता कि उनने तिब्बत के मतगाश्रम नामक सिद्ध मठ में वर्षों तक योग की शिक्षा प्राप्त की थी। बाद में वहाँ की अद्भुतता से आकर्षित होकर योग के प्राप्त करने के उद्देश्य से उस ओर प्रस्थान किया, पर स्थान का साधन न पा सके। पर स्थान का संधान न पा हो गई और निराश होकर लौटे।
भारतीय संस्कृति में चौदह लोकों की अवधारण प्रसिद्ध है। इनमें से एक मात्र पृथ्वी ही सर्वसाधारण के अवलोकन योग्य द्वैत युक्त है। वे एक साथ-सूक्ष्म दोनों है। सामान्य मनुष्यों के लिए जहाँ उनकी सता अदृश्य स्तर की बनी रहती है, वहीं अधिकारी पुरुष उनका और उनमें निवास करने वाले देवपुरुषों का स्थूल संरचना की तरह दर्शन करते रहते हैं। इतना ही नहीं, उन-उन लोकों में उनका अप्रतिहत आवागमन भी होता रहता है। विज्ञान ने इनमें से पाँच ही आयामों की संभावना को स्वीकार किया हैं, जबकि शेष का अन्वेषण जारी है।
विवेकानन्द ने भुवन संबंधी भारतीय दृष्टिकोण का स्पष्टीकरण करते हुए एक स्थान पर कहा है कि “लोक” से कदापि यह नहीं समझा जाना चाहिए कि यह किन्हीं ग्रहों में स्थित हैं। चन्द्रलोक, बुध लोक, बृहस्पति लोक जैसे नामों से प्रकारान्तर से उन्हीं सूक्ष्म भूमियों को शास्त्रकारों ने अभिहित किया है, जो हमारे ही इर्द गिर्द है। स्तर-भेद के हिसाब से उन्हें भिन्न नाम दिया गया है। इन नामों से किसी को यह अर्थ नहीं लगा लेना चाहिए कि उक्त लोक उस-उस नाम के स्थूल ग्रह से संबंधित है। इन ग्रहों में से कइयों की खोजबीन की जा चुकी है। वे पृथ्वी जैसे ही जड़ पिण्ड है। ऐसे में उन ग्रहों से उनकी संगति बिठाना ठीक नहीं। इस स्थिति में विवेक संगत स्थापना यही हो सकती है कि ये सभी वैसी ही सूक्ष्म भूतियाँ, जैसी भूमियों की चर्चा बौद्ध ग्रन्थों में “बुद्ध क्षेत्रों” के नाम से की गई है।
यह सुस्पष्ट हो जाने के उपराँत इतना मान लेने में कोई दुराग्रह नहीं होना चाहिए कि सूक्ष्म भवनों की तरह सिद्धाश्रम भी छोटे स्तर की भूमियाँ हैं, जो स्थूल-सूक्ष्म दोनों हैं और इसी पृथ्वी पर स्थित हैं। यदि अपने को, आचरण को, चिन्तन और भावनाओं को शोधित-परिष्कृत कर इस योग्य बनाया जा सके कि उनमें देवपुरुषों के अनुग्रह को आकर्षित करने की क्षमता पैदा हो जाय, तो निश्चय ही हममें से प्रत्येक देवभूमियों के दिव्य-दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करने में सफल हो सकेगा, जो के अंतर्गत आते रहे हैं। यही नहीं, उस मनोभूमि में पहुँचने पर जो आध्यात्मिक लाभ ऋद्धि-सिद्धियों को रूप में संभव है, हस्तगत हो पाना इस माध्यम से शक्य हो सकता है। प्रचंड आध्यात्मिक पुरुषार्थ से यह असंभव भी नहीं हैं।