Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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शिक्षण यज्ञ-कर्म के रूप में जीवन जीने के मर्म का
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विगत अंक में गीता के तृतीय अध्याय के ‘कर्मयोग’ की व्याख्या के अंतर्गत 9 से 11 तक के तीन श्लोकों के माध्यम से कर्म का मर्म यज्ञ दर्शन के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया था। भगवान का आदेश है कि कर्म न केवल कामना से मुक्त हो, वे यज्ञार्थाय ही संपन्न हों। जो इस भाव से कर्म नहीं करता, वह बंधनों में बंधित है। भगवान कहते हैं कि हम सतत् यज्ञ भाव से, भगवान को समर्पित होकर जीवन जिएँ। अहंता, वाना, तृष्णा की गाँठ को क्रमशः ढीली करते चले जाएँ, ताकि बंधन मुक्त हो सकें। यज्ञ को परमपूज्य गुरुदेव ने कहा है, “परमार्थ प्रयोजन के लिए किया गया श्रेष्ठतम कर्म।” उसी व्याख्या को दुहराते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं, कि जो हम निज के स्वार्थ के लिए करते हैं, वह हमें बंधनों में बाँधता है। “लोकोऽयं कर्मबंधनः” का मर्म यही है कि हमारे सभी कर्म पर-हितार्थ हों। यज्ञभाव का अर्थ है, समर्पण भाव से, इदं न ममः के भाव से किए गए कर्म जो वासनाओं के खय का कारण बनें। तृतीय अध्याय से चलकर आगे भी चतुर्थ अध्याय में भी होने वाली यज्ञ की यह व्याख्या बड़े विराट् व्यापक अर्थों में की जा रही है। हमारे कर्म चोग के निमित्त हों, भोग के निमित्त नहीं, इसके लिए हमें विराट् ब्रह्माँड में चल रहे यज्ञ के अर्थ को समझकर उसमें सहभागिता करनी होगी।
योगेश्वर कृष्ण यज्ञ को एक सतत् प्रवाहमान तंत्र के साथ-साथ सृष्टि के नियमित चलने का कारण भी बताते हैं। प्रजापिता ब्रह्मा की बात कहकर वे वेदाँतिक परिप्रेक्ष्य में वैदिक ब्रह्मयज्ञ की बात समझाते हैं। भगवान कहते हैं कि इस यज्ञ से तुम देवताओं को प्रसन्न करो, बदले में देवता तुम्हें समृद्धि प्रदान करेंगे। इस प्रकार परस्पर एक-दूसरे को पुष्ट करते हुए तुम परम लक्ष्य को प्राप्त होओगे। इसी की और व्याख्या वैज्ञानिक चर्चा एवं परमपूज्य गुरुदेव के चिंतन के साथ इस अंक में प्रस्तुत है।
ग्यारहवें श्लोक जिसमें योगेश्वर श्रीकृष्ण ने “परस्परं भावयंतः” की व्याख्या की है, यह बताया गया है कि एक दूसरे को आगे बढ़ाते हुए उन्नत करते हुए हमारे सभी कर्म नियोजित हों। श्लोक पूरा पुनः एक बार समझ लें,
देवन्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥
अर्थात् “तुम लोग इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को उन्नत करो और वे देवता तुम लोगों उन्नत करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक-दूसरे का उन्नत करते हुए तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे।
ये शब्द ब्रह्मा जी के मुख से कहलवाए गए हैं, एक आदेश की तरह । जब-जब भी मानव-समुदाय के द्वारा बिना अहंभाव के एवं अहं-केंद्रित कामनाओं के प्रयास किए जाते हैं तो प्राकृतिक शक्तियाँ भी, जिनसे मिलकर हमारा वातावरण बना है, उस समाज को अपना पूरा सहयोग देने लगती है। अर्थात् यज्ञीय भावना से कर्म किए जाएँ तो बाह्य वातावरण में भी चमत्कारी परिवर्तन आ जाता है। वातावरण स्वतः वैसा ही ढलता चला जाता है।
बाह्य प्राकृतिक शक्तियाँ ही देव शक्तियाँ के रूप में हमारे आसपास विद्यमान हैं। प्रसन्न होने पर बदले में वे हमारा कल्याण ही करती है। समूह रूप में एक साथ श्रेष्ठ प्रयोजन के लिए सक्रिय सारे समाज को अपनी प्रबल आकाँक्षा की पूर्ति हेतु समर्थ सहयोग व संरक्षण प्रदान करती है। यह एक दैवी विधान भी है, एक सार्वभौम सत्य भी एवं वैज्ञानिक तथ्य भी। वस्तुतः प्रकृति के समस्त कर्मों, यज्ञ और तप के भोक्ता सभी भूतों में संव्याप्त महेश्वर श्री भगवान ही हैं (भोक्तारं यज्ञतपसाँ सर्वभूतमहेश्वरम्) और यही भगवान नित्य यज्ञ में प्रतिष्ठित भी हैं। इन भगवान को जानना-समझना ही सच्चा वैदिक ज्ञान है। वहीं ज्ञान कराने के लिए श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को यज्ञ की व्याख्या आत्मसात करा रहे हैं। इन भगवान को देवशक्तियों व मानव के बीच होते रहने वाले पारस्परिक व्यवहार के रूप में भी जान सकते हैं, ग्यारहवें श्लोक में यही बात भगवान ने समझाई है। बार-बार वे कर्म का विधान समझा रहे हैं कि जीवन और कर्मों का सार तत्व या को ही जानकर मानव संतुष्ट हो, यज्ञावशिष्ट को पाकर ही परितृप्त हो। जो इस विधान के विरुद्ध चलता है और अपने वैयक्तिक स्वार्थ की सिद्धि के लिए ही कर्म करता है, भोग करता है, वह व्यर्थ ही जीता है।
प्रतीकात्मक रूप में भगवान यह समझा रहे हैं कि यज्ञ तीनों लोकों में विद्यमान देवताओं के माध्यम से अंततः परमात्मा को ही प्रसन्नता पहुँचाता है। भूः लोक-पृथ्वी लोक, भुवः लोक -देवलोक एवं स्वर्ग लोक-अंतरिक्ष जगत्। इसी प्रकार मानव के अंदर देखें तो शरीर भूः लोक, प्राण भुवः लोक तथा मन स्वः लोक। इस प्रकार न केवल हम अपने आसपास के वातावरण को सामंजस्य पूर्ण व अपने अनुकूल बनाते हैं, अपने व्यक्तित्व के बिखराव को रोककर व्यवस्थित बनाते हैं। कर्म अच्छे हैं, यज्ञीय भाव से हैं तो व्यक्तित्व परिष्कृत-व्यवस्थित-तनावमुक्त-आनंदमुक्त होता चला जाएगा। भगवान बार-बार कहते हैं कि अर्जुन तू युद्ध कर, यह भी यज्ञीय भाव से किया गया कर्म है। हमें भी परमपूज्य गुरुदेव ने विचार क्राँति अभियान की बागडोर थमाकर यह कह दिया कि यही आज का युगधर्म है, यज्ञभाव से किया जाने वाला कर्म है। बहिरंग के कर्मकाँडी यज्ञ से अधिक यज्ञीय जीवन जीने पर पूज्यवर ने अधिक जोर दिया व बार-बार कहा कि “इदम् न ममः” का भाव रखकर कर्म करते चलो। हमारी युगनिर्माण योजना से जुड़े सभी कार्यों को पूज्यवर ने ‘युगयज्ञ-ज्ञानयज्ञ’ जैसे नाम दिए है।
भगवान अगले श्लोकों में कहते हैं-‘यज्ञ के द्वारा बढ़ाए हुए (परिपुष्ट हुए) देवता तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिए हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिए (बाँटे) स्वयं भोगता है और उन्हें नहीं देता, वह चोर ही है। यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और जो पापी लोग अपना शरीर पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं, वे तो पाप को ही खाते हैं।”
कई व्यक्तियों के सामूहिक पुरुषार्थ के फलस्वरूप प्राप्त लाभों को कोई एक व्यक्ति हड़पने का प्रयास करे तो भगवान के अनुसार उसे सचमुच चोर ही कहना चाहिए (स्तेन एव सः) (3/12 की द्वितीय पंक्ति)। समर्पित सहकारी प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राप्त धन या सामग्री में से सभी को समान वितरण होना चाहिए, यह श्रीकृष्ण का आध्यात्मिक साम्यवाद कहता है। संभवतः इस अष्टम अवतार ने बाल्यकाल में इसी भाव के साथ ग्वाल-बालों के साथ मिलकर, सारा दूध-मक्खन राज्य के अधीश्वर को मिलना चाहिए, कंस की इस नीति के विरुद्ध सत्याग्रह किया था। एक उदाहरण प्रस्तुत किया था कि इस समाज में कोई शोषण करके जीने का अधिकार नहीं रखता। सामूहिक लाभों को हड़पने वाले को लुटेरा, पतित, हेय, घृणित ही समझना चाहिए, यह यहाँ योगेश्वर कृष्ण का मत है।
परमपूज्य गुरुदेव का सतयुगी समाज भी इसी तथ्य की व्याख्या करता है। बार-बार वे लिखते हैं कि यज्ञीय जीवन जीने वाले समाज में न कोई छोटा होगा, न बड़ा। सबको प्रकृति की समस्त शक्तियों का विवेकपूर्ण उपयोग करने का समुचित अधिकार होगा। जबर्दस्ती शोषण-भोग करने की नीति से मुक्ति तब मिलेगी, जब ऐसा मानव समुदाय प्रकृति प्रकोपों से दंडित होगा। नवंबर 1988 की अखण्ड ज्योति, जिसमें युगसंधि महापुरश्चरण की घोषणा की गई थी, में पूज्यवर लिखते हैं कि “नवयुग की, इक्कीसवीं सदी की संपूर्ण व्यवस्था एकता और समता के सिद्धाँतों पर निर्धारित होगी, हर क्षेत्र में हर प्रसंग में, उन्हीं का बोलबाला दृष्टिगोचर होगा।” - “वसुधैव कुटुम्बकम् का आदर्श अब समाजवाद-समूहवाद-संगठन-एकीकरण का विधान बनकर समय के अनुरूप कार्यान्वित होगा।”
आज के उपभोक्तावाद से भरे युग में श्रीकृष्ण का आदर्श एवं परमपूज्य गुरुदेव की सतयुगी अवधारणा कितनी युगानुकूल है, इसे भली-भाँति समझा जा सकता है। योगेश्वर कृष्ण के संदेश की अवज्ञा का ही परिणाम है कि सारे विश्व में आज प्राकृतिक प्रकोपों की बाढ़ है। सभ्यता के साथ तथाकथित प्रगति की दौड़ में अंधाधुँध दौड़ते मनुष्य को भाँति-भाँति के त्रास झेलने पड़ रहे है। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खींचातानी का जो तमाशा हम आज देख रहे हैं, वह इसी का परिणाम है कि मनुष्य ने प्रकृति या में तो भागीदारी की, पर देवशक्तियों को उनका अंश नहीं दिया, सर्वतोभावेन जीवन नहीं जिया, मात्र उपभोग ही उपभोग किया। पाश्चात्य उपभोक्तावाद-वैश्वीकरण की प्रक्रिया धरती के शोषण से चालू होकर मानव के अंतराल तक पहुँच जाती है एवं ऐसे पुरुषों की संख्या बढ़ा रही है जो सुपात्र को, जिनका ‘ड्यू’ है, उन्हें दिए बिना स्वयं उपभोग कर रहे है। संवेदनाहीन निष्ठुर समाज इसी कारण पनपता है एवं वह कैसा होता है, यह आज के जमाने में आंखें खोलकर चारों ओर निगाहें दौड़ाकर अच्छी तरह देखा जा सकता है।
तेरहवाँ श्लोक जिसमें कहा गया है कि जो चोरी से खाता है, छिपाकर खाता है, ‘अतिथि देवोभव’ की उपेक्षा करके खाता है, वह चारी का अन्न खाता है, अत्याधिक गूढ़ रहस्यों वाला एवं काव्य के लालित्य का एक अनुपम उदाहरण है। कहा जाता है कि ‘यज्ञ’ कर्म से बचा अवशिष्ट सबको समान रूप से बाँट दिया जाता है। यज्ञ की प्रक्रिया में एक प्रकार से सभी कुछ बंटने के निमित्त ही होमा जाता है। हविष्य सामग्री वाष्पीकृत हो धूम्र बनकर वातावरण में बिखर जाती है। जो बचता है वह या भस्म के रूप में सभी ‘एल्केलॉइड्स’ व अन्य खनिज तत्व लिए होता है। इसमें भी बड़े गुण भरे पड़े है। या कार्य में प्रयुक्त घी का अवशिष्ट भी सभी याजकों को शरीर पर लगाने के लिए दे दिया जाता है। भस्म मस्तक (ललाट), कंठ, दाहिनी भुजा व हृदय-स्थल पर लगाई जाती है। जो भी प्रसाद चरु या अन्य मिष्ठान आदि के रूप में बचता है वह सूर्यार्घदान के बाद सभी को बाँट दिया जाता है। क्या यही कर्मकाँडपरक भाग यज्ञ है। ‘सर्वतोभावेन समर्पण?’ ही जिस कर्मकाँड का उद्देश्य है, यह क्या मात्र क्रिया तक ही सीमित रहेगी। श्रीकृष्ण कहते हैं-नहीं, वह जीवन की श्वास में समाहित रहनी चाहिए। उस गूढ़ तत्वदर्शन को समझे बिना हम “मुच्यंते सर्वकिल्बिषैः” वाले मर्म को नहीं जान पाएँगे, जिस में याजक के सभी पापों से मुक्त होने की बात कही गई है।
जब भगवान कृष्ण कहते हैं कि संत लोग यज्ञावशिष्ट ही ग्रहण करते हैं तो उनका आशय है किसी भी कर्मठ समुदाय में श्रेष्ठ-सज्जन लोग सहकारिता के भाव से जीते हुए उत्पादन कर न केवल उन्नति को प्राप्त होते हैं, बिना किसी व्यक्तिगत कामना के उसके प्रतिफल को समान रूप से बाँट भी लेते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज का ऋण सतत् चुकाते रहते हैं, अतः वे सामाजिक चोरी के अपराध से बचते हैं तथा बिना किसी अहंकेंद्रित कामना के नियत कर्मों का संपादन करते रहते हैं, तो प्रतिक्षण वासनाओं का क्षय कर जीवनमुक्ति की लक्ष्यप्राप्ति की सिद्धि भी करते हैं। ऐसा जीवन जीना हिंदू समाजवाद की नीति के अनुसार श्रेष्ठतम जीवनशैली हैं। यही भारतीय संस्कृति का आदर्श भी है।
भारतीय अध्यात्म कहता है कि भूमि हमारी माता है, हम पृथ्वी के पुत्र हैं (माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः)। ऐसी स्थिति में हम सबके सामूहिक पुरुषार्थ में ही सबका हित है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो अपनी रसोई स्वयं पकाते हैं, खा लेते हैं, वे पापी हैं और पाप का ही उपभोग करते हैं। काव्य में रूपक की पराकाष्ठा वाला यह श्लोक बड़ा ही अद्भुत अर्थ स्वयं में समाए हुए है। पूर्वार्द्ध में भगवान ने कहा कि जो यज्ञावशिष्ट बाँटकर खाते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं अर्थात् समाज के उन्नयन के निमित्त अपनी सारी क्षमताएँ लगा देने वाले सज्जन पुरुष सब प्रकार के पापों से मुक्ति पा जाते हैं। आगे वे कहते हैं, “ये पचन्त्यात्मकारणात्” जो अपने लिए ही सब कुछ करते हैं, वे वस्तुतः अपने स्वार्थपूर्ण लाभ के लिए ही सारी विधिव्यवस्था जुटाते हैं, व्यापार में प्रवृत्त होते हैं। शीर्ण स्वार्थपरता वाला जीवन जीते हैं। धन का संचय अपने ही पास करते हैं। येन-केन-प्रकारेण धन एकत्र करने में दिन-रात जुटे रहते हैं। उन्हें औरों की चिंता नहीं होती। समाज का कष्ट उन्हें जरा भी प्रभावित नहीं करता। वे सतत् दुर्वासनाओं का ही संग्रह करते रहते हैं। अंततः अशाँति, उद्विग्नता-विषाद-संक्षोभ को प्राप्त होते हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने इन्हीं को नरकीटक-नरपशु-नरपिशाच कहा है व एक ही उपदेश दिया है कि हम उस श्रेणी में जिएँ जो नरमानव से देवमानव की ओर हमें ले जाती है। कैसे ? तो फिर सूत्र वहीं है, समाजनिर्माण में, सेवाकार्य में अपनी क्षमताएँ नियोजित करना, अपनी सभी वासनाओं का क्षय करके जीवन को कलाकार की तरह जीना सीखना।
अभी तेरहवें श्लोक तक हम यज्ञीय जीवन की व्याख्या ही कुछ प्रारंभिक भूमिका के साथ समझ पाए हैं। श्रीकृष्ण भगवान ने अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचकर इस अध्याय में ‘यज्ञकर्म’ की भावपरक शिक्षा अपने शिष्य हिंदू राजकुमार अर्जुन को दी है। वेदाँत के भाव को लेकर दार्शनिक भाषा में अवतारी गुरु ने यज्ञ की अग्नि को ब्रह्माग्नि बताया है। ब्रह्माग्नि बताया है, ब्रह्म की ओर ले जाने वाली ऊर्जा जिसमें आहुति दी जाती है। यह अग्नि है आत्मज्ञान की अग्नि। आत्मार्पण रूपी यज्ञ की अग्निशिखा। इस या से बचा अवशिष्ट अर्थात् दिव्यता व अमरत्व का आनंद देने वाला सोमरस। यह दिव्य कर्म है, जिसमें हर क्रिया जो समाज व विश्व के नवनिर्माण के लिए की जा रही है, हव्य है। यज्ञावशिष्ट का भोग करने वाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं, उनका साक्षात्कार करते हैं। कितनी सुँदर व्याख्या है अर्जुन के लिए श्रीकृष्ण की। वे कहते हैं कि यज्ञ ही विश्व का विधान है, यज्ञ के बिना कुछ भी हासिल नहीं हो सकता, न इस लोक में प्रभुत्व प्राप्त हो सकता है, न परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति। यह ज्ञान अर्जुन को विशिष्ट उद्देश्यों के साथ दिया जा रहा है, क्योंकि वे ‘यज्ञ-कर्म’ के रूप में उसे जीवन जीने का मर्म सिखा रहे है।
इसी उद्देश्य से वे अगले दो श्लोकों में पते की बात बताते हैं।
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मार्त्सवगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
अर्थात् “संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वर्षा से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ की उत्पत्ति निःस्वार्थ कर्म से होती है। कर्म समुदाय को हे अर्जुन। तू वेद (ब्रह्म) से उत्पन्न जान और वेद को अविनाशी अक्षर परमात्मा से उत्पन्न। इससे प्रमाणित है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है।”
भगवान् श्रीकृष्ण एक कुशल शिक्षक की तरह अर्जुन जैसे शिष्य के लिए मंजिल-दर-मंजिल शिक्षण के नए आयाम स्थापित कर रहे हैं। स्वार्थरहित-प्रभु समर्पित कर्म अर्जुन कैसे करना सीखे, कर्मयोग के आदर्श को आत्मसात् कर किस तरह उस क्षेत्र में गति बढ़ाए, इसीलिए भगवान् को उसे यज्ञरूपी एक महान् कर्मचक्र के रूप में समग्र दिव्य-व्यवस्था को समझाना जरूरी लग रहा है। अर्जुन जैसे वैज्ञानिक चिंतन वाले नवयुवक के लिए यही रीति-नीति जरूरी है।
भगवान् कहते हैं कि जिस अन्न से संपूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति होती हैं, उससे उनका आशय है इंद्रियों द्वारा ग्रहण और उपयोग किए जाने वाले तमाम विषय पदार्थ। किसी भी समाज की जीवनी-शक्ति को बढ़ाने के लिए इन पदार्थों की जरूरत पड़ सकती है। अब यह पदार्थ उत्पन्न होते हैं वर्षा से। वर्षा से आशय जल वाली वर्षा से नहीं बल्कि प्राणपर्जन्य से है, जो कि किसी भी भौतिक पदार्थ में उसका कारण तत्व समाहित करना है। यह वर्षा स्वतः ही होती है, सूक्ष्म जगत् का वातावरण अनुकूल होने पर होती है, संभव है दिखाई भी न पड़े व ‘प्लाज्मा’ रूपी सूक्ष्म सोम तत्व के बरसने से अपना उद्देश्य पूरा कर देती है। वातावरण को मानसिक धरातल पर सही बनाना ही ‘पर्जन्य’ के बरसने की सहायक परिस्थितियाँ विनिर्मित करना है। अब यह पर्जन्य बरसता कब है ? श्रीकृष्ण कहते हैं यज्ञ से। यज्ञ ‘स्वाहा’ वाला नहीं, बिना किसी स्वार्थ के समर्पण भाव से सहकारी स्तर पर किए गए सामूहिक प्रयास से। किसी भी समुदाय में मानसिक अनुकूल वातावरण अर्थात् वर्षा तो यज्ञ जैसे निःस्वार्थ स्तर के परमार्थ के लिए किए गए श्रेष्ठतम कर्म द्वारा ही हो सकती है।
‘पर्जन्य’ के बरसने में सहायक अर्थात् मनःस्थिति के अनुकूलन में यज्ञ की अर्थात् निष्काम कर्म की आवश्यकता समझना यहाँ बहुत जरूरी हैं। तब ही हम समझ पाएँगे कि “यज्ञाद्भवतिम पर्जन्यः” से श्रीकृष्ण का आशय क्या है ? ऐसे कार्य जब समष्टि स्तर पर होते हैं तो अन्न में भी प्राण रहता है एवं उपभोग करने वाले जीवों में भी प्राण रहता है एवं उपभोग करने वाले जीवों में भी प्रचुर मात्रा में प्राण शक्ति विद्यमान होती हैं। यज्ञीय वातावरण बनता है, निःस्वार्थ किए गए समाजोत्थान के उद्देश्य से निष्पादित सामूहिक कर्म द्वारा। (यज्ञः कर्मसमुद्भवः)। यह समग्र सृष्टि का एक चक्र हुआ। इसे ही यज्ञ की उपमा देकर श्रीकृष्ण अर्जुन को समझा रहें हैं।
यज्ञ की जब हम मात्र कर्मकाँड मान लेते हैं तो उसके पीछे छिपी भावनाओं का, सृष्टि यज्ञ कर इकॉलाजिकल साइकल का अर्थ नहीं समझ पाते। यज्ञ का अर्थ है- निष्काम कर्म। यह हर किसी को, आप्तकाम पुरुष को भी करना पड़ता है। परमपूज्य गुरुदेव प्रतिदिन छह घंटे लेखनी चलाते थे। जीवन भर के पुरुषार्थ से 3200 किताबें लिखीं, अपने वजन से पाँच गुना अधिक साहित्य लिखा। क्या जरूरत थी उनके जैसे महापुरुष को लिखने की। हर आप्तकाम पुरुष को भी निःस्वार्थ कम करके एक उदाहरण जगत् के समक्ष रखना पड़ता है। जैसे श्री रामकृष्ण परमहंस को काली की पूजा करने की जरूरत पड़ी, जबकि वे परमहंस थे, उसी तरह प्रत्येक को यज्ञीय जीवन जीने की जरूरत पड़ती है। यही कर्म, यज्ञीय जीवन औरों के लिए उदाहरण बनते हैं।
हरि महाराज रामकृष्ण मिशन में एक स्वामी जी हुए हैं, जिनका नाम बाद में स्वामी तुरीयानंद जी रखा गया। बनारस में प्रवचन कर रहे थे। विदेशियों ने उनसे पूछा, “एक पंक्ति में अध्यात्म की परिभाषा बताइए।” उनने कहा, “नियमित सतत् परहितार्थाथ कर्म करो, उदाहरण बनकर जियो।” जियो तो ऐसे जियो कि तुम औरों के लिए एक मिसाल बन सको। अध्यात्म की यह परिभाषा हमारी समझ में आ जाए तो कर्म करते-करते आप्तकाम कैसे हुआ जाता है, यह भी हमें आत्मसात् हो जाएगा। जीवन के अंतिम काल तक आद्य शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद, परमपूज्य गुरुदेव जैसे महापुरुष सतत् कार्यरत रह यही उदाहरण हमारे समक्ष रख जाते हैं।
भगवान् की वाणी जो यज्ञ के विषय में प्रकट हुई है, उस यज्ञीय संस्कृति का शिक्षण दे रही है, जो भारतीय धर्म-अध्यात्म का मूल प्राण है। वे बता रहे हैं कि मनुष्य शरीर के तल पर जीने तक सीमित न रहे। कर्मकाँड तो भावनाओं की सवारी मात्र है। यज्ञ एक कर्मकाँड नहीं है, यह निःस्वार्थ कर्म का एक चक्र है, जो सतत् गतिशील है। यह कर्म कहाँ से जन्मा। श्रीकृष्ण पंद्रहवें श्लोक में कहते हैं, ब्रह्माजी, वेदों के ज्ञान से। स्वयं ब्रह्म अनंत अक्षर तत्व की सृजनात्मक शक्ति के अभिव्यक्ति स्वरूप ही तो है (ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्)। इस प्रकार निष्कर्ष निकालते हुए भगवान कहते हैं कि सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ-कर्म में सदैव प्रतिष्ठित हैं अर्थात् हर उस सामूहिक पुरुषार्थ में परमात्मा की सत्ता ही स्पष्ट उपस्थित है, जिसमें सदस्य स्वार्थ की, कामना की भावना से ऊपर उठकर यज्ञीय जीवन के भाव से, एक टीम भावना से मिल-जुलकर पुरुषार्थ करते हैं। तस्मार्त्सवगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्। सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञ में सदैव प्रतिष्ठित हैं। यह हमें भली-भाँति समझना होगा।
परमपूज्य गुरुदेव ने विचार क्राँति को अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता, एक मास्टर चाबी कहा है, जिससे वे सभी ताले खुल सकते हैं, जिनमें सुखद संभावनाओं के मणि-माणिक्य तिजोरी में बंद स्थिति में पड़े है। इस विचार क्राँति को हमने प्रतिभाओं के उभार, सद्विचारों के प्रवाह एवं युगचेतना के तद्भव से संभव होना बताया जो मानव समुदाय की ऋषिकल्प सामूहिक तपश्चर्या द्वारा होगी, ऐसा लिखा है। 12 वर्षीय युगसंधि महापुरश्चरण की महत्ता को एक विराट् यज्ञ में भागीदारी के रूप में एक विशाल टीम द्वारा किए गए सामूहिक महापुरुषार्थ के रूप में भली-भाँति समझा जा सकता है। यह महापुरश्चरण किस स्तर पर हो रहा है एवं कैसे वातावरण का अनुकूलन कर प्राणपर्जन्य के बरसने की स्थितियाँ बना रहा है, यह समझा जा सकता है। महाविनाश की स्थिति टालने व नवसृजन का कार्य करने के लिए यज्ञीय भाव से जिस कर्म को संपादित किया जाना था, उसे हमारे परिजन न केवल संपन्न कर रहे है, अपितु इस महापूर्णाहुति वर्ष में उस विराट् यज्ञ अभियान की महापूर्णाहुति भी करने जा रहे हैं। तब सतयुग की वापसी पर किसी को संदेह क्यों होना चाहिए।
सृष्टि का यह नियम है कि हर मानव को कर्मचक्र के अनुरूप ही अपने जीव की रीति-नीति बनानी चाहिए। जो ऐसा नहीं करता वह वस्तुतः व्यर्थ ही जीता है, पापमय जीवन में लिप्त होता चला जाता है। यह व्याख्या है सोलहवें श्लोक की, जिसमें कर्त्तव्यपालन की उपेक्षा के दुष्परिणाम, इंद्रिय-भोगों में लिप्त रहने वालों की दुर्गति आदि के विषय में श्रीकृष्ण का उपदेश है। यह व्याख्या व आगे के लोकसेवी का जीवन कैसा होना चाहिए-यह शिक्षण अगले अंक में।
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परमपूज्य गुरुदेव ने सर्वप्रथम विशिष्ट चेतना-संपन्न व्यक्तियों के रूप में विभूतियों का आह्वान 1966-67 में किया था, जब उन्होंने, ‘महाकाल और उसकी युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया’ शीर्षक से एक अप्रतिम ग्रंथ रचा। आज भी लगभग 160 पृष्ठों की यह पुस्तक हर अग्रदूत के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है। इस पुस्तक में पौराणिक उपाख्यानों के साथ समय की विषमता, दशावतार के रूप में निष्कलंक की भूमिका से लेकर विभूतियों की नवसृजन हेतु भागीदारी के विषय में पूज्यवर ने बड़ी भावोत्तेजक शैली में अपनी वेदना लिखी थी। उस समय का उनका विभूतियों आह्वान जिन-जिनसे था, वह वर्गीकरण आज की परिस्थितियों में भी उतना ही व्यावहारिक है, जितना कि तब था। तब दूरगामी परिस्थितियों की संभावनाओं का वर्णन था। आज तो हम साक्षात् प्रलयंकर उस घड़ी से गुजर रहे हैं, जिनमें चारों ओर त्राहि-त्राहि मची है। ऐसी परिस्थिति में उनका वही आह्वान युगानुकूल मानते हुए पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है, ताकि परिजन तृतीय चरण के समापन व चतुर्थ चरण के जुलाई से नवंबर तक की संपन्न होने वाली वेला में अपना मूल्याँकन कर सकें, सभी प्रतिभाशीलों की पहचान उन्हें ‘सृजन संकल्प विभूति कहायज्ञ’ एवं ‘विभूति ज्ञानयज्ञ’ में अपने संकल्पों के साथ सम्मिलित कर सके।
जिन सात विभूतियों को झकझोरने का, सन्मार्गगामी बनाने कार्य गुरुसत्ता ने हमें सौंपा, उनको इस प्रकार विभक्त किया जा सकता है।
भावना क्षेत्र (धर्म-अध्यात्म) 2. शिक्षा एवं साहित्य 3. कलामंच के भा स्पंदन 4. भौतिकी एवं विज्ञान का तंत्र 5. शासनतंत्र (सत्ताधारी) 6. संपदावान 7. विशिष्ट प्रतिभासंपन्न (बहुमुखी)।
तब परमपूज्य गुरुदेव ने लिखा था कि युगनिर्माण आँदोलन का प्रथम प्रयास था जनजागरण। अब अगला कदम है विभूतियों को झकझोरना, उन्हें उलझी हुई स्थिति से निकालकर जीवन अथवा मरण में से किसी एक को चुने के लिए विवश करना। आगे वे यह भी लिखते हैं कि अब तक यह अभियान भारत तक विशेषतया हिंदू वर्ग के प्रगतिशील लोगों तक सीमित रहा है। अब इसकी परिधि विश्वव्यापी बनाई जा रही है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि इसके प्रायः चार वर्ष बाद परमपूज्य गुरुदेव अपने विदेश प्रवास पर गए थे, अगणित प्रवासी भारतीयों को समत्व भरा स्पर्श देकर आए थे। वही समय था, जब हमारे यहाँ से गए पढ़े-लिखे परिजन अपने-अपने देशों में जड़ें जमाने लगे थे। मूल को संस्कारित पूज्यवर कर गए। हम सभी तो सतह से ऊपर का सारा बना-बनाया काम अब श्रेय रूप में संपन्न कर रहे है।
प्रथम विभूति
भावना क्षेत्र (धर्म एवं अध्यात्म)-
धर्म-धारणा एवं अध्यात्मिक-साधना का सारा कलेवर खड़ा ही इसलिए किया गया है कि व्यक्तित्व को उत्कृष्ट एवं गतिविधियों को आदर्श बनाया जाए। धर्म, चरित्र गठन का नाम है, तो अपनी क्षमताएँ लोकमंगल के लिए समर्पित करने की पृष्ठभूमि का नाम अध्यात्म है। भावनाएं श्रेष्ठतम हों व लोकमंगल के लिए अर्पित हो तो ही उनकी सार्थकता है।
प्रयास होना चाहिए कि सभी धर्म-संप्रदायों में परस्पर सहिष्णुता और समन्वय की प्रवृत्ति पैदा हो। वे अपने स्वरूप में रहें, पर विश्वधर्म के घटक बनकर रहें। प्रथा-परंपराओं वाले कलेवर को गौण समझें। अपनी परंपराओं में से सभी उत्कृष्ट मानवता, आदर्श साज की रचना के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़े। धर्म अध्यात्म क्षेत्र में लगी प्रचुर पूँजी जनशक्ति, भावप्रवणता व प्रभावशीलता का उपयोग सृजनात्मक हो। भावनाशील धर्मधारणा प्रधान लोग अपनी भौतिक व आत्मिक क्षमताओं का उपयोग मानव हितार्थ करें।
द्वितीय विभूति
शिक्षा एवं साहित्य का क्षेत्र -
विचारप्रक्रिया पर मानव की गरिमा टिकी है। इस जीवन-प्राण के मर्मस्थल को शिक्षा एवं साहित्य के माध्यम से ही परिष्कृत बनाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज के नवनिर्माण में शिक्षा और साहित्य की सृजनात्मकता का नियोजन होना चाहिए। भावपरिष्कार की पूरक धर्मशिक्षा, नैतिक शिक्षा, नवनिर्माण की शिक्षापद्धति का संचालन जनता के स्तर पर होना चाहिए। प्रौढ़ शिक्षापद्धति का संचालन जनता के स्तर पर होना चाहिए। प्रौढ़शिक्षा का कार्य साक्षरता विस्तार भी जनता अपने हाथ में ले। ये सरकारी स्तर पर नहीं, जनस्तर पर ही हल हो सकती है। जनस्तर के विद्यालय-अनौपचारिक विश्वविद्यालय बनें, जिनमें दृष्टिकोण परिष्कार आज की परिस्थितियों में चरित्र-निर्माण का व्यवस्थित पथ, समाज-संरचना की अगणित समस्याओं का हल, विश्व-परिवार के लिए बाध्य करने ले प्रचंड वातावरण का निर्माण करने वाले कार्य संपन्न हों। सरकार से अनुदान न माँगकर भावनात्मक स्तर पर जनता से इसकी पूर्ति की जाए। लाखों जाग्रत आत्माएं लिए शिक्षक इसके लिए खड़े किए जा सकते हैं। हर गाँव-मुहल्ले-बस्ती में लोकशिक्षण की आवश्यकता पूरी करने वाले विद्यालय खड़े हों।
साहित्यकार रचनाधर्मी लेखन करें। कवि मूर्च्छित जनता को जाग्रति में परिणत करने वाले अग्निगीत लिखें। पत्रकार अपने पत्रों में-पत्रिकाओं में रचनात्मक क्राँतिधर्मी लेखों को स्थान दें। भारत की मान्यता प्राप्त 14 एवं विश्वभर की 600 भाषाओं में यह साहित्य प्रकाशित हो। इसके लिए प्रकाशक भी इस क्षेत्र में उतरें।
तृतीय विभूति
कलामंच (लोकरंजन से लोकमंगल)-
चित्र, मूर्तियाँ, नाटक, अभिनय, संगीत, धारावाहिक, फिल्में, लोकगीत सभी इस तंत्र में आते हैं। सरल संगीत के ऐसे पाठ्यक्रम बनें, जो वर्षों में नहीं, मात्र कुछ माह में सीखे जा सकें। संगीत विद्यालय जगह-जगह खुलें। प्रचंड प्रेरणा भरे गीतों का हर नुक्कड़, हर मंच, टेलीविजन, केबल आदि पर प्रसारण हो। प्रत्येक हर्षोत्सव पर प्रत्येक गायनों-प्रेरणादायी नुक्कड़ नाटकों की ही प्रधानता हो। संगीत सम्मेलन, गोष्ठियाँ, सहगान कीर्तन, एक्शन साँग, लोकनृत्य व गायन जैसे अगणित सहगान कीर्तन बनें, लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें। प्रेरक प्रसंगों बनें, लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें। प्रेरक प्रसंगों वाले चित्र छपें, चित्र प्रदर्शनी स्थान-स्थान पर लगें। गीतों के ऑडियो कैसेट्स, सी.डी. जन-जन तक पहुँचे। प्रेरक धर्मप्रेरणा प्रधान धारावाहिक एवं फिल्में बनें।
चतुर्थ विभूति
विज्ञान तंत्र (भौतिकी)-
नूतन शोधें सृजनात्मक प्रयोजनों तक सीमित रहें। ध्वंसात्मक उपकरण जुटाने में जितने साधन खपाए जा रहें है उन्हें अभाव, शोक-संताप की निवृत्ति हेतु लगा दिया जाए। समुद्री खारा पानी मीठा बनाया जा सकता है। भूगर्भ का मीठा विशाल परिमाण में जल धरती पर लाया जा सकता है। प्रकृति के प्रकोपों से मोरचा लेने हेतु विज्ञान के साधन लगें। वाहनों को सरल व सस्ता बनाया जाए, संचार साधनों का विस्तार हो। विज्ञान अध्यात्म के साथ संगति बिठाकर सिद्ध करें कि शक्तिस्रोत चेतना संकल्पों व आत्मबल में सन्निहित है।
पंचम विभूति
शासन तंत्र (सत्ता)-
संकीर्ण राष्ट्रीयता के अपने प्रिय क्षेत्र तथा वर्ग के लोगों को लाभान्वित करने की बात छोड़कर राजतंत्र समस्त विश्व की समान रूप से सुख-शाँति की बात सोचे। वर्गभेद-वर्णभेद की जड़ें उखाड़े तथा युद्धों की भाषा में सोचना बंद कर न्याय का आधार स्वीकार करें। सरकारें अनीति, शोषण, अपराध, रिश्वत, भ्रष्टाचार के वास्तविक शत्रु से जूझे। अपने सरकारी कर्मचारियों में, सत्ता-संचालकों में घुसी अनैतिकता व स्वार्थपरता को जड़-मूल से उखाड़ फेंकें व बेकारी, बीमारी, गरीबी दूर करने की दिशा में योजनाएँ बनाएँ। मतदाता अपने दायित्व समझें कि सुयोग्य प्रतिनिधि चुने जा सकें।
षष्ठ विभूति
संपदावान-
सर्वोपरि मान्यता इन दिनों पूँजी को मिली है। संग्रहित पूँजी को लोकमंगल के लिए लगाने की दूरदर्शिता धनपति दिखाएँ। संग्रहवाद-अमीरी के दिन लद गए, अब जमाना एकता व समता का है, यह समझाया जाए। जनसाधारण की बचत पूँजी (अंशदान) तथा पूँजीपतियों की धन-संपदा युगपरिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने हेतु नियोजित हो। पूँजी की सुरक्षा के साथ-साथ लाभाँश की सुनिश्चितता समझाई जा सके, तो व्यवसायबुद्धि से संपन्न अगणित व्यक्ति विचारक्राँति अभियान में उल्लेखनीय सहयोग दे सकते हैं।