Magazine - Year 2000 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भाव संवेदनाओं का रसायन शास्त्र
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
भाव कर्म के मूल प्रवर्तक हैं। विषयों का बोध होने पर ही उनमें संबंध रखने वाली इच्छा उत्पन्न होती हैं। इस इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार ही अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संगठित होते हैं। इन्हीं में भावों का इंद्रधनुषी स्वरूप झलकता है। भावों के इन विविध स्वरूपों पर पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों ने गंभीर शोध-अनुसंधान किए हैं। उनके अनुसार इनका जन्म मस्तिष्क में होता है। जिसका सीधा संबंध मन से है।
हिंदी साहित्य के सुविख्यात समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भाव के स्वरूप पर अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि मन के प्रत्येक आवेग को भाव नहीं कह सकते हैं। मन का वही आवेग भाव कहला सकता है, जिसमें अंतश्चेतना का स्फुरण स्पष्ट रूप में प्रतिबिंबित हो। आचार्य श्री शुक्ल ने भाव में तीन प्रधान तत्वों का होना बताया है। उनके अनुसार ये तीन तत्व बोध, अनुभूति और आवेग है। इन तीनों का मिलन-सम्मिश्रण ही भाव है। बोध के अंतर्गत विषय के स्वरूप की धारणा आती है। अनुभूति में विषय के सुखात्मक एवं दुःखात्मक पहलुओं का समावेश होता है। आवेग का तात्पर्य अंतश्चेतना की स्फुरणा और उत्तेजना से है।
आचार्य श्री शुक्ल ने अपने साहित्य भाव का बोध कुछ इस तरह कराया है-वह स्फुरण जो जीवन में प्रकृति या संस्कार के रूप में अंतर्प्रज्ञा में रहता है। जीवन की सहज प्रवृत्ति होने के कारण यह मनोविज्ञान के अध्ययन की विषयवस्तु है। यह तत्व विषयबोध के रूप में अंतर्चेतना में रहता है। साहित्य में इसका संबंध काव्य-शास्त्र और रस-सिद्धाँत से है। इसका वह स्वरूप जो मनुष्य के आचरण में अभिव्यक्त होता है और बाहर देखा जा सकता है, नीतिशास्त्र से संबंधित है।
विशेषज्ञों का मत है कि भाव मन की सूक्ष्म तरंगें है। अतः इनका वर्गीकरण बड़ा कठिन और जटिल कार्य है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, भाव दशा के अंतर्गत आने वाली भाव की विविधता को मनोविकार कहा जाता है। यहाँ विकार का अर्थ किसी विकृति से नहीं वरन् स्थिति-परिवर्तन से है। सामान्यतया भाव तीन तरह के होते हैं, प्रवृत्ति, प्रवृत्ति-निवृत्ति एवं निवृत्ति। प्रवृत्ति के अंतर्गत सुख के भाव आते हैं। श्रद्धा, भक्ति, उत्साह, करुणा, लज्जा आदि प्रवृत्ति भाव है। इसके अलावा इसके संचारी भाव गर्व, हर्ष, आशा, संतोष, चपलता, मृदुलता, धैर्य आदि हैं।
प्रवृत्ति और निवृत्ति में उभयपक्ष अर्थात् सुख और दुख का मिश्रण होता है। लोभ और प्रीति इसके श्रेष्ठ उदाहरण है। इसके संचारी भाव आवेग, स्मृति, विस्मृति, दैन्य, जड़ता, स्वप्न, चित्त की चंचलता आदि है। निवृत्ति भाव केवल दुःखपरक होता है। अमर्ष, कष्ट, विषाद, शंका, चिंता, निराशा, उग्रता, मोह, उन्माद, असंतोष ग्लानि आदि इसके संचारी भाव है। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भाव भी होते हैं, जो इस वर्गीकरण के अंतर्गत नहीं आते हैं। इन्हें उदासीन भाव कहते हैं। वितर्क, मति, निद्रा आदि उदासीन भाव कहलाते हैं।
संचारी भाव के अंतर्गत मानसिक हलचलें और आवेग ही नहीं बल्कि शारीरिक और मानसिक अवस्थाएँ तथा अंतःकरण की वृत्तियाँ भी आ जाती है। जो भाव जाग्रत् और सक्रिय होते हैं तथा जिन्हें शारीरिक क्रियाकलापों में देखा जाता है, उन्हें उद्वेग कहते हैं। ‘इमोशन’ में भाव और उद्वेग दोनों का ही समावेश माना गया है। पाश्चात्य दार्शनिक स्पिनोजा कहते हैं, उद्वेग से मेरा अभिप्राय जीवन की ऐसी तरंगों से है, जिनसे शरीर की क्रियाशक्ति बढ़ती या घटती है, सहायता पाती या रुकती है।
स्पिनोजा ने उद्वेग के तीन मौलिक रूप माने है- सुख, दुख और द्वंद्व। इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट करने के लिए इनके 47 विभाजन भी किए गए हैं। इच्छा, सुख, दुख, आश्चर्य, घृणा, प्रेम, द्वेष, झुकाव या रुझान, विमुखता, भक्ति, आशा, भय, विश्वास, निराशा, आनंद, मायूसी, दया, प्रशंसा, पक्षपात, तिरस्कार, ईर्ष्या, सहानुभूति, संतुष्टि, दीनता, पश्चाताप, अभिमान, अभिलाषा, कृतज्ञता, परोपकार, क्रोध, बदला, निर्दयता, कायरता, साहस, भीरुता, व्याकुलता, विनयशीलता, लालसा, चटकोरापन, मरमत्तता, लोभ और कामवासना।
भावों का क्षेत्र बड़ा विस्तृत एवं व्यापक है। हाँफस्ट्रा विश्वविद्यालय के मनोविद राबर्ट प्लूटीक ने इन्हें मुख्यतः आठ प्रकार का माना है। ये हैं, दुख, उदासी, क्रोध, अपेक्षा, हर्ष, ग्रहणशीलता, भय और विश्वास। शेष भाव इन्हीं के मिश्रण से बनते हैं। प्लूटीक के अनुसार, भय और विस्मय के मिलने पर चौकन्ना होने या सजग होने का भाव पैदा होता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, इमोशन का उद्गम स्थल मस्तिष्क है। आज से तीन दशक पूर्व मस्तिष्क के एक भाग न्यूरोसेंट्रिक को इमोशन का उद्गम केंद्र माना जाता था, जबकि आधुनिक अन्वेषणकर्ताओं ने इमोशन का वास्तविक केंद्र लिंबिक मस्तिष्क को माना है। इस केंद्र के मुख्य भाग हैं, अमाइगल हिप्पोकैंपस तथा लिंबिक कॉर्टेक्स। सन् 1920 ई. में वाइडर पेनफील्ड ने लिंबिक कॉर्टेक्स के ऊपरी भाग पर स्थित अमाइगल से इमोशन की तरंगों की झलक देखी थी। यहाँ विद्युत तरंग प्रवाहित करने पर उदासी, क्रोध, हर्ष, स्मृति जैसे विविध भाव जन्मे।
इस अनुसंधान को वर्तमान स्वरूप पाल मैथलीन ने दिया। उन्होंने इसे लिंबिक सिस्टम से जोड़कर देखा। वैज्ञानिक क्षेत्र में इसे अत्यंत आधुनिक शोध के रूप में जाना गया। अब तो लिंबिक सिस्टम को ही इसका केंद्र माना जा रहा है। इसके पूर्व वैज्ञानिकों के लिए इमोशन बड़ा पेचीदा सवाल था। पहले कुछ वैज्ञानिकों ने शरीर के कुछ विशिष्ट स्थानों को भावोद्वेग का केंद्र माना था। इस परिकल्पना के पीछे हृदय की धड़कन, मांसपेशियों का खिंचाव, शरीर में झुरझुरी पैदा होने जैसी प्रतिक्रियाएँ निहित थी। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि भाव शरीर में मांसपेशियों आदि में कार्बनिक परिवर्तन का मुख्य कारण है। शरीर क्रिया विज्ञानी वाल्टर केनन ने ‘विण्डम ऑफ द बॉडी’ में उपर्युक्त तथ्य को इस तरह से प्रतिपादित किया है कि हाइपोथैलेमस से उत्पन्न भव ही शरीर में प्रतिबिंबित होते हैं।
वाल्टर केनन के अनुसार, हाइपोथैलेमस ही भावों का केंद्र है। हाइपोथैलेमस और शरीर के बीच तंत्रिकीय संबंध होता है। डॉ. जेम्स का विसरल इमोशनल सिद्धाँत भी लगभग इस तथ्य को पुष्ट करता है। सुविख्यात चिकित्साविज्ञानी डॉ. एल्मर ग्रीन का मत है कि प्रत्येक शारीरिक और मानसिक परिवर्तन चेतन या अचेतन रूप से एक-दूसरे को अवश्य ही प्रभावित करते हैं। मस्तिष्क के केंद्र में उठा भाव शरीर में अवश्य ही संचरित होता है और शरीर को प्राप्त सुख या दुख मन को भी अवश्य ही प्रभावित करता है।
आज से तीन दशक पहले भावनात्मक अनुसंधान के क्षेत्र में एक और कड़ी जुड़ी न्यूरोट्राँसमीटर्स का आविष्कार हुआ। इसके बाद से ही भावनाओं को न्यूरोट्राँसमीटर से जोड़कर देखा जाने लगा। विज्ञानवेत्ता आरपीड कार्लसन और स्वीडीफ के समन्वित प्रयास से नारएपीनेफ्रीन की खोज हुई। मस्तिष्क के पिछले हिस्से में एक छोटी-सी दानेनुमा रचना होती है। इसे लोकस कोरेलियस कहते हैं। इसी से नाँरइपीनेफ्रन स्रवित होता है। मनोविज्ञानी लैरी स्टीन एवं वीथ लैब ने इस भाग को आनंद एवं हर्ष का केंद्र माना है। उनके अनुसार यहीं से आनंद की हिलोरें उठती हैं। विज्ञानवेत्ता माइकेल हर्फमैन का मत इससे थोड़ा भिन्न है। उनका कहना है कि न्यूरान में पेप्टाइड का संचार मा. दो प्रतिशत होता है, जबकि पेप्टाइड समूचे शरीर में पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि भावों की उत्पत्ति एवं संचार के लिए ये न्यूरोपेप्टाइड काफी हद तक जिम्मेदार होते हैं। शरीर में भावों का संचार न्यूरोमीटर, पेप्टाइड, हार्मोन तथा प्रोटीन कारकों के मध्य से होता है। डॉ. स्मिथ के अनुसार, ये कण शरीक के भावोद्वेग वाले क्षेत्र में भावों को पहुँचाते हैं, उन्होंने इस तंत्र को पैरासिनाप्सिस तंत्र कहा है।
यह प्रामाणिक सत्य है कि मस्तिष्क शरीर का नियमन एवं संचालन करता है। मस्तिष्क इस कार्य को कुछ विशिष्ट रसायनों द्वारा संपादित करता है। इन्हें वैज्ञानिक भाषा में पेप्टाइड कहा जाता है। ये पेप्टाइड मस्तिष्क एवं शरीर के बीच भावों का आदान-प्रदान करते हैं। इस क्षेत्र में अनुसंधानरत एक महिला वैज्ञानिक रीटा वैलंटीनो ने अद्भुत कार्य किया है। पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय में कार्यरत रीटा ने पेप्टाइड को मालिक्यूल ऑफ इमोशन की संज्ञा दी है। उनके इस शोध के कारण विज्ञान जगत् में उन्हें व्यापक सराहना भी मिली।
वैज्ञानिकों के अनुसार शरीर के जिस भाग पर भावों का आवेग अनुभव किया जाता है, उस भाग को ‘सोपेटो सेंसरी’ कहते हैं। आज के मूर्द्धन्य वैज्ञानिकों ने प्राचीन वैदिक महर्षियों की पंच ज्ञानेंद्रिय कल्पना को सही ठहराया है। ये पाँच ज्ञानेंद्रियाँ चक्षु, स्पर्श, श्रवण, स्वाद एवं गंध को अनुभव करने वाले केंद्र हैं। वैज्ञानिकों के अनसार इन केंद्रों में न्यूरोपेप्टाइड काफी अधिक मात्रा में होते हैं। उन्होंने इन्हें नोडल प्वाइंट भी कहा है। एक्जान एवं डेंड्राइट्स तंत्रिकाएँ इन केंद्रों से भावों के संचार करते हैं। ये अतिसंवेदनशील क्षेत्र होते हैं। इन पाँचों इंद्रियों से भावों के अलग-अलग स्वरूपों को अनुभव किया जाता है।
भावों का शारीरिक संवेदना से गहरा संबंध है। यह क्रिया−व्यापार अचेतन में चलता रहता है। किसी विशेष परिस्थिति में इनके प्रति सचेतन भी हुआ जा सकता है। भावों के इन ‘नोडल पइंट’ के प्रभाव को बढ़ाया भी जा सकता है। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में यही पाया है कि न्यूरोपप्टाइड भाव एवं व्यवहार के मुख्य कारक है। स्मृति त्वचा के अंदर एक परत में सुरक्षित रहती है। इसे गैंगलिया कहते हैं। शरीर में भावों का संचार इन्हीं के द्वारा संभव होता है। गैंगलिया की ग्रहणशीलता को बढ़ाकर स्मृति एवं अंतरसंवेदना को काफी कुछ बढ़ाया जा सकता है।
‘मालिम्यूल्स ऑफ इमोशन’ पुस्तक की लेखिका कैंडेन बी. पर्ट का कहना है कि शाँत एवं प्रसन्न अवस्था में भाव संवेदना का स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। पर्ट कहती है कि शाँत मनःस्थिति में न्यूरोपेप्टाइड का संचार व्यवस्थित एवं नियंत्रित होता है। अतः ऐसी अवस्था में भाव एवं उद्वेग के संचारी भाव सहजता से अनुभव किए जा सकते हैं। मस्तिष्क का हिप्पोकैंपस न्यूरोपप्टाइड का नोडल प्वाइंट है। यह मन से प्रभावित होता है और इसका सीधा प्रभाव चेहरे पर पड़ता है। भाव एवं संवेदना की सूक्ष्म तरंगों की चेहरा अच्छी तरह से प्रदर्शित करता है।
कैंडने पर्ट स्पष्ट रूप से मानती हैं कि योग-साधना द्वारा न्यूरोपेप्टाइड को काफी मात्रा में बढ़ाया जा सकता है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि किसी विशेष परिस्थिति में न्यूरोपेप्टाइड बढ़ जाते हैं। अतः योग के माध्यम से न्यूरोपेप्टाइड को बढ़ा संभव है। इससे व्यक्ति की भाव-संवेदना का प्रभावित होना तय है। मन को शाँत एवं प्रसन्न रखकर जीवनयापन करते हुए भाव-संवेदना का जागरण संभव है। स्वयं को प्रसन्न रखते हुए दूसरों को प्रसन्न रखने की कामना ही इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।