Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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धारावाहिक विशेष लेखमाला-12 - संवेदना विस्तार से विनिर्मित हुआ है-यह विराट् परिवार
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“अन्यान्य संगठन तो निहित स्वार्थों के लिए बनते, टूटते व बिखरते रहें है। किंतु हमने जो गायत्री परिवार के रूप में चुने हुए पुरुषों की एक माला तैयार की है, उकसा एक ही लक्ष्य है इक्कीसवीं सदी का स्वरूप क्या होगा? वह कैसे आयेगी? उसकी एक झलक झाँकी सारे विश्व को दिखाना तथा अध्यात्म को अपने जीवन में उतारकर सारे जमाने को बता देना कि यह जीवन की शीर्षासन अवश्य है पर इसे व्यवहार में उतारकर चैन की-आँतरिक आनन्द की, मस्ती भरी जिन्दगी गुजारी जा सकती।”कार्यकर्ताओं से की जाने वाली नियमित चर्चाओं के क्रम में परम पूज्य गुरुदेव के श्रीमुख से निकले ये विचार ये चार यहाँ संगठन के रूप में उनके द्वारा स्थापित “गायत्री परिवार” रूपी उस विराट सेना की भूमिका के नाते अभिव्यक्त हुए थे, जो आज देव संस्कृति दिग्विजय के उपक्रम में अश्वमेधी पराक्रमों में सारे विश्व में कार्यरत दिखाई पड़ती है।
किसी को लगा सकता है कि जैसे विश्व में इतने पंथ, सम्प्रदाय, विचारकों-मनीषियों के पीछे सतत् चलते रहने वालों के हजूम होते हैं, वैसा ही एक पंथ या संप्रदाय कोई यह “गायत्री परिवार”भी होगा किंतु उथली दृष्टि इससे ज्यादा सोच भी क्या सकती है। परम पूज्य गुरुदेव के शब्दों में “हमने व माताजी ने संवेदना बाँटी है-जीवन भर तथा इसी एक कमाई से इतने व्यक्तियों की एक “लार्जर फेमीली” खड़ी कर दी है। जिसमें सब एक दूसरे के दुःख-सुख में शरीक ही भावी विश्व कैसा हो? इसका एक दिग्दर्शन करा सकेंगे। “निश्चित ही किसी भी संगठन के निर्माण के पीछे सृजेता की गहरी अंतःदृष्टि जरूरी है। नैतिक व आध्यात्मिक अनुशासन जरूरी है। नैतिक व आध्यात्मिक अनुशासन किसी भी संगठन में उसके निर्माता के संवेदनात्मक सहारे से आपाआप आ जाता है, उसके लिए किसी तरह की सैनिक अनुशासन की कार्यवाही ही नहीं करनी पड़ती । जिसका हृदय विशाल है, करुणा से जिसका अंतःकरण लबालब भरा पड़ा है, वह अपनी अंदर की बेचैनी बिखेरे बिना, अनेकों को उसका अनुदान दिये बिना चैन से कभी बैठ ही नहीं सकता। यह सारी प्रक्रिया हम परम पूज्य गुरुदेव एवं परम वंदनीया माताजी के जीवन क्रम से रूप में देखते हैं।
देवसंस्कृति दिग्विजय के निमित्त अश्वमेधी पराक्रम का निकली चतुरंगिणी सेना के अगणित सैनिक आज लोगों को ग्राम प्रदक्षिणा करते, ग्रामतीर्थ की स्थापनाएं रजवन्दन समारोह तथा संस्कार समारोह संपन्न करते दिखाई देते हैं, गायत्री एवं यज्ञ के माध्यम से जन-जन को युग परिवर्तन की प्रक्रिया समझाते दिखाई पड़ते हैं। प्रायः तीन करोड़ से अधिक व्यक्ति प्रत्यक्षतः तथा इनसे भी दस गुना अधिक परोक्ष रूप से जुड़े दिखाई देते हैं जिसमें “हम बदलेंगे-युग बदलेगा” का उद्घोष साकार होता दीख पड़ता है। इस विशाल वट वृक्ष का, जो अगले दिनों एक-डेढ़ दशक में ही अपने साये में सारे विश्व को लेगा, देखने के पूर्व उस बीज की महत्ता को समझना होगा जो आज से साठ वर्ष पूर्व गला व जिसने अपनी सारी महत्वाकाँक्षाओं को निज की मुक्ति, व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति, सिद्धि या सफलताओं के शिखर की उपलब्धि के बजाय समष्टि के उत्थान के निमित्त लगा दिया व उसी की परिणति के रूप में देवसंस्कृति को विश्व संस्कृति बनाता यह विराट गायत्री परिवार आज दिखाई पड़ता है।
पारस्परिक चर्चाओं व कार्यकर्ता गोष्ठी के क्रम में उच्चस्तरीय परामर्श आदि, प्रसंगों में पूज्यवर बताया करते थे कि “बेटो। ब्राह्मण इस धरती से समाप्त हो गया है। मुझे वही ब्राह्मण जो साधन-सुविधाओं की माँग नहीं करता बल्कि जो पास है, वह भी उसका दे देने का मन करता है।, वह भी उसका दे देने का मन करता है। बहिरंग जीवन सादा व अंतःकरण कुबेर की तरह धनी होता है। औसत भारतीय का जीवन जीता है व सदा औरों को ऊँचा उठाने की सोचता है। दुर्भाग्य आज यह है कि परिभाषा करते हैं। जब कि देखा जाय तो जाति से लोग कुछ भी हों, कर्म से आत एक ही वर्ण चारों ओर दिखाई पड़ता है- “शूद्रवर्ण”-शिश्नोदर परायण जीवन ही जिनका इष्ट है, लक्ष्य है व महत्वकाँक्षाएँ जिनकी भौतिक जगत की अनेक गुनी बढ़ती-बढ़ती सारी धरती पर औरों के लिए जीने वाले लोगों की होगी।”
जिस समय आजाद, भगतसिंह, विस्मिल, खुदीराम बोस आदि आजादी के लिए शहीद हो रहे थे, “श्रीराम मत्त” के रूप में पूज्यवर आगरा जिले के एक युवा योद्धा सैनिक की तरह उन सभी उपक्रमों में लगे थे जो उपरोक्त शहीदों द्वारा संपन्न हुए। जेलयात्रा बारबार होने से जमींदार घर की कुर्की तक की नौबत आने पर भी राष्ट्र की आजादी सर्वोपरि उन्हें दिखाई दी। जब द्वितीय सर्वोपरि उन्हें दिखाई दीं जब द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने के साथ भारत की आजादी सन्निकट दिखाई दे रही थी तब वे अपने गायत्री महापुरश्चरणों की शृंखला के साथ साथ “अखण्ड-ज्योति’ मखिका आरंभ कर बापू के निर्देशों एवं अपनी अदृश्य शरीरधारी गुरुसत्ता के सतत् मार्गदर्शन के अनुरूप एक ऐसे परिवार के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ कर रहे थे जिसे स्वतंत्र भारत को इक्कीसवीं सदी के शुभारंभ से अंत तक ले जाने का महत्ती जिम्मेदारी वाला काम करना था। इसके लिए उनने जमींदारी का वैभव त्याग, स्वयं के साधनात्मक पराक्रम द्वारा, मुक्ति, सिद्धि की लक्ष्य सिद्धि को गौण एवं औरों के कष्टों में सहभागिता को वरीयता देकर स्वल्प साधनों में भी एक ऐसी संस्था के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ कर दी, जिसका आदि से अंत तक का इतिहास त्याग आदि से अंत तक का इतिहास त्याग व बलिदान, संवेदना व समर्पण का इतिहास है।
अपने संस्मरणों को सुनाते हुए पूज्यवर अकसर कहा करते थे कि “बेटो। यह गरीबी हमने जान बूझकर ओढ़ी है। एवं तुम से ओढ़ने को कहा है क्योंकि यही युगधर्म है। तुम्हारे पास है साधन तो उन्हें औरों को बाँट दो। रहो ब्राह्मण की तरह । यह संस्था जो हमने बनायी है, एक नमूना है कि अगले दिनों का मानव समाज कैसा हो सकता है, यह अगले दिनों लोग यही आजाद व भगतसिंह ने किस तरह तत्कालीन समाज के गिने-चुने युवा लोगों में अपनी करुणा उड़ेलकर निज को बलिदान करने के लिए प्रेरित कर दिया। “यदि वे सभी-विस्मित, चंद्रशेखर आजाद या भगतसिंह आज के नेताओं की तरह विलासिता की जिंदगी जी रहे होते तो क्या प्रेरणा के स्त्रोत बन सके होते? स्वयं आगे आकर उनने उदाहरण प्रस्तुत न किया होता तो क्या देश की आजादी के लिए वह वातावरण बन सका होता जिसने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर दिया। थिगली लगी धोती पहनने वाले सरदार पटेल व आधी धोती पहनने वाले गाँधी जो जनता की दी गयी एक-एक पाई का हिसाब रखते थे, न होते तो क्या “क्विट इण्डिया” आँदोलन सार्थक बना होता।” आँदोलन सार्थक बना होता।” अन्यान्य संगठनों में बहुधा वे संवेदना का मर्मस्पर्शी विस्तार करने वाले उन तंत्रों का हवाला देते थे, जिनसे महामानव उपजे। प्रेम महाविद्यालय जिसने लालबहादुर शास्त्री, श्रीकृष्ण दास जाजू, श्रीसंपूर्णनंद जैसी व्यक्ति समाज को दिए, श्रीसंपूर्णानंद जैसे व्यक्ति समाज को दिए, केशव बलीनराप हेडगेवर जिनने श्री गोलवलकर तथा भाऊसाहब देवरस जैसे त्यागी तपस्वी समाज को दिए, डा. बाबासाहब अम्बेडकर जिनके माध्यम से पिछड़ों-दलितों को ऊँचा उठाने की एक मुहित समाज में बनी। कि यदि इन सभी ने निज के ब्राह्मणत्व को बनाए रखा होता तो वह सब न कर पाते जो व अंततःकर पाए।
आज की राजनीति की समीक्षा करते हुए पूज्यवर कभी-कभी कटाक्ष की भाषा में इनकी संज्ञा केकड़ा-वृत्ति से देते थे। एक कथा कभी-कभी वे हम सभी को गोष्ठियों में संगठन वृत्ति कैसे बनी रह सकती है। व कैसे टूटती है, इसका स्पष्टीकरण देते हुए सुते थे-बोलते थे-”एक व्यक्ति दूर से देख रहा था कि बिना ढँके तो ये सब निकल कर रेंगते हुए बाहर चले जायेंगे । चह उसकी मदद को आया व कहने लगा कि “इन्हें ढक दो, कहीं ये निकल कर बाहर न चलें दो, कहीं ये निकल कर बाहर न चलें जायँ। केकड़ों का व्यापारी बोला-”आप निश्चित रहें । इन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूँ। “उसकी उत्कंठा का समाधान करते हुए उसने बताया कि “एक भी केकड़ा इस पूरे समूह में से जा निकलने की कोशिश करता है तो चार केकड़े मिलकर उसकी टाँग खींच लेते हैं कि यह कैसे ऊपर जा रहा है। जब सभी की यह मनोवृत्ति हो तो कोई बाहर कैसे आ सकता है? अतः आप निश्चित रहें।”
कहानी का सार समझते हुए पूज्यवर कहते कि आज की कीच से भरी राजनीति में इन्हीं केकड़ों का समुच्चय है। इस ऐसे समाज के निर्माण की परिकल्पना कर रहे हैं जिसमें वरिष्ठता हो, न कि कुटिलता निरहंकारिता विनम्रता हो, न कि कुटिलता-दांव−पेंच कूटनीति। आज की जोड़-तोड़ की राजनीति के विषय में वे बहुत पूर्व लिखा चुके थे कि धर्म तंत्र का काम सशक्त समर्थ प्रजातंत्र का निर्माण लोकशिक्षण के माध्यम से करना है। यदि व्यक्ति सही बन सका तो निश्चित ही समाज व उसके मूर्द्धन्य-कर्णधार भी सही होंगे उसके लिए इकाई को ही ठीक करना होगा। इसी को उनने मानव निर्माण अभियान-युगनिर्माण अभियान “मेनमोकिग ओडीसी” नाम दिया जो व्यक्ति के अंदर के ब्राह्मणत्व के जागरण के माध्यम से चलना था।
कैसे कार्यकर्ता वे चाहते थे वह कैसा आदर्श सृजन तंत्र के एक सिपाही का होना चाहिए, इसका एक नमूना वह परिपत्र है जो पूज्यवर ने “अध्यात्म क्षेत्र की परिष्टता विनम्रता पर निर्भर “नाम से समस्त विनम्रता पर निर्भर “ सेवाधर्म के साथ शालीनता को निस्पृह एवं विनम्र होना चाहिए इसी में उसकी गरिमा एवं उज्ज्वल भविष्य की संभावना है। जो बड़प्पन लूटने, साथियों की तुलना में अधिक चमकने-उछलने का प्रयत्न करेंगे, वे औंधे मुँह गिरने और अपने दांतों को तोड़ लेंगे।”“......संस्थाओं के विघटन में पदलोलुपता ही प्रधान कारण रही है” “.............. युगशिल्पियों को समय रहते इस खतरे से बचना चाहिए। हममें से एक भी लोकेषणा-ग्रस्त बड़प्पन का महत्वाकाँक्षी ना बनने पाए। ..... स्मरण रहे अधिक वरिष्ठ व्यक्ति अधिक विनम्र होते हैं। फलों से डालियाँ लद जाने पर आम का वृक्ष धरती की ओर झुकने लगता है।,,....
..शांतिकुंज के हर कार्यकर्ता को सफाई और पहरेदारी का काम अपने हाथों करना पड़ता है। यहाँ कोई मेहतर नहीं है। नेतागिरी के लिए विग्रह खड़ा करने वाले क्षेत्र दूसरे हो सकते हैं, पर सेवाधर्म में इस प्रकार की लिप्सा का थोड़ा प्रदर्शन भी असहनीय है। पदवी पाने के लिए विग्रह करने वालों के लिए स्वयंसेवी संगठनों में कोई स्थान नहीं होता। .... युगशिल्पी एक महान मिशन का अंग अवयव होने के कारण ही सम्मान पाते और उच्चस्तरीय व्यक्तित्व का श्रेय पाते हैं। उन्हें सार्वजनिक प्रयोगों में मैं...मैं शब्द का उपयोग ना करके .... हम हम लोग कहना चाहिए। श्रेय तो सभी के सम्मिलित प्रयत्नों से बन पड़ा है, इसलिए उसके किये जाने में सभी के मिले-जुले प्रयत्नों के संकेत रहने चाहिए। साथियों को स्नेह-दुलार, सहयोग देने में हम सदा अग्रणी रहें।,,
इस परिपत्र के ऊपर अद्भुत एक-एक वाक्य कुँजी है किसी संगठन की सफलता का। यदि आज जातीय सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक संगठन असफल हैं तो इसी कारण। महाभारत की वेदव्यास की उक्ति... बहव यत्र नेतार, बहव मानकाँक्षिण... सदल अवसदित। आज सामूहिक आत्मघात के रूप में दिखाई देती है तो इसका मूल कारण वही है कि बड़प्पन की महत्वाकांक्षा लिप्सा ने उस ब्राह्मण बीज को समाप्त कर दिया है जो कभी जन नेतृत्व करता था। उस चाणक्य समर्थ रामदास तथा रामकृष्ण परमहंस श्री अरविंद के पुनर्जीवित संस्करण के रूप में हम आज मार्गदर्शन तंत्र के रूप में गायत्री परिवार के अधिष्ठाता को देखते हैं।भले ही देखने को उनका स्थूल शरीर हमारे बीच न हो, उनकी सूक्ष्मसत्ता ही इतनी सक्रियता से, परम वन्दनीया माता जी के माध्यम से अपने विराट संगठन को पोषण देती, साहित्य रूपी एक विशाल विधि व उनके जीवन की जी गयी एक-एक अनमोल घड़ी के रूप में नज़र आती है।
संवेदना जब आत्मोत्सर्ग की बलिदान की अहं को छोड़ कर समष्टि के हित की जाग जाती है तो व्यापक हो जाती है। ऐसा व्यक्ति चाहे वह आदि शंकराचार्य हो या विवेकानंद जागने पर चुपचाप नहीं बैठ सकता, वह विश्व स्तर पर साँस्कृतिक नवोन्मेष की प्रक्रिया को सम्पन्न करने आगे बढ़ता चलता है। जो भी अपने पास है, वह भी देते रहने को सदा उसका मन करता है। जिसके भीतर महा रुद्र ताँडव कर रहा हो, वह धरती का सारा ज़हर पिये बिना शांति से बैठा कैसे रह सकता है? ऐसे सतत् संवेदनशील बेचैन व्यक्ति ही संगठन बन पाते हैं। ऐसी जाग्रत संवेदना जिसने एक विराट प्रजा परिवार बना दिया तथा जिसकी फैली हुई शाखाओं के साये में आने वाले दिनों में सारी विश्व वसुधा को बैठना है, हमारे आराध्य पूज्य गुरुदेव ने अपने एवं परम वन्दनीया माता जी के माध्यम से पैदा की, एक सुरक्षित तंत्र विकसित कर समर्पित स्वयं सेवकों की प्रतिभाओं का सुनियोजित-सुगठित रूप सबके समक्ष प्रस्तुत किया। यही निश्चित रूप से नवयुग का आधार विनिर्मित करेगा, इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है।