Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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समन्वय-सहकारिता की रीति-नीति
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प्रकृति का क्रम स्थिर जैसा प्रतीत होता है मोटी दृष्टि से घर, बाजार, सड़क खेत आदि अपने स्थान पर यथावत् स्थिर मालूम पड़ते हैं। बारीकी से देखने पर उन सब में प्रगति क्रम पर आधारित गतिशीलता अपने परिपूर्ण वेग के साथ काम करती दिखाई देती है। अणु-परमाणु अपने नाभि के इर्द-गिर्द उसी क्रम से घूमते दिखाई पड़ते हैं जैसे सौर मंडल के ग्रह-उपग्रह। ब्रह्मांड में अवस्थित निहारिका से लेकर अनेकानेक ग्रह- नक्षत्र तक क्षण भर भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते, उनकी गतिशीलता ही खगोल के वर्तमान स्वरूप को बनाये हुये है। स्थिर होने पर तो वे संभवतः अपना अस्तित्व ही गँवा बैठते ह। वनस्पतियों और प्राणियों पर भी यही नियम लागू होता है। वे उपजते हैं, बढ़ते हैं, परिपक्व होते, ढलते और अंत में जराजीर्ण होकर परिवर्तन की स्थिति में गिरकर अपने पुराने स्वरूप को ही बदले देते हैं। इसी को सृजन -अभिवर्धन और परिवर्तन का क्रम कहते हैं। यह सचेतन जीवधारियों पर ही नहीं, जड़ पदार्थों पर भी लागू होता है। इस नियमित क्रम के अनुरूप अपने मानस को ढालने की पूर्ण तैयारी हर किसी को करनी चाहिए। अन्यथा समय आगे बढ़ जायगा और वह पिछड़ कर प्रतिस्पर्धा में पिछड़े हुओं की तरह हाथ मलता रह जायेगा। पेड़ पौधों के पत्ते सतत् हिलते रहते हैं वे ऊपर उठते, फैलते और फिर सिकुड़कर जरा जीर्ण होते, रूप बदलते और नया कलेवर धारणा करते हैं। शरीर के भीतर और बाहर भी वही क्रिया चलती हैं। काया को कुछ न कुछ करते रहना पड़ता है। वह मूर्ति को तरह किसी एक स्थान पर बैठ कर स्थिर नहीं रह सकती। चारपाई पर किसी कारणवश एक स्थिति में पड़े रहने वालों की पीठ में “बेडसोर” कहे जाने वाले घाव बन जाते हैं। अचल पड़े रहने वाले असंख्य रोगों के शिकार हो जाते हैं। उनका भोजन तक नहीं पचता। अंग- अवयव जकड़ कर निष्क्रिय हो जाते हैं। शरीर के भीतर भी प्रत्येक अवयव जीवकोश अपनी-अपनी क्रियाओं में संलग्न रहता है। रक्त संचार से लेकर श्वास-प्रश्वास तक की अनेकानेक हलचलें काय कलेवर के अंतराल में चलती रहती है। इस गतिशीलता को जीवन कहते हैं। यदि यह सभी प्राणवान गतिविधियां एवं हलचलें एक क्षण के लिए भी रुक जाय तो फिर तत्काल मरण की स्थिति बन जाती हैं भव्य भवन भी समयानुसार जरा जीर्ण होने लगते हैं और गिरकर खंडहर बन जाते हैं। इस कबाड़ को हटा कर लोग नई संरचना करते हैं। पर्वत स्थिर प्रतीत होते हैं पर वास्तविकता यह है कि वे भी उठते, धंसते और आगे बढ़ने-पीछे हटने की गतिशीलता अपनाये रहते हैं चाल भले ही धीमी हो । समुद्रों ने भी कितनी ही बार पलटा खाया है उनके खण्ड होते रहे है। वे कभी मिलते कभी बिछुड़ते देखे गये हैं। ग्रह-नक्षत्र भी नये बनते और पिछले बूढ़े होकर दम तोड़ते रहे हैं जिधर भी दृष्टि प्रसार कर देखा जाय, उधर ही परिवर्तन का विच्छिन्न माहौल काम करता दीखता है। इसी को दूसरे शब्दों में “प्रगतिशीलता “ भी कहा जा सकता है। इसे नकारा नहीं जा सकता झुठलाने से भी बात नहीं बनती। हमें तथ्य को समझाना और तद्नुरूप अपने मानस को उस प्रक्रिया के अनुरूप अपने को तैयार करने के लिये अभीष्ट चिंतन अपनाना चाहिये। किसी आग्रह पर अड़ कर नहीं बैठना चाहिये। हठ जड़ता का चिन्ह है। उस में तो यथार्थता को नकारने की अदूरदर्शिता काम करती रहती हैं। प्रथा परंपराओं में अनादि काल से परिवर्तन होता रहा है। आरंभ काल में जब साधनों का अभाव था, तब जीवन यापन की एक पद्धति थी। इसके उपराँत जैसे-जैसे ज्ञान की, साधनों की उपलब्धि का क्षेत्र बढ़ता गया, उसी अनुपात से रहन सहन एवं सोच विचार भी बदलता गया। यह प्रवाह निरंतर चलता आ रहा हैं इसे इतिहास के पृष्ठ उलटकर भली-भांति देखा समझा जा सकता है पिछली शताब्दियों में याँत्रिक वाहन नहीं हो। जलयान, वायुयान तार, टेलीफोन, कल-कारखाने, बिजली आदि का ही अता-पता भी न था। उन दिनों रहन-सहन की पद्धति भी आज जैसी न थी। जैसे-जैसे साधन बढ़े उसी के अनुरूप जीवन पद्धति में भी परिवर्तन हुआ और प्रचलनों में अंतर पड़ता चला गया। आज हम पाँच शताब्दियों में ही इतने बदल गये है, जिसे देखते हुये जमीन-आसमान जैसा अंतर हुआ समझा जा सकता है सहस्राब्दियों की बात छोड़ें, मात्र कुछ दशाब्दियों की और आज की परिस्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन करे तो प्रतीत होगा कि परिस्थितियाँ किस तेजी से बदलती गई? परिवर्तन किस आश्चर्यजनक ढंग से होते गये? बात यहाँ तक बढ़ गई कि पुरातन काल जैसी रीति-नीति और प्रथा परंपरायें अपनाये रखना अब किसी भी प्रकार संभव नहीं रहा। सघन वन प्रदेशों में जहाँ-तहाँ आदिम जन- जातियों के कुछ कबीले पाये जाते हैं, उनकी मनःस्थिति और परिस्थिति को देखकर आश्चर्य होता है कि वे इन दिनों में किस प्रकार उस पुरातन पद्धति को अपनाये रह सके है। उन्हें एक कौतूहल ही समझा जा सकता है इसे हठवादिता भी कहा जा सकता हे, पूर्वाग्रह या पिछड़ापन भी। यदि उनने प्रगति क्रम के साथ चलने की आवश्यकता, समझी होती प्रगतिशीलों ओर पिछड़ों के बीच ताल-मेल बैठाया होता, सामंजस्य बैठा होता तो निश्चय ही पूर्वाग्रहों ने हार मानी होती और अनगढ़ लोग उस गई गुजरी स्थिति से आगे बढ़ कर विकसित वर्ग में सम्मिलित हो गये होते। इसमें प्रगतिशीलों को भी उपेक्षा का दोषी ठहराया जा सकता है, पर अधिक दोष उस हठवादिता को दिया जायेगा जिसने समय के गतिशील प्रवाह को नहीं समझा और एक कदम आगे बढ़कर प्रस्तुत प्रगति के साथ संबंध जोड़ने में उत्साह नहीं दिखाया यह भूल किसी भी क्षेत्र से हो रही हो, वह परिणाम में घाटा ही प्रस्तुत करेगी। हम आदिम काल की ओर नहीं लौट सकते, बढ़ते आगे की ओर ही पड़ेगा । उल्टे पैरों पीछे की दिशा में चलने का कोई कौतूहल वो प्रस्तुत कर सकता है पर लंबी यात्रा कर सकता इस आधार पर संभव नहीं हो सकता । बुद्धिमानों आगे बढ़ने में ही है। यह समझा जा सकता हो कि प्रगति के अत्युत्साह में हम ऐसी अवाँछनीयता न अपना ले जा अनर्थ का कारण बने। धन उपकरण बुद्धि कला आदि उपयोगी वस्तुओं का भी दुरुपयोग अनर्थ पैदा करता है फिर प्रगति यदि शालीनता की मर्यादायें तोड़ने लगे, तो उसका परिणाम भी भयानक हो होगा। तथ्य को ध्यान में रखते हुये यदि प्रगति पथ पर अग्रसर हुआ जाय तो ही औचित्यपूर्ण है। प्रगति क्रम विज्ञान और बुद्धिवाद की बढ़ोत्तरी के साथ-साथ अधिक द्रुतगामी हुआ है जो परिवर्तन पूर्वकाल में धीमी गति से हजारों वर्षा में हो पाते वे अग अत्यन्त तेजी के साथ होगे लगे हैं। दुनिया अब बहुत छोटी रह गई है। प्रेम और संचार साधनों ने विभिन्न क्षेत्रों में बिखरी हुई विचारधाराओं का एक दूसरे के समीप खड़ा होने की स्थिति में ला दिया है। द्रुतगामी वाहनों ने साधनों और क्षेत्रों की दूरी अपेक्षाकृत बहुत कम कर दी है। क्रमशः संसार एक छोटे प्रदेश ”ग्लोगल क्लेज” की तरह आपस में सट गया है। संस्कृतियों के बीच असाधारण रूप में घुलने-मिलने की स्थिति उत्पन्न हुई है। एक ने दूसरे से बहुत कुछ सीखा, अपनाया है साथ ही सभी समुदायों ने अपनी पुरातन परंपराओं में से उन तत्वों को हटाने का प्रयत्न किया है जो सामयिक उपयोगिता की कसौटी पर खरे नहीं उतर रहे थे। भाषा ही , सांप्रदायिक, साँस्कृतिक कट्टरता क्रमशः अधिक लचीली होता गई है और प्रवाह उस दिशा में बढ़ रहा है जिसमें विश्वमानव की एकता के केन्द्र पर केन्द्रित होने के लिये प्रेरणा मिल रही है। लगता है अगली कुछ ही शताब्दियों में विश्वमानव इसी समझदारी अपना लेगा जिसमें उकता समता और सहकारिता के सिद्धांतों को पूरी तरह अपना लिया जायेगा। लोग अपने-अपने आग्रहों के प्रति कट्टर न रहेंगे। बात इस प्रकार बनेगी कि अनेकानेक मान्यताओं के बीच जहाँ जितनी उपयोगिता पाई जायेगी, वहाँ से उसे उतनी मात्रा में ग्रहण कर लिया जाएगा। जो समय से पीछे रह गया उस परंपरा के लिए कोई अग्रह नहीं करेगा। कम से कम एक दूसरे पर लादने का प्रयत्न तो करेगा ही नहीं। समन्वय का अर्थ प्रकारांतर से सहकारिता ही है। मिलजुल कर रहने काम करने, सामंजस्य बिठाने की प्रक्रिया ऐसी है जिसका सहभागी होने वाले प्रत्येक घटक की शक्ति अनेक गुनी बढ़ी जाती है। अकेला तिनका, पत्ता , धूलिकण, पौधा, मनुष्य सभी दुर्बल और अशक्त रह जाते हैं। उनके लिये कोई बड़ा काम कर सकता तो दूर-अपने आप की रक्षा करना भी कठिन पड़ता है। खेत में, उद्यान में उगे हुये पौधे सहयोगी, सहभागी बनकर अपने आप में सुदृढ़ एवं शोभायमान लगते हैं सरलता पूर्वक फलते-फूलते और सुदृढ़, सुरभित बने रहते हैं पर यदि उनमें से प्रत्येक चीज अलग-अलग रहे पृथक -पृथक बने तो उसकी सुरक्षा सुनिश्चित न रहेगी। फलने-फूलने का अवसर तो कदाचित ही आवे इस सिद्धांत को सृष्टि के सभी समझदार प्राणी जानते और मानते हैं। चिड़िया झुण्ड बनाकर रहती और साथ-साथ उड़ती है। यह माना जाना चाहिए कि जो पृथकता की नीति अपनायेगा उसकी संकीर्णता अहमन्यता उसी के लिए घातक सिद्ध होगी। झुण्ड से अलग रहने वाले पशु ‘पक्कड़’ कहे जाते हैं उनका स्वभाव अन्यों की अपेक्षा अधिक उद्धत, अधिक अनगढ़ और अधिक असुरक्षित रहता है वे अपने आप में अपेक्षाकृत अधिक आशंकित रहते हैं दूसरे भी उन्हें देखकर आतंकित हो उठते हैं, बचने या खदेड़ने का प्रयत्न करते हैं। इस स्थिति में रहना, मनुष्य के लिए घातक और संकटापन्न ही बनता है। इससे बचना एवं सहकार- मनस्वी की नीति अपनाकर प्रगति पथ पर चलते रहने में ही समझदारी हे, इसे तथ्य को भली प्रकार हृदयंगम कर लिया जाता चाहिए।