Magazine - Year 1994 - Version 2
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Language: HINDI
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कुल्लू के रघुनाथ
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कुल्लू नरेश का शरीर युवावस्था में ही गलित कुष्ठ से विकृत हो गया था। पर्वतीय एवं दूरस्थ प्रदेशों के चिकित्सक व्याधि से पराजित होकर विफल मनोरथ लौट चुके थे। क्वाथ स्नान, चूर्ण भस्म, रस रसायन कुछ भी तो नहीं कर सका।
नरेश न उच्छृंखल थे, न भोग परायण। उनके पूर्व पुरुषों ने कुलाँत क्षेत्र के दिव्य त्रिकोण (व्यास नदी के उद्गम, पार्वती नदी के उद्गम और दोनों के संगम स्थल की मध्य भूमि) को भगवान उमा, महेश्वर की विहार अपवित्र करना उचित नहीं समझ। मनुष्य रहेगा, तो उसके साथ उसके प्रमाद, त्रुटियां भी रहेंगी। ही। अतः उन्होंने व्यास के दक्षिण तट पर अपनी राजधानी बनायी, जो आज कुल्लू कही जाती। यों इस त्रिकोण में उनके बंशाधरों ने पीछे एक निवास बना लिया था नगर में और वही आज पुरानी राजधानी के नाम से जाना जाता है।
इतने भाव प्रवण कुल में जिनका जन्म हुआ, उनके रक्त में वासना की वृद्धि के लिए आहार कहाँ से मिलता । नरेश बचपन से अत्यन्त श्रद्धालु थे और श्री रघुनाथ जी के उपासक थे। शरीर में रोग के लक्षण प्रकट होते ही चिकित्सा के साथ पंडितों के अनुष्ठान प्रारंभ हो गए थे।
प्रारब्ध प्रबल होता है, तब पुरुषार्थ सहज सफल नहीं होता। वर्षा की उमड़ती नदी में बाँध बनाने के प्रयत्न सफल हो, असीम शक्ति और साधन की अपेक्षा है। ग्रह शांति,देवाराधन और चिकित्सा के प्रयत्न प्रारब्ध को रोक नहीं सके थे। नरेश के स्वागत में कुष्ठ फूल पड़ा था।
‘यह घृणित रोग’ नरेश को देह का मोह नहीं रहा था किन्तु उन्हें आंतरिक व्यथा था कि अब न वे सत्पुरुषों-संतों के चरणों पर मस्तक रखने योग्य रहे और न कथा सत्संग में बैठने योग्य है। किसी तीर्थ में पुण्य क्षेत्र में कैसे जाया जा सकता है? अपने रोग का संस्पर्श दूसरों को प्राप्त हो, बड़ी सावधानी से नरेश इसे बचाते थे। पत्नी तक को उन्होंने पद वंदना से वंचित कर दिया था। उस साध्वी को भी अपने आराध्य की आज्ञा स्वीकार करके दूर से ही दर्शन करना पड़ता था।
“यह संस्पर्श से फैलने वाला संक्रामक रोग है। किसी भी पावन तीर्थ में यह भाग्यहीन अब स्नान के योग्य नहीं रहा।” महाराज अत्यंत दुःखित रहने लगे थे।” किसी मंदिर में प्रवेश का अधिकार नहीं रहा मुझे। पतितपावन प्रभु भी रूठ गए मुझसे”
टंत में राजपुरोहित ने नरेश को मणि कर्ण में निवास की संपत्ति दी। मणि कर्ण क्षेत्र का गंधक मिश्रित जल संभव कर्ण क्षेत्र का गंधक मिश्रित जल संभव है नरेश के रोग को दूर कर सके। कर्ण क्षेत्र का गंधक मिश्रित जल संभव है नरेश के रोग को दूर कर सके। राजपुरोहित की वह आशा सर्वथा पर बहुत है भारत में भी बहुत हैं, किन्तु प्रायः सर्वत्र उनमें एक गंध है और वे स्वाद में कषाय न भी हों, परन्तु स्वादिष्ट नहीं है। मणिकर्ण के क्षेत्र में खौलने जल स्त्रोत का विस्तार मीलों में है। लगभग पूरा मणिकर्ण ग्राम घर-घर में इस जल को अपने कुण्डों में रोक कर उससे भोजन सिद्ध कर लेता। जल गंध रहित था, स्वादिष्ट भी। आज भी अनेक रोग- विशेष रूप में चर्मरोग उससे दूर होते हैं।
नरेश ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उनकी दृष्टि दूसरी थी। शरीर जाता ही हो तो उमा-महेश्वर की गोद में जाय। भगवती हिमवान् सुता का साक्षात् भौतिक रूप है- पार्वती नदी और उनकी धारा को अंकमाल देने चलने वाला खैलता ऊष्णोदक स्रोत साक्षात् का प्राकट्य तो शम्भु-उमा को कोड़ा में हुआ है। वहाँ कहीं भी स्नान किया जा सकेगा, मुख्य स्थल से कुछ नीचे हटकर । जन संपर्क का प्रश्न ही वहाँ नहीं उठता।
राज्य का भार वैसे भी अब मंत्रियों पर था। आज के समान भुन्तर के समीप व्यास पर सेतु नहीं था। रस्सियों को बाँधकर किसी प्रकार पर्वतीय जन व्यास को पार करते थे। नरेश के लिए कुछ अच्छा सेतु बना। व्यास-पार्वती के संगम में स्नान करके वहाँ से दस कोस ऊपर मणिकर्ण गाँव को कोई अस्तित्व नहीं था। केवल पर्व के समय वहाँ कुछ लोग आ जाते थे।
“इस क्षेत्र में पाण्डु-पुत्रों” ने निवास किया था। इसके मूर्धन्य भाग में ही अर्जुन ने तप करके चन्प्द्रमौलि की आराधना की और अपने पराक्रम से उनको संतुष्ट किया । भगवान गंगाधर अर्जुन पर कृपा करने के लिए यहाँ किरात वेश में विचरण कर चुके हैं। जगंबा पार्वती के शवरकन्या के रूप में श्री चरण यहाँ पड़े हैं। यह विवरण सुन नरेश इस क्षेत्र की विशेषता जान अपने रोग को अपनी व्यथा को भूल गए। वे शिखर को प्रणिपात करते, ऊष्णोदक में स्नान करते और प्रायः भाव विह्वल रहते।
“श्री राम जय राम जय जय राम।” जिह्वा पर यह नाम तो उनके बचपन से बसा था। अब इस क्षेत्र में आकर उन्होंने अत्र और दूध भी त्याग दिया था। उनका राज्य स्वादिष्ट फलों। का भण्डार है। किंतु उनके लिए वे फल भी अब अग्राह्य बन गए थे। वन में मिलने वाला, जंगली गोभी और कुछ ऐसे ही शाक इनको मणिकर्ण के गरम जाने में उबाल दिया जाता और दिन में एक बार नरेश उसे ग्रहण करते। आस-पास के क्षेत्रों में भी नरेश ही आते थे। तप,जप और भावना उनके देह की बाह्यावस्था कुछ भी हो, उनका हृदय इलावर्त शिखर पर जमे हिम के समान उज्ज्वल हो गया था।
सहसा एक दिन राजधानी में संदेश आया कि नरेश लौट रहे है। राजसदन सजाया गया। प्रजा प्रसन्न हुई। उनके प्रजा प्रसन्न हुई। उनके प्रजा वत्सल नरेश रोगी ही सही, उनके मध्य में तो रहेंगे।
“गगनचुंबी हिम गौराकृति पर्वत शिखर उन ज्योतिर्मय के घुटनों का चन्द्र उनके भाल पर था वा क्षितिज पर किन्तु पिंगल जटाजूट का अंत दृष्टि नहीं उनके भाल पर था या क्षितिज पर किन्तु पिंगल जटाजूट का अंत दृष्टि नहीं पाती थी।” लौटकर नरेश ने एकाँत में राजगुरु को जो कुछ बतलाया, वह यहीं था-”मणिकर्ण के गरम जल वह यही था-”मणिकर्ण के गरम जल से उठती भाप स्पष्ट नहीं देखने देती थी और संध्याकाल का अंधकार भी प्रारंभ हो गया था। किन्तु लगता था हिमशीतल पार्वती की धारा से एक पाटल गौर मूर्ति उठ खड़ी हुई है और उसे वाम भाग में किये कर्पूर गौर, अमित तेजोमय भवानीनाथ स्वयं सम्मुख खड़े हैं।”
गदगद कण्ठ अश्रु झरते नयन नरेश कह रहे थे-”प्रभु की मूर्ति, लगता था क्षण में प्रकट होती, फिर अदृश्य हो जाती । उन्होंने मुझे आदेश दिया-’अयोध्या से अपने श्री रघुनाथ जी की ले आ। उनका स्मानोदक लेकर स्नान कर’ तेरा शरीर स्वस्थ हो जायगा।”
नरेश ने बताया कि रात्रि में उन्होंने स्वप्न में अयोध्या की वह छोटी सी श्री रघुनाथ जानकी की मूर्ति देखी है। वह स्थान देखा है। और उन मर्यादा पुरुषोत्तम ने भी इस पर्वतीय प्रान्त को अपने पदार्पण से धन्य करने को वचन दिया है।
राज पुरोहित को जैसे निधि मिल गई। मार्ग मिल गया तो लक्ष्य भी मिल गई। मार्ग मिल गया तो लक्ष्य भी मिल कर रहेगा। स्वयं राजपुरोहित ने अयोध्या जाने का निश्चय किया। सेवक, सचिव आदि सबको आदेश दे दिए गए।
यह समूह पैदल यात्रा करके अयोध्या पहुंचा। उसे निर्दिष्ट स्थल पर श्री रघुनाथ जी की उस मूर्ति के दर्शन भी ही गए। राजपुरोहित पूरे एक वर्ष अयोध्या रहे। उन्होंने प्रत्येक दिन, प्रत्येक पर्व पर जैसी जिस विधि से सेवा श्री रघुनाथ जी की होती थी, उसका सावधानी पूर्वक निरीक्षण किया और उस सबको लिखते गए।
एक वर्ष पश्चात् बनाकर एक रात्रि में राजपुरोहित के नेतृत्व में यह पर्वतीय लोगों का समूह मन्दिर से उस श्री मूर्ति को लेकर चल पड़ा। प्रातः काल जब मन्दिर में मूर्ति नहीं मिली, अयोध्या में बड़ी तीव्र हलचल हुई।
अयोध्या के लोग क्रुद्ध तो बहुत हुए किन्तु प्रतिवाद के ईंधन के स्थान पर नम्रता का जल पड़े तो क्रोधाग्नि कब तक जलती रह सकती है। सबसे अद्भुत बात यह हुई कि वह कुल तोले की मूर्ति किसी के उठाये उठती नहीं थी। सब प्रयत्न करके थक गए और अंत में अयोध्या से आए लोगों को कहना पड़ा-’जब प्रभु ही जाना चाहते हैं, तो उन्हें रोकने वाले हम कौन होते हैं?’पूरे मार्ग में विधिपूर्वक श्री रघुनाथ जी की पूजा, अर्चा होती रही। मार्ग में ही वे पर्वोत्सव मनाए गए जो उस समय पड़े।
कुल्लू में श्री रघुनाथ जी के पहुँचने से पूर्व ही उनके मंदिर को साथ श्री रघुनाथ जी कुल्लू पधारे और मंदिर में उन्हें विराजमान कराया गया। नरेश ने मंदिर विराजमान कराया गया। नरेश ने मंदिर में प्रवेश नहीं किया, किंतु श्री रघुनाथ जी पधारते समय दूर से उनकी पालकी को साष्टाँग प्रणाम कर लिया था।
उत्तम मुहूर्त में श्रीरघुनाथ जी का विधिपूर्वक महाभिषेक संपन्न हुआ। अभिषेक का जल स्वयं राजपुरोहित सेवकों द्वारा लिवाकर राजा के पास आये और उल्लसित स्वर में बोले आप चौकी पर विराजे अब आपका अभिषेक संपन्न हो।
‘आप भी ऐसी अनुचित आज्ञा देंगे, ऐसी आशा मुझे नहीं थी। नरेश दोनों हाथ जोड़कर दूर खड़े रोते-रोते कह रहे थे-’यह मेरे आराध्य के अभिषेक का परम पावन जल है। इसे क्या इस कुष्ठ से अपवित्र देह पर डाला जा सकता है? यह मेरा वंदनीय है। मैं कैसे यह कर सकता हूँ कि इसका कोई कण मेरे पैरों तक जाय?
‘राजपुरोहित को बड़ा खेद हुआ। राजा को समझा सकेंगे, ऐसी आशा उन्हें नहीं थी और नरेश को स्वस्थ देखने की भी दूसरी युक्ति सूझती नहीं। अंततः उन्हें वह अभिषेक जल लेकर लौटना पड़ा। स्वस्ति पाठ के साथ केवल कुछ जल कण वे अपने नरेश के मस्तक, पर डाल सके थे और एक कलश जल नरेश ने अपने पीने के लिए रख लिया था।
“श्री रघुनाथ जी जय॥” राजपुरोहित अभी उस कक्ष के द्वार तक पहुँचे थे कि उन्हें पीछे से नरेश की भावविह्वल अपने यजमान की संपूर्ण स्वस्थ काया को देखते रहे और तब उनके कण्ठ से अस्पष्ट गदगद स्वर निकला-’ श्रद्धा की जय। कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में आज भी अयोध्या से आया श्री रघुनाथ जी का वही विग्रह विराजमान है। देवताओं की इस घाटी के वे अध्यक्ष हैं।
विजयादशमी को घाटी के सब देवता उनका अभिवादन करने कुल्लू आते हैं। अनेकों दर्शनार्थी -पर्यटक कुल्लू के जिस प्रसिद्ध दशहरे के लिए उन दिनों वहाँ आते हैं, उसकी पृष्ठभूमि शायद बहुत से लोग जानते नहीं। यह भी रघुनाथ का लीला धाम जो है।