Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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नियति को बदलने का सूक्ष्म विज्ञान
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किसी भी ज्योतिषी, भविष्यवक्ता रहस्यदर्शी और अंतर्ज्ञानी की भविष्यवाणी शत-प्रतिशत सही सिद्ध नहीं होती। कारण भविष्यकथन करने वाले का अपना दोष या उस विद्या में अधूरी गति का होना हो सकता है। लेकिन सफलतम भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियाँ भी गलत निकलती हैं। उदाहरण के लिए, इस शताब्दी में ज्योतिष विद्या को नया आयाम देने वाले डॉ. वी.वी. रमन ने बैंगलूर में एक उद्योगपति की जन्मकुँडली देखी। कहा कि यह व्यक्ति अपनी अगली समुद्र-यात्रा में डूबकर मर जाएगा।
उद्योगपति ने महीने भर बाद ही समुद्री यात्रा की। वह सकुशल गंतव्य स्थान पर पहुँचा। जिस होटल में वह ठहरा वहाँ भोजन में उसने मछली पसंद की। खाते समय मछली के शरीर में गलती से छूट गया काँटा उसके गले में फँसा। उसे निकालने के लिए किए गए आपरेशन के दौरान उद्योगपति की मृत्यु हो गई। इस प्रसंग में भविष्यवाणी को न तो गलत हुआ कहेंगे और न ही सही। गलत इसलिए नहीं कि मृत्यु समुद्री यात्रा संपन्न होने के बाद हुई और उसके कारणों में जलचर प्राणी भी था। सही इसलिए नहीं कि उसके लिए समुद्र में डूबकर मरना बताया था। बहुत कुशल, निष्णात और अप्रतिम दिव्यदर्शियों की भविष्यवाणियाँ भी इसी तरह गलत होती देखी गई है।
साधारण ज्योतिषी या अंतर्ज्ञानी अपनी विद्या का सही इस्तेमाल नहीं कर पाने के कारण कई बार चूक जाते हैं। यहाँ तक ठीक है, लेकिन अचूक भविष्यकथन करने वाले क्यों चूकते हैं ? इसका उत्तर यही हैं कि नियति को पूरी तरह भाँप लेने की सामर्थ्य अभी विकसित नहीं हो सकती है। वर्तमान को ही ठीक से नहीं देखा-समझा जा सकता, जो सामने हैं। फिर भविष्य तो अनागत है, उसे समझना और भी कठिन हैं। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि भाग्य-भविष्य की कोई सत्ता ही नहीं है।
भाग्य और नियति को अपने पूर्वकृत कर्मों के परिणाम के रूप में देख सकते हैं। ज्योतिषियों के स्थान पर ज्योतिर्विद्या को केंद्र में रखें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि यह विद्या मनुष्य के पिछले कर्मों का दंड-पुरस्कार बताने वाला विज्ञान है। प्रो. वी.वी. रमन से किसी ने पूछा कि कर्मों का परिणाम अटल है। भाग्य में जो लिख है वह होना ही है तो उसे जानने से क्या लाभ ? अवश्यंभावी को जानकार उसके तनाव में अपना वर्तमान क्यों खराब किया जाए ? प्रो. रमन ने उत्तर दिया कि उस जानकारी के आधार पर अपने भविष्य को सुधारा जा सकता है। कम-से-कम यह तो किया ही जा सकता है कि हम अपने किए हुए कर्मों का परिणाम भुगतने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहें। आगे सड़क खराब है, रास्ते में लोग हमला करेंगे या किसी रोग के पूर्व लक्षण प्रकट होने लगे हैं तो उनसे निपटने की तैयारी की जा सकती है। दुखद संभावनाएँ टाली नहीं जा सकती तो कम-से-कम उनसे निपटने और पार हो जाने का धीरज ही अपना लिया जाए। इन सावधानियों के लिए भविष्य में झाँकने का व्यायाम किया जाए।
प्रो. रमन कहते थे कि भविष्य को जान लेने के बाद उसे बदला भी जा सकता है। निचली अदालत में कोई जुर्म सिद्ध होने और सजा सुनाई जाने के बाद ऊँची अदालतों में अपील की जाती है। वहाँ भी अपराध सिद्ध हो जाए तो दो स्थितियाँ होती हैं। एक सजा बहाल रहे और दूसरे उसमें कुछ छूट मिल जाए या दंड का स्वरूप बदल जाए। निचली अदालतों में फाँसी की सजा सुनाए लोगों को बड़ी अदालतों में अक्सर राहत मिलती है। उनकी फाँसी अक्सर आजीवन कारावास में बदल जाती है। भाग्य में उलट-फेर की संभावना इसी तरह मौजूद रहती हैं। उस संभावना का उपयोग किया जाना चाहिए।
भाग्य-भविष्य की सत्ता निश्चित रूप से हैं। उसे नकारा नहीं जाना चाहिए। लेकिन यह प्रतिपादन आधा सच है। प्रतिपादन का शेष अंश यह है कि भाग्य-भविष्य को बदला भी जा सकता है। चेतना के एक स्तर पर पहुँचने के बाद भावी घटनाओं का न केवल पूर्वाभास होता है, बल्कि उन्हें नियंत्रित भी किया जा सकता है। उनकी दिशाधारा बदली भी जा सकती है। प्रो. एस.के. सुब्रह्मण्य स्वामी ‘एस्ट्रो डेस्टिनी एँड विलनेस’ पुस्तक में लिखते हैं, मान लो कि तुम एक बहुत ऊँचे स्थान पर हो जहाँ से सब कुछ देख सकते हो। पूर्व की दिशा में तुम एक मोटर को आते देखते हो और दूसरी दिशा से एक गाड़ी को। एक मोड़ है जहाँ पहुँचने तक किसी भी वाहन चालक को दूसरा वाहन नहीं दिखाई देता। तुम देखते हो कि उस मोड़ पर पहुँचने तक इन दोनों गाड़ियों रोका न जा तो वे आपस में अवश्य टकराएँगी। ऊँचे स्थान पर बैठकर इस संभावना को देखना भविष्य जानने का एक तरीका है। पूर्व निर्देश को समझकर रास्ता निश्चित करने वाले संकेत या रोशनी की व्यवस्था उस नाजुक मोड़ पर की जा सके तो दुर्घटनाएँ टल सकती है।अपने भीतर ऊँचाई पर चढ़कर देखने जैसी क्षमता विकसित कर ली जाए तो घटनाओं का रुख मोड़ा-मरोड़ा जा सकता है।
प्रो. स्वामी ने लिखा है कि कई बार भाग्य-भविष्य जैसी कोई चीज नहीं होती। हम मान लेते हैं कि ऐसा होगा और वह हो जाता है। कभी किसी को स्वप्न दिखाई देता है कि दफ्तर में बाँस से झगड़ा हो रहा है और दिन में झगड़ा हो जाता है। एक बार स्वामी ने सपना देखा कि बस में उनकी जेब कट गई है। उनके पास फियेट गाड़ी थी, शहर और बाहर उसी गाड़ी से वे सफर करते थे। चिंता की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन प्रो. स्वामी ने सोचा कि ऐसा हो सकता है। सपने सच होते हैं। कुतूहल रहा कि सपना सही कैसे होता है। दिन में अपने काम पर निकलते हुए उन्होंने पर्स निकालकर सीट पर रख या। रेड लाइट पर एक जगह गाड़ी रुकी। पास ही एक सिटी बस भी रुकी। पलक झपकते ही सिटी बस से एक आदमी उतरा। उसने खिड़की के भीतर हाथ डाला। सीट पर रखा पर्स झपटकर चला गया।
वर्षों तक प्रो. स्वामी मानते रहे कि उनके सपने सही होते हैं। एक बार उन्होंने अपने पुत्र को लेकर बहुत बुरा स्वप्न देखा। उस स्वप्न में पुत्र दुर्घटना का शिकार हो जाता है। उसके दोनों पाँव काट देने पड़ते हैं। प्रो. स्वामी चिंतित हो उठे। उन्होंने कुँडलिनी विद्या के आचार्य पंडित गोपीनाथ कविराज से इस स्वप्न के बारे में बताया और कहा कि ऐसा उपाय बताएँ, जिससे यह स्वप्न सही न निकले। पंडित जी ने कुछ पल के लिए आँखें मूंदी, ध्यान लगाया और कहा, “आपके सपने इसलिए सही होते हैं कि आप ऐसा मानते हैं। अगर आप अपनी इस मान्यता से पिंड छुड़ा लें तो दुर्घटना को टाला जा सकता है।”
प्रो. स्वामी ने विवशता जताई कि इस मान्यता से पिंड छुड़ाना कठिन है। अनुभव तो यही कहता है कि सपनों के माध्यम से पूर्वाभास होता है। पंडित गोपीनाथ कविराज ने विवशता से उबरने का उपाय सुझाया। उन्होंने कहा कि अपने उन सपनों के बारे में सोचो जो गलत निकलते हैं या उनके बारे में सोचो जो अनर्गल से हैं। जिनकी कोई संगति नहीं बैठती। प्रो. स्वामी ने अपने सपनों की समीक्षा शुरू की और पाया कि सही नहीं उतरने वाले सपनों का अनुपात तीन-चौथाई है। कुछ सपनों के बारे में इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद उन्होंने इस अभ्यास को आगे बढ़ाया। यह मान्यता थोड़ी ढीली हुई कि सपने सही होते हैं। प्रो. स्वामी लिखते हैं कि वह दृश्य देखे आठ वर्ष हो गए। सपना गलत सिद्ध हुआ।
निष्कर्ष यह है कि स्वप्न भविष्य का बोध कराते हैं, यह बात सही है। उतनी ही सही बात यह भी है कि देखे गए स्वप्नों को सही करने वाली शक्ति भी अपने ही भीतर है। मन से उत्पन्न हुई वह शक्ति निरी कल्पना को भी सच कर दिखाती है। प्रो. स्वामी लिखते हैं कि ज्योतिषी को इसलिए दुखद भविष्यवाणियाँ करने से बचना चाहिए, हो सकता है नियति का विधान किसी और तरह काम करे और होनी जिस रूप में दिखाई दे रही है, वह टल जाए। लेकिन एक बार दुखद भविष्यवाणी कर दी गई और जातक ने उसे मान लिया तो दुःख की आशंका और भी घनीभूत हो जाती है। वह संभावना टल रही हो तो भी वापस बुला ली जाती है।
रोग, नुकसान, मृत्यु, विग्रह आदि भविष्यवाणियों के सही होने में सिर्फ होनहार ही कारण नहीं है, उनकी घोषणा भी एक अंश में जिम्मेदार है, जो दुर्घटनाओं के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि रचती है। इस तरह की घोषणाएं कभी कभार जातक के मन में प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न करती हैं। वह उन्हें रोकने के लिए कमर कसता है, उन्हें टालता भी है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कल्पवृक्ष के नीचे बैठकर ‘भूत’ की कल्पना करने वाले व्यक्ति के सामने सचमुच भूत के आ जाने और निगल जाने के मिथक की तरह व्यक्ति अपनी मान्यता से भी अपना विनाश रच लेता है।
भाग्य को जान लेने के बाद उसे बदलने का उपक्रम किया जा सका तो यह ज्योतिष का सही उपयोग है। सवाल हो सकता है कि भाग्य को बदला कैसे जाए ? बहुत बार सिद्धपुरुषों का अनुग्रह भी काम आता है, बशर्ते कि वह प्राप्त किया जा सके। देवरहा बाबा के संबंध में एक वृत्ताँत प्रसिद्ध है कि वाराणसी की उनकी किसी भक्त महिला ने ज्योतिषी को अपनी कुँडली दिखाई। ज्योतिष्ज्ञी ने कहा वैधव्य योग है। तुम्हारे पति के साथ दुर्घटना हो सकती है और उनके प्राण संकट में फँस जाएँगे। वह महिला घबराई, क्योंकि अनुभव था कि इस ज्योतिषी की प्रायः सही निकलती है। अपनी जन्मपत्री लेकर वह महिला देवरहा बाबा के पास गई। उनके सामने अपनी समस्या रखी, बाबा ने जन्मपत्री माँगी, कुछ देर अपने हाथ में रखी, मंच पर बैठे-बैठे ही उन्होंने जन्मपत्री पर अंगुली से कुछ लिखने का उपक्रम किया और महिला से एक मंत्र बुलवाया। पत्री वापस करते हुए उन्होंने कहा, तुम्हारे सौभाग्य में वासुदेव की प्रतिष्ठा हो गई। जा, कुछ नहीं बिगड़ेगा। कुछ महीनों पहले उस महिला का निधन हुआ। मरते समय उसने अपने पति को सामने खड़ा रखा और उसे अपलक निहारते हुए प्राण छोड़े। आत्मबल संपन्न दिव्यदृष्टा सद्गुरु में वह शक्ति है, जो कि भवितव्यता को टाल भी सकती है, उसे हलका भी कर सकती है।
सिद्ध संतों के, सद्गुरुओं ने अनुग्रह के अलावा भी उपाय है। उनका अनुग्रह प्राप्त करने के लिए पात्रता आवश्यक है। उसे सिद्ध किए बिना सिद्धों को भी प्रकृति के विधान में हस्तक्षेप के लिए राजी नहीं किया जाता। निजी स्तर पर किए जाने वाले प्रयत्नों में भी पात्रता विकसित करनी पड़ती है। नियति किसी गंभीर और आश्वस्त करने वाले कारणों के आधार पर ही अपने निर्धारण बदलती है। नियति को बदलने वाले उपायों में तीन प्रमुख हैं-एक इच्छाशक्ति, दूसरा विनय और तीसरा नियति को समझने और तद्नुकूल अपने आपको ढाल लेने वाला ज्ञान। तीसरे उपाय को एक ही शब्द में ‘गुह्य ज्ञान’ भी कहा जा सकता है।
इच्छाशक्ति अर्थात् अपने आप को बदली हुई नियति के योग्य सिद्ध करने का संकल्प। संसार में किसी भी व्यक्ति को इसलिए छूट नहीं दी जाती कि उसने बहुत कष्ट भोग लिया। अकारण दया और क्षमा का नियम बना लिया जाए तो प्रत्येक अपराधी और पापी को मनमाना आचरण करने की छूट मिल जाएगी। वह इस आधार पर गलत रास्ते पर चलता रहेगा कि क्षमा तो मिल ही जाएगी। क्षमा नहीं किए जाने के पीछे कठोरता कारण नहीं है। प्रकृति या नियति में अकारण क्षमा नहीं करने का विधान दरअसल उदारता और हित की भावना से ही है। क्षमा को यदि एक सामान्य नियम मान लिया जाए तो किसी को अपना सुधार करने, विकसित होने और योग्य बनने की प्रेरणा ही नहीं मिलेगी। अहैतुकी क्षमा के बाद फिर व्यक्ति अपना कल्याण भी नहीं कर सकेगा। अस्तु ‘इच्छा-शक्ति’ का इतना ही मतलब है कि हम अपने आपको बदलने का संकल्प करते हैं। इसलिए संकल्प करते हैं कि अपनी दूसरी योग्यताओं के बल पर समाज का अधिक हित कर सकें। मानवीय आधार पर डॉक्टरों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों और प्रतिभाओं को उनकी छोटी-मोटी भूलों के लिए कालाँतर में क्षमा कर दिया जाता है। उस स्थिति में न्यायाधीश का विवेक क्षमा का निर्णय इस आधार पर करता है कि प्रतिभा अपने आप को बदलने के लिए तैयार है। दूसरे उसकी योग्यता और प्रतिभा से समाज की बेहतर सेवा हो सकती है। वह सेवा दंड या कारावास भोगते रहने पर संभव नहीं होती।
अपने आपको बदलने और विश्व को अधिक सुँदर, उन्नत, व्यवस्थित बनाने के लिए समर्पण का मन बना लिया जाए तो नियति में बदलाव आने लगता है। तब प्रकृति एक अवसर देती है। ऊपर सिद्ध कृपा के जो उदाहरण दिए गए हैं, उनके पीछे भी यही रहस्य है। जिन लोगों की नियति में बदलाव आया, उनके लिए नियति ने उद्देश्यपूर्ण उदारता ही बरती। योगी सदानंद ने इस उदारता की व्याख्या करते हुए लिखा है, “यदि हम अपने आपको दिव्य प्रयोजनों के लिए समर्पित कर सकें तो भागवत् चेतना हमारी नियति अपने हाथ में ले लेती है। इससे कर्म-बंधन छूट जाते हैं, पिछले जन्मों में किए गए कर्म केंचुली की तरह उतर जाते हैं और व्यक्ति अधिक तेजस्वी होकर चमकने लगता है।”
ध्यान नपहे इच्छाशक्ति का उपयोग कुटिल भावना से नहीं किया जा सकता। बदलने या सुधरने का ढोंग कर अपने लिए क्षमा नहीं बटोरी जा सकती। बाहरी दुनिया में काम करने वाली न्याय−व्यवस्था को झाँसा देना कितना ही आसान हो, दिव्य प्रकृति में कोई झाँसेबाजी नहीं चलती। दिव्य जगत् में काम कर रही शक्तिधारा को समझकर, उससे सामंजस्य बिठाते हुए काम किया जाए तो नियति में स्वतः परिवर्तन आने लगता है। उसके लिए कामना करने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती।
नियति में बदलाव की संभावना का उपयोग करने के लिए ‘विनय’ दूसरा आवश्यक गुण है। विनय का अर्थ सामान्य व्यवहार में बरती जाने वाली शिष्ट भाषा, सम्मान और शालीनता नहीं है। यह तो अपने आपको भागवत् चेतना के हवाले छोड़ देने और अकिंचन हो जाने की मनःस्थिति है। उस स्थिति में अहंकार का नाम-निशान नहीं बचता। एकबारगी तो यह परवाह भी छोड़ देनी पड़ती है कि नियति में उदार परिवर्तन भी आएँगे। अपने आपको कठोर तथा और अधिक क्रूर परिवर्तनों के लिए भी उसी कृतज्ञभाव से तैयार रखना पड़ता है, जैसा कि उदार परिवर्तनों के लिए तैयार किया जाता है। स्वयं को नियामक सत्ता का ‘यंत्र’ मान लेने और जैसा वह चाहे उपयोग करने देने की बेशर्त तैयारी इसी ‘विनय’ भाव में आती है। इस तैयारी के बाद नियति में परिवर्तन के लिए गुह्य ज्ञान का आश्रय लिया जा सकता है।