Magazine - Year 2000 - Version 2
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Language: HINDI
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हृदय रोगों को हम स्वयं आमंत्रित करते हैं।
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आज के दौर में आक्रामक-प्रतिस्पर्द्धात्मक जीवन-शैली ने भौतिक सुख-सुविधाओं ने भारी वृद्धि की हैं, लेकिन साथ ही मनुष्य की मानसिक-शाँति एवं शारीरिक स्वास्थ्य को भी बुरी तरह नष्ट कर दिया है। उऋ. रक्तचाप से ग्रसित लोगों की बढ़ती संख्या इसी की देन है। नवीनतम वैज्ञानिक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व-जनसंख्या की लगभग 25 प्रतिशत आबादी इसकी चपेट में है। सामान्यतया संकट के समय सामना करने के लिए प्रकृति स्वयं ही हमारा रक्तचाप बढ़ा देती है, लेकिन यह बढ़ा हुआ रक्त-चाप स्थिति सामान्य हो जाने पर स्वतः ही सामान्य हो जाता है। परंतु आजकल क्रोध, भय, उत्तेजना व असंतुष्टि के जाल में उलझे-फंसे व्यक्ति में संकट से लड़ने की क्षमता ही खत्म होती जा रही है। इसके फलस्वरूप यदि रक्तचाप बढ़ता है तो बढ़ा ही रह जाता है।
हमारे शरीर में रक्तसंचार के लिए लिए सिकुड़ता-फैलता रहता है। जब दिल सिकुड़ता है तो बड़े जोर से रक्त को धमनियों में धकेलता है। धमनियां रक्त ग्रहण करते समय फैलती है और फिर रक्त को आगे बढ़ाने के लिए सिकुड़ती है। बारी-बारी से रक्त प्रसार व ग्रहण के निमित्त हृदय में संकुचन या प्रसार-क्रिया होती है। यदि धमनियाँ लचीली, नरम व स्वच्छ होती हैं तो हृदय को रक्त प्रवाहित करने व धकेलने में अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता है। लेकिन यदि किसी कारण से धमनियाँ संकरी व कड़ी हो जाएँ तो हृदय को रक्त प्रवाहित करने के लिए अतिरिक्त श्रम करना पड़ता है, जिससे व्यक्ति उच्च रक्तचाप का शिकार हो जाता है।
एक सामान्य व्यक्ति में 80 (निम्न) से 120 (उच्च) मि.मी. ब्लडप्रेशर होता है। 90-100 (निम्न) से 104-150 मि.मी. (उच्च) तक मोडरेटेड ब्लडप्रेशर माना जाता है। व्यक्ति की उम्र, लिंग, शारीरिक व मानसिक श्रम के अनुसार रक्तचाप का सही अनुपात भी भिन्न-भिन्न होता है।
कृत्रिम-अप्राकृतिक जीवन, असंयमित खानपान और आहार-विहार से रक्त में विकार बढ़ता चला जाता है। निजी, घरेलू और कार्यक्षेत्र की समस्याओं से मन-मस्तिष्क में यदि तनाव बना रहता है तो इससे भी रक्त में विकार उत्पन्न होते रहते हैं। विकार युक्त रक्त से धमनियाँ संकरी व कड़ी हो जाती है और रक्त-संचरण में बाधा आती है। रक्तचाप का रोग शरीर की दूषित अवस्था से शुरू होता है और कभी-कभी यह इतना भयंकर रूप ले लेता है कि रोगी के लिए जानलेवा सिद्ध हो जाता है।
उच्च रक्तचाप के अनेक कारणों में शरीर में नमक की अधिकता एक मुख्य कारण है। शुरुआत में जब लगे कि रक्तचाप सामान्य से अधिक हो रहा है, तो समझ लेना चाहिए कि शरीर की आवश्यकता से अधिक नमक ग्रहण किया जा रहा है। नब्बे प्रतिशत मामलों में यही कारण पाया जाता है। यदा-कदा यह बीमारी आनुवंशिक भी होती है। माता-पिता में से एक या दोनों के उच्च रक्तचाप से पीड़ित होने की स्थिति में बच्चे में भी इसके होने का खतरा बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त गुरदे की खराबी, शरीर में हारमोन का असंतुलन, लंबे समय तक गर्भ-निरोधक गोलियों का इस्तेमाल, गर्भावस्था, परिस्थितियों का दबाव, विपरीत मनोदशा एवं आवश्यक आराम का अभाव आदि अनेक ऐसे कारण हो सकते हैं, जो इस बीमारी को जन्म देते हैं। चाय, कॉफी एवं नशीले पदार्थों का अधिक सेवन भी रक्तचाप को बढ़ाता है। चिकित्सकों के अनुसार मात्र एक सिगरेट पीने से रक्तचाप आधे से लेकर एक घंटे तक बढ़ा रह सकता है और दिनभर धूम्रपान करने से पूरे दिन रक्तचाप बढ़ा रह सकता है। मोटापा भी उच्च रक्तचाप का एक बहुत बड़ा कारण है। एक सामान्य आदमी का वजन 45 से 75 किलो के बीच होना चाहिए। यदि वजन लंबाई एवं उम्र के निर्धारित आनुपातिक वजन से ज्यादा बढ़ता है, तो रक्त कोशिकाओं, नालियों व हृदय पर बुरा असर पड़ता है।
उच्च रक्तचाप के शिकार व्यक्ति को सिर में दर्द, चक्कर आना, चिड़चिड़ापन, तनाव, मुँह लाला होना, धमनियों का फूल जाना, साँस फूलना जैसे मुख्य लक्षणों के अलावा दिल में दर्द हो सकता है, जिसे हाईस्ट्रोक कहते हैं। स्थिति ज्यादा खराब होने पर दिमाग की नस फटना, आँखों के परदे पर विकार आ जाने से दृष्टि कमजोर होना एवं गुरदे पर असर होने से इनका कमजोर होना, जैसे घातक लक्षण प्रकट होते हैं। कई बार रक्तचाप के अचानक तीव्र हो जाने से गुरदे भी अचानक नष्ट हो सकते हैं। एक शोध-रिपोर्ट के अनुसार लगभग 15 प्रतिशत उच्च रक्तचाप के रोगी गुरदे के विकार से ग्रस्त होते हैं। उच्च रक्त चाप से गुर्दों पर पड़ने वाले असर को नेफ्रोस्कलोसिस कहते हैं। इस असर को ‘माइक्रो एल्ब्यूमिल विधि’ द्वारा पहचाना जा सकता है।
उक्त रक्तचाप से हृदय की माँसपेशियों में स्थायी रूप से दोष उत्पन्न हो जाते हैं, जिससे पंपिंग क्रिया प्रभावित होती है व हार्टफेल हो सकता है। मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के शोधकर्त्ताओं की एक टीम ने इस आशय की एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। डॉ. डब्लू. जोनाथन लेडरेट के नेतृत्व में किए गए इस शोध-अध्ययन में इन वैज्ञानिकों ने पाया कि दिल की सामान्य धड़कन के लिए हृदय की कोशिकाएँ क्रमशः बढ़ती जाती हैं और इससे कैल्शियम चैनल व आर्गेनल चैनल के बीच की दूसरी भी बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप दोनों कोशिकाओं के बीच कम्यूनिकेशन घटता जाता है और हार्टबीट कमजोर पड़ती जाती है। जिसकी अंतिम परिणति हार्टफेल के रूप में होती है। डॉ. लेडरेट का कहना है कि उच्च रक्तचाप लंबे समय तक रहने से यदि हृदय की पेशियों में यह दोष उत्पन्न हो जाए तो इसे फिर से ठीक करना प्रायः असंभव हैं। ज्यादा से ज्यादा इन पेशियों की बढ़ी हुई स्थिति को स्थिर किया जा सकता है।
उच्च रक्तचाप न हो इसके लिए सबसे जरूरी है खानपान एवं आहार-विहार में संयम। प्रातःकाल ठंडी हवा में टहलना, थोड़ी देर व्यायाम करना भी इसके लिए अत्यंत लाभदायक है। उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों को नमक रहित संतुलित आहार लेना चाहिए। चिकनाई व प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन कम कर देना चाहिए। कब्ज से बचने का प्रयास करना चाहिए एवं भूख से कुछ कम खाना चाहिए। शोध-अनुसंधान से यह ज्ञात हुआ है कि यदि अधिक वजन वाला व्यक्ति अपना वजन एक किलोग्राम कम करता है तो उसका रक्तचाप बिना किसी औषधि के ही लगभग दो मि.मी. कम हो जाता है। खानपान के इस क्रम में चाय, कॉफी एवं नशीले पदार्थों को पूरी तरह से बंद करना ही अच्छा है।
इसी के साथ ईर्ष्या, द्वेष, भय, झूठ, अहंकार आदि मानसिक विकारों से बचने का प्रयास करना चाहिए। उदाहरण के लिए, झूठ बोलने वाला व्यक्ति हर समय भयग्रस्त रहता है कि कहीं उसका झूठ पकड़ा न जाए। यह द्वंद्व की स्थिति उसका रक्तचाप बढ़ाए रख सकती है। इस द्वंद्व की स्थिति से उबरने व पूर्णतः तनाव मुक्त करने के लिए ध्यान का प्रयोग भी अतीव लाभदायक सिद्ध होता है। इस सत्य को विज्ञानवेत्ताओं ने भी स्वीकार करते हुए कहा है कि ध्यान के नियमित प्रयोग से न केवल मन-मस्तिष्क शाँत व तनाव मुक्त रहता है, बल्कि शारीरिक व्यवस्था में भी समुचित सामंजस्य बना रहता है।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अपनी कमजोरियों से हम बीमारियों को स्वयं आमंत्रित करते हैं। अनियमित, असंयमित जीवनचर्या ने ही हमें बीमारियों से घेर रखा है। यदि हम पुनः प्रकृति के अनुशासन में रहकर जीना सीख सकें, तो स्वस्थ रहना कोई असंभव कार्य नहीं है।
सामान्यतया संकट के समय सामना करने के लिए प्रकृति स्वयं ही हमारा रक्तचाप बढ़ा देती है, लेकिन यह बढ़ा हुआ रक्तचाप सामान्य हो जाने पर स्वतः ही सामान्य हो जाता है। परंतु आजकल क्रोध, भय, उत्तेजना व असंतुष्टि के जाल में उलझे-फँसे व्यक्ति में संकट से लड़ने की क्षमता ही खत्म होती जा रही है। इसके फलस्वरूप यदि रक्तचाप बढ़ता है तो बढ़ा ही रह जाता है।