Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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विज्ञापनों के जरिए उजड़ता स्वास्थ्य-सौंदर्य
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स्वास्थ्य, सौंदर्य और व्यक्तित्व को आकर्षक बनाने के लिए प्रचुर साधन इन दिनों उपलब्ध है। बाजार विविध उत्पादनों से भरे पड़े है। पच्चीस-तीस साल पहले जितनी तरह की साबुन, उबटन, शृंगार आदि मिलते थे, उसे सौ गुना ज्यादा चीजें इन दिनों बाजार में भरी पड़ी हैं, लेकिन स्वास्थ्य, सौंदर्य और सुगढ़ता की दृष्टि से औसत स्थिति पिछड़ी ही है। बीमारियों के नए-नए इलाज इन दिनों खोज लिए गए हैं, लेकिन नई-नई तरह की बीमारियाँ लोगों को अपना शिकार बनाने लगी है। सौंदर्य संवारने के लिए साबुन, तेल, सुगंधित पदार्थ, विटामिन, शैंपू आदि उपलब्ध हैं, लेकिन स्वास्थ्य जिस तरह लड़खड़ाया है, उससे सारे उपाय बाहरी चमक ही दर्शाते हैं। जर्जर काया और चुकती जा रही जीवनी-शक्ति के कारण व्यक्तित्व खोखला ही होता चला जा रहा है।
बाजार में उपलब्ध साधनों और लोकजीवन में उनके प्रभाव-परिणामों का अध्ययन करने पर विचित्र विरोधाभास सामने आया है। एक सर्वेक्षण के अनुसार इन दिनाँक साठ से ज्यादा सौंदर्यवर्द्धक साबुन मिलते हैं। सभी की गुणवत्ता और संरचना के बारे में बढ़ चढ़कर दावे किए जाते हैं। फिल्मी सितारों से लेकर खिलाड़ी, कलाकार और बुद्धिजीवी तक जिनका काम व्यक्तित्व के आकर्षण से चलता है, इनका विज्ञापन करते देखे जाते हैं। प्रायः सभी साबुन सौंदर्य के रक्षक, प्रहरी और त्वचा को चिकना, कोमल रखने वाले विज्ञापित होते हैं। सन् 1970 तक आठ प्रकार के नहाने के साबुन प्रचलित थे। गाँवों-कस्बों में लोग इन साबुनों के उपयोग के अलावा मुल्तानी या काली मिट्टी से भी नहा लिया करते थे। अब इन परंपरागत उपायों का प्रचलन खत्म-सा हो गया है। लोग बीसियों तरह के साबुन इस्तेमाल करते हैं।
नमूने के तौर पर उत्तरप्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के आठ गाँवों का सर्वेक्षण किया गया। वहाँ के लोगों के तीस साल पहले के रहन-सहन और जीवनशैली के साथ अब के रहन-सहन और जीवन-पद्धति के तुलनात्मक अध्ययन में विचित्र निष्कर्ष सामने आए हैं। इन गाँवों की आबादी 1970 की तुलना में ढाई गुना हो गई है। उस समय औसत आमदनी चालीस रुपये थी। अब 110 रुपये हो गई। पहले लोग प्रायः मोटा अनाज खाते थे, अब गेहूँ, पालिश किया चावल का प्रचलन हो गया है। घरों में मनोरंजन के साधन के नाम पर इक्का-दुक्का रेडियो-ट्राँजिस्टर थे, अब अधिकाँश घरों में छोटा-बड़ा टीवी सेट है। अर्थात् जीवन पहले से समृद्ध ही हुआ है।
सौंदर्य प्रसाधनों और साबुन-तेल के मामले में भी इन गाँवों में लोगों की रुचियाँ बदली हैं। अध्ययन करने वाली स्वयंसेवी संस्था ‘प्रयास’ के निष्कर्षों के अनुसार इन गाँवों में 1970 में लोग बहुधा नारियल का तेल इस्तेमाल करते थे, उबटन उगाते और दस में से दो घरों में ‘स्नो’ पाउडर आदि का इस्तेमाल करते थे। अब नारियल के डिब्बाबंद तेल का प्रचलन बढ़ा है। खुला मिलने वाले तेल किसी को नहीं रुचता। आर्निका, आर्निका प्लस, केयो कार्पिन, ब्राह्मी, मेरिको, पैराशूट जैसे उत्पादन गाँव-गाँव में बिकते हैं।
बिकने वाले सभी तेल प्रसाधन बालों को लंबे, घने और कोमल रखने वाले तत्वों को मिलाकर बनाए जाते हैं। विज्ञापनों के मुताबिक निर्माण के समय इन विशेषताओं के सम्मिश्रण का विशेष ध्यान रखा जाता है। होना यह चाहिए था कि लोगों के बाल स्वस्थ और सुँदर होते, लेकिन ‘प्रयास’ ने पाया कि हर घर में तीन-पैंतीस की उम्र के बाद बालों के झड़ने की शिकायत आम पाई गई है। पच्चास की उम्र से आगे बढ़े लोगों में हर चौथा व्यक्ति गंजेपन का शिकार हुआ है।
प्रचार माध्यमों पर आने वाले हर पाँचवे छठे विज्ञापन में दाँतों की देखभाल के लिए अलग-अलग टूथपेस्ट का संदेश होता है। तीन दशक पहले लोग दातुन, मंजन, काली मिट्टी और पिसे हुए कोयले या राख से दाँत साफ करते थे। इन चीजों का इस्तेमाल प्रचार माध्यमों के जरिए अवैज्ञानिक और हानिकारक ठहरा दिया गया है। गाँव-कस्बों में भी दर्जनों प्रकार के टूथपेस्ट और ब्रश मिलने लगे है। दिन में चार-पाँच बार पेस्ट करने की हिदायत दी जाती है। सुबह उठते समय और रात को सोने से पहले ब्रश या मंजन करने की बात फिर भी समझी जा सकती है। विज्ञापनदाता दो बार के खाने और नाश्ते के बाद भी ब्रश और माउथवाश की सिफारिश करते हैं। डेंटिस्ट एसोसिएशन के अखिल भारतीय सम्मेलन में पिछले दिनों यह रेखाँकित किया गया कि लोग पहले की तुलना में दाँतों पर चार गुना ज्यादा ध्यान देते हैं। इसके पीछे दाँतों के प्रति कोई अतिरिक्त सजगता कारण नहीं है, बल्कि विज्ञापनों में दाँतों की देखभाल के बजाय अमुक प्रकार का टूथपेस्ट, ब्रश और माउथवाश को अपनाने और निश्चित हो जाने का ही संदेश दिया जाता है। लोग उस संदेश को पढ़-सुनकर वास्तव में निश्चित हो जाते हैं और दाँतों की जरूरी देखभाल नहीं करते।
विज्ञापन और व्यापार पर ज्यादा ध्यान नहीं देने वाले विशेषज्ञों की राय में कोई भी फार्मूला दाँतों को स्वस्थ-निरोग नहीं रख सकता। उनकी दैनिक देखभाल तो जरूरी है ही, जिसमें सफाई और कुछ पोषक औषधियों का ज्यादा-से-ज्यादा दो बार इस्तेमाल पर्याप्त है। औषधियों का भी लेप और मालिश या मंजन ही। असल में पूरे शरीर का स्वस्थ और नीरोग होना, खानपान की नियमितता और अजीर्ण-कब्ज आदि की ‘मुक्ति से ही दाँतों का स्वास्थ्य संभला रहता है। नैसर्गिक जीवन जीने वालों का स्वास्थ्य इतना अच्छा होता है कि उन्हें अलग से दाँतों की देखभाल की जरूरत ही नहीं पड़ती।
सुँदरता के संबंध में कई मानदंड इन दिनों स्थापित हो चले है। उनमें स्वस्थ-सुडौल शरीर के स्थान पर छरहरा शरीर, रंगी-पुती काया और फैशन डिजाइनरों द्वारा रचे विज्ञापित किए गए वस्त्र मुख्य हैं। यह धारणा पुरानी, रूढ़िवादी और पिछड़ी करार दी गई है कि वस्त्र शरीर ढ़कने या मौसम के प्रभाव से बचने के लिए हैं यों पश्चिमी वेशभूषा, कोट, पेंट, टाई आदि भारतीय परिवेश के अनुरूप नहीं हैं। यहाँ के बहुरंगी मौसम के लिए भारतीय परिधान ही उपयुक्त है। लेकिन आज के समय में यह बात कहना घोर पिछड़ेपन का परिचायक है। पश्चिमी वेशभूषा को आधुनिक और वैश्विक करार देने वाली के सामने फिलहाल चुप रहा जाए। लेकिन वे भी मानते हैं कि नई-नई फैशन, नए डिजाइन किए गए वस्त्र और शरीर को ढकने के बजाय उघाड़ने-उभारने वाले कपड़े न स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त हैं और न ही सभ्यता के। जिन वस्त्रों को पहनकर निकलते हुए आसपास के माहौल, दूसरों के मूड़ और अभीष्ट काम पर ध्यान देने के बजाय, वेश विन्यास को संभालने पर ही केंद्रित रहना पड़े, उन्हें समझदारी तो नहीं ही कहेंगे।
प्रदर्शनप्रियता का ही दूसरा रूप शरीर को जबर्दस्ती छरहरा और दुबला-पतला रखने के लिए किए गए तरह-तरह के उपाय हैं। शरीर स्वस्थ और सुडौल हो, इसके लिए संतुलित आहार-विहार और श्रम-विश्राम ही काफी है। लेकिन इन दिनों डाइटिंग से लेकर वजन कम करने के लिए भाँति-भाँति के रस-रसायनों का उपयोग, कष्टकर व्यायाम और शरीर को कमजोर कर देने वाली नाममात्र की खुराक का फैशन चल पड़ा है। सौंदर्य ओर स्वास्थ्य विषय पर दिल्ली में हुई एक कार्यशाला में डॉ. अरविंद श्रीमाली ने अपने शोधपत्र में बताया कि पाँच लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले शहरों में बीस प्रतिशत युवतियाँ भूखे रहकर मात्र पच्चीस प्रतिशत भोजन करती हैं। उन्हें आवश्यक कैलोरी की सिर्फ एक तिहाई मात्रा ही मिल पाती है। इस कारण तीस वर्ष की उम्र पार करने के बाद उन्हें सिर चकराने, जल्दी थक जाने और खून की कमी होने, नींद नहीं आने जैसी शिकायतें होने लगती है।
शरीर को धर्म-साधना का प्रमुख आधार कहा गया है। जिन्हें धर्मसाधना में कोई रुचि नहीं, उन्हें भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि लौकिक उद्देश्यों जैसे यश, वैभव, सफलता और सत्ता पाने के लिए शरीर का स्वस्थ-समर्थ होना जरूरी है, ने केवल जरूरी बल्कि अनिवार्य है। किसी भी दृष्टि से कमजोर और रुग्ण शरीर अपने उद्देश्य तक नहीं पहुँचता। उसकी उपेक्षा नहीं ही की जानी चाहिए।
दरअसल बाजार में आने वाले नए-नए साधनों और फार्मूलों का उपयोग करने वाले लोग शरीर की उपेक्षा नहीं करते। वे उपभोक्ता सामग्री बनाने वाली कंपनियों के मकड़जाल में उलझकर रह जाते हैं। स्वास्थ्य, सौंदर्य और प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व किन्हीं उपादानों या रेडीमेड चीजों से प्राप्त नहीं होता। इस तथ्य को अपने मन-मस्तिष्क में बिठा लेना चाहिए कि संतुलित आहार-विहार और नैसर्गिक सहज-स्वाभाविक जीवनचर्या ही देह को बलिष्ठ, समर्थ और सक्षम रखती है। उसके लिए विज्ञापन देख-सुनकर तय नहीं किया जा सकता। प्रेरक और मार्गदर्शक साहित्य-संगीत आदि से ही सही रास्ता मिल सकता है।